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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 18

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 18/ मन्त्र 2
    सूक्त - अथर्वा देवता - पर्जन्यः, पृथिवी छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - वृष्टि सूक्त

    न घ्रंस्त॑ताप॒ न हि॒मो ज॑घान॒ प्र न॑भतां पृथि॒वी जी॒रदा॑नुः। आप॑श्चिदस्मै घृ॒तमित्क्ष॑रन्ति॒ यत्र॒ सोमः॒ सद॒मित्तत्र॑ भ॒द्रम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । घ्रन् । त॒ता॒प॒ । न । हि॒म: । ज॒घा॒न॒ । प्र । न॒भ॒ता॒म् । पृ॒थि॒वी । जी॒रऽदा॑नु: । आप॑: । चि॒त् । अ॒स्मै॒ । घृ॒तम् । इत् । क्ष॒र॒न्ति॒ । यत्र॑ । सोम॑: । सद॑म् । इत् । तत्र॑ । भ॒द्रम् ॥१९.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न घ्रंस्तताप न हिमो जघान प्र नभतां पृथिवी जीरदानुः। आपश्चिदस्मै घृतमित्क्षरन्ति यत्र सोमः सदमित्तत्र भद्रम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न । घ्रन् । तताप । न । हिम: । जघान । प्र । नभताम् । पृथिवी । जीरऽदानु: । आप: । चित् । अस्मै । घृतम् । इत् । क्षरन्ति । यत्र । सोम: । सदम् । इत् । तत्र । भद्रम् ॥१९.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 18; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    (घ्रन्) घाम या ग्रीष्मकाल का प्रचण्ड सूर्य (न तताप) भूमि को जब अधिक न तपा रहा हो और जब (हिमः) हिम, पाला, अति शीत भी (न जघान) पीड़ित न करे तब (पृथिवी) यह पृथिवी क्षेत्रभूमि (जीरदानुः) जीवनप्रद, अन्न का प्रदान करने योग्य होकर (प्र नभताम्) अच्छी रूप से तैयार की जाय और तभी (आपः) जलधाराएं (चित्) भी (अस्मै) इस भूमिपति या क्षेत्रपाल के लिए (घृतम्) घी या आयु और बलप्रद अन्न जल ही मानो (क्षरन्ति) बहाते हैं। ठीक भी है क्योंकि (यत्र) जहां (सोमः) सोम, जल वर्षाने वाला मेघ बरसाता है (तत्र) वहां (सदम् इत्) सदा ही (भद्रम्) सुख, कल्याण और सुभिक्ष रहा करता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। पृथिवी पर्जन्यश्च देवते। चतुष्पाद् भुरिगुष्णिक्। २ त्रिष्टुप्। द्वयृचं सुक्तम्॥

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