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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 73

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 73/ मन्त्र 4
    सूक्त - वसुक्रः देवता - इन्द्रः छन्दः - जगती सूक्तम् - सूक्त-७३

    य॒दा वज्रं॒ हिर॑ण्य॒मिदथा॒ रथं॒ हरी॒ यम॑स्य॒ वह॑तो॒ वि सू॒रिभिः॑। आ ति॑ष्ठति म॒घवा॒ सन॑श्रुत॒ इन्द्रो॒ वाज॑स्य दी॒र्घश्र॑वस॒स्पतिः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य॒दा । वज्र॑म् । हिर॑ण्यम् । इत् ।अथ॑ । रथ॑म् । हरी॒ इ॒ति । यम् । अ॒स्य॒ । वह॑त: । वि । सू॒रिऽभि॑: ॥ आ । ति॒ष्ठ॒ति॒ । म॒घऽवा॑ । सन॑ऽश्रुत: । इन्द्र॑: । वाज॑स्य । दी॒र्घऽश्र॑वस: । पति॑: ॥७३.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदा वज्रं हिरण्यमिदथा रथं हरी यमस्य वहतो वि सूरिभिः। आ तिष्ठति मघवा सनश्रुत इन्द्रो वाजस्य दीर्घश्रवसस्पतिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यदा । वज्रम् । हिरण्यम् । इत् ।अथ । रथम् । हरी इति । यम् । अस्य । वहत: । वि । सूरिऽभि: ॥ आ । तिष्ठति । मघऽवा । सनऽश्रुत: । इन्द्र: । वाजस्य । दीर्घऽश्रवस: । पति: ॥७३.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 73; मन्त्र » 4

    भावार्थ -
    (अस्य) इस परमेश्वर के (यम्) जिस (रथम्) रमण के साधन, आनन्दप्रद रस को (सूरिभिः) विद्वानों द्वारा (हरी) हरणशील ज्ञान और कर्म दोनों (वहतः) प्राप्त कराते हैं और (यदा) जब (हिरण्यम्) हितकारी और रमणीय, आनन्दकारी (वज्रम्) ज्ञानरूप वज्र प्रकट होता है (अथा) तब (सनश्रुतः) सदाकाल से विख्यात, वेद द्वारा कीर्त्तित, (दीर्घश्रवसः) अति अधिक कीर्त्ति वाले (वाजस्य) ज्ञान और ऐश्वर्य का (पतिः) स्वामी (मघवा) ऐश्वर्यवान्, परमेश्वर उस रस मैं (अतिष्ठति) व्याप्त रहता है। अध्यात्म में—(अस्य) इस जीव के (सूरिभिः) प्रेरक प्राणों सहित (यं रथं) जिस ‘रथ’ या रमणीय, रस स्वरूप को (हरी) हरणशील प्राण और अपान (वहतः) प्राप्त कराते हैं और (यदा) जब वह (हिरण्यम् वज्रम्) हित और रमण योग्य वीर्य को और ज्ञान को धारण कर लेता है तब (दीर्घश्रवसः) अति अधिक ज्ञान से युक्त (वाजस्य पतिः) ऐश्वर्य का स्वामी (सनश्रुतः) सदा से श्रुति द्वारा कीर्त्तित (मघवा) परमेश्वर आत्मा में (आतिष्ठति) विराजता है। राजा के पक्ष में—(यं रथं) जिस रथ के समान सुन्दर राष्ट्र को (हरी) अश्वों के समान दो योग्य विद्वान् राजा और मन्त्री, सभापति और महामात्य (सूरिभिः) विद्वान् सभासदों के साथ मिल कर धारण करते हैं और जब (वज्रं) वज्र, बलशाली दण्ड विधान को भी (हिरण्यम्) सुवर्ण या रजत के बने राजदण्ड के समान प्रजा के हित और सुख के लिये धरता है तब समझो कि (दीर्घश्रवसः) अति यश या अन्नादि समृद्धि वाले (वाजस्य) संग्राम या बलैश्वर्य का (पतिः) पालक (सनश्रुतः) सदा से विख्यात (मधवा) ऐश्वर्यवानं राजा (अतिष्ठति) राज्य पर शासन करता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिः—१-३ वसिष्ठः, ४-६ वसुक्रः। देवता—इन्द्रः। छन्दः—१-३ विराडनुष्टुप्ः, ४-५ जगती, ६ अभिसारिणीत्रिष्टुप्॥

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