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अथर्ववेद - काण्ड 8/ सूक्त 10/ मन्त्र 2
सूक्त - अथर्वाचार्यः
देवता - विराट्
छन्दः - द्विपदा साम्नी त्रिष्टुप्
सूक्तम् - विराट् सूक्त
न च॑ प्रत्याह॒न्यान्मन॑सा॒ त्वा प्र॒त्याह॒न्मीति॑ प्र॒त्याह॑न्यात् ॥
स्वर सहित पद पाठन । च॒ । प्र॒ति॒ऽआ॒ह॒न्यात् । मन॑सा । त्वा॒ । प्र॒ति॒ऽआह॑न्मि । इति॑ । प्र॒ति॒ऽआह॑न्यात् ॥१५.२॥
स्वर रहित मन्त्र
न च प्रत्याहन्यान्मनसा त्वा प्रत्याहन्मीति प्रत्याहन्यात् ॥
स्वर रहित पद पाठन । च । प्रतिऽआहन्यात् । मनसा । त्वा । प्रतिऽआहन्मि । इति । प्रतिऽआहन्यात् ॥१५.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 10;
पर्यायः » 6;
मन्त्र » 2
विषय - विषनिवारण की साधना।
भावार्थ -
(तत्) इसलिये (एवं विदुषे) इस प्रकार के पूर्व सूक्त में कहे विष-दोहन विद्या के रहस्य को जानने वाले (यस्मै) जिस विद्वान् के प्रति सर्प आदि जन्तु (अलाबुना) अपनी विष की थैली में से विष (अभिषिञ्चेत्) फेंके तो वह विद्वान् (प्रत्याहन्यान्) उसका प्रतिकार करने में समर्थ होता है और यदि (न च प्रत्याहन्यात्) वह उसको मारना न चाहे तो (मनसा) मानस बल, संकल्प बल से ही (त्वा प्रति आहन्मि) ‘तेरा मैं प्रतिघात करता हूँ’ (इति) ऐसी प्रबल भावना से ही वह (प्रति आहन्यात्) उसके हानिकारक प्रभाव का निराकरण करे। (यत्) जब (प्रति आहन्ति) वह प्रतिघात करता है (तत्) तब वह (विषम् एव प्रति आहन्ति) विष का ही प्रतिघात किया करता है, विष के घातक प्रभाव को ही नष्ट किया करता है। (य एवं वेद) जो इस प्रकार के रहस्य को जान लेता है (विषम् एव अस्य अप्रियम् भ्रातृव्यम् अनु विषिच्यते) विष ही उसके अप्रिय शत्रु पर जा पड़ता है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वाचार्य ऋषिः। विराड् देवता। १ विराड् गायत्री। २ साम्नी त्रिष्टुप्। ३ प्राजापत्या अनुष्टुप्। ४ आर्ची उष्णिक् अनुक्तपदा द्विपदा। चतुर्ऋचं पर्यायसूक्तम्॥
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