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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 66/ मन्त्र 1
स्तु॒हीन्द्रं॑ व्यश्व॒वदनू॑र्मिं वा॒जिनं॒ यम॑म्। अ॒र्यो गयं॒ मंह॑मानं॒ वि दा॒शुषे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठस्तु॒हि । इन्द्र॑म् । व्य॒श्व॒ऽवत् । अनू॑र्मिम् । वा॒जिन॑म् । यम॑म् ॥ अ॒र्य: । गय॑म् । मंह॑मानम् । वि । दा॒शुषे॑ ॥६६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
स्तुहीन्द्रं व्यश्ववदनूर्मिं वाजिनं यमम्। अर्यो गयं मंहमानं वि दाशुषे ॥
स्वर रहित पद पाठस्तुहि । इन्द्रम् । व्यश्वऽवत् । अनूर्मिम् । वाजिनम् । यमम् ॥ अर्य: । गयम् । मंहमानम् । वि । दाशुषे ॥६६.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 66; मन्त्र » 1
विषय - परमेश्वर और राजा।
भावार्थ -
हे पुरुष ! तू (व्यश्ववत्) विनीत अश्व वाले पुरुष के समान स्वयं अपेन इन्द्रियों पर विजयशील जितेन्द्रिय पुरुष के समान होकर (अनूर्मिम्) भय, पीड़ा रहित, अविक्षुब्ध, गम्भीर (यमम्) सर्व नियन्ता (वाजिनम्) ज्ञान और ऐश्वर्यवान् और (दाशुषे) दानशील, आत्मत्यागी पुरुष को (अर्यः गयम्) शत्रु के धन, बल, प्राणों के (मंहमानम्) देने वाले (इन्द्रम्) शत्रुहन्ता या तमोनाशक परमेश्वर की (स्तुहि) स्तुति कर। अथवा—(दाशुषे) आत्मत्यागी को (अर्यः) प्रजा और (गयं) धन के (मंहमानं) देने वाले ईश्वर की स्तुति कर।
प्रजा वा अरीः। श० ३। ६। ४। २१॥ अरिः स्वामी।
राजा के पक्ष में—(अनूर्मिम्) पीड़ामय, बाधा रहित, (यमम्) राष्ट्र नियन्ता, (वाजिनम्) ऐश्वर्यवान् की स्तुति कर जो (अर्यः) शत्रु (गयं) धन को जीतकर (दाशुषे) करप्रद प्रजाको (वि) विविध रूपों में (महमानं) देनेहारा है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विश्वमनाः वैयश्व ऋषिः। इन्द्रो देवता। उष्णिहः। तृचं सूक्तम्॥
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