ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 84/ मन्त्र 1
ऋषिः - गोतमो राहूगणः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
असा॑वि॒ सोम॑ इन्द्र ते॒ शवि॑ष्ठ धृष्ण॒वा ग॑हि। आ त्वा॑ पृणक्त्विन्द्रि॒यं रजः॒ सूर्यो॒ न र॒श्मिभिः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअसा॑वि । सोमः॑ । इ॒न्द्र॒ । ते॒ । शवि॑ष्ठ । धृ॒ष्णो॒ इति॑ । आ । ग॒हि॒ । आ । त्वा॒ । पृ॒ण॒क्तु॒ । इ॒न्द्रि॒यम् । रजः॑ । सू॒र्यः॑ । न । र॒श्मिऽभिः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
असावि सोम इन्द्र ते शविष्ठ धृष्णवा गहि। आ त्वा पृणक्त्विन्द्रियं रजः सूर्यो न रश्मिभिः ॥
स्वर रहित पद पाठअसावि। सोमः। इन्द्र। ते। शविष्ठ। धृष्णो इति। आ। गहि। आ। त्वा। पृणक्तु। इन्द्रियम्। रजः। सूर्यः। न। रश्मिऽभिः ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 84; मन्त्र » 1
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
विषय - विषय (भाषा)- अब चौरासीवें सूक्त का आरम्भ किया जाता है। इसके प्रथम मन्त्र में सेनापति के गुणों का उपदेश किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः - सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे धृष्णो शविष्ठ इन्द्र ! ते तुभ्यं यः सोमः अस्माभिः असावि यः ते तव इन्द्रियं सूर्यः रश्मिभिः रजः न इव प्रकाशयेत् तं त्वम् आ गहि समन्तात् प्राप्नुहि स च त्वा त्वाम् आ पृणक्तु ॥१॥
पदार्थ -
पदार्थः- हे (धृष्णो) प्रगल्भ= साहसी, (शविष्ठ) बलिष्ठ= सर्वशक्तिशाली, (इन्द्र) सर्वैश्वर्यप्राप्तिहेतो=समस्त ऐश्वर्यों की प्राप्ति कारण! (ते) तुभ्यम्=तुम्हारे लिये, (यः)=जो, (सोमः) उत्तमोऽनेकविधरोगनाशक ओषधिरसः=रोगों के विरोध और नाश का उत्तम ओषधि रस, (अस्माभिः)=हमारे द्वारा, (असावि) उत्पाद्यते=पैदा किया जाता है, (यः)=जो, (ते) तव=तुम्हारे, (इन्द्रियम्) मनः= मन, (सूर्यः) सविता=सूर्य मण्डल की, (रश्मिभिः) किरणैः= किरणों के द्वारा, (रजः) लोकसमूहम्= लोकों के समूह के, (न) इव=समान, (प्रकाशयेत्)= प्रकाशित करता है, (तम्)=उसको, (त्वम्)=तुम, (आ) आभिमुख्ये+समन्तात् =हर ओर से, (प्राप्नुहि)=प्राप्त करो, (च)=और, (सः)=वह, (त्वा) त्वाम्=तुमंको, (आ) समन्तात्= हर ओर से, (पृणक्तु) सम्पर्कं करोतु= सम्पर्क करे ॥१॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद - महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। प्रजा और सेना के सभाओ में स्थित पुरुषों की उत्तम रूप से है परीक्षा करके, सूर्य के समान तेजस्वी पुरुष को प्रजा और सेना की सभा का अध्यक्ष और सेनापति बना करके, सब प्रकार से उसका सत्कार करना चाहिए और सभा को भी स्थापित करनी चाहिये ॥१॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.) - पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (धृष्णो) साहसी, (शविष्ठ) सर्वशक्तिशाली और (इन्द्र) समस्त ऐश्वर्यों की प्राप्ति के हेतु! (ते) तुम्हारे लिये (यः) जो (सोमः) रोगों के विरोध और नाश के लिये उत्तम ओषधि रस, (अस्माभिः) हमारे द्वारा (असावि) पैदा किया जाता है। (यः) जो (ते) तुम्हारे (इन्द्रियम्) मन और (सूर्यः) सूर्य मण्डल की (रश्मिभिः) किरणों के द्वारा, (रजः) लोकों के समूह के (न) समान (प्रकाशयेत्) प्रकाशित करता है। (तम्) उसको (त्वम्) तुम (आ) हर ओर से (प्राप्नुहि) प्राप्त करो (च) और (सः) वह (त्वा) तुमको (आ) हर ओर से (पृणक्तु) सम्पर्क करे ॥१॥
संस्कृत भाग - असा॑वि । सोमः॑ । इ॒न्द्र॒ । ते॒ । शवि॑ष्ठ । धृ॒ष्णो॒ इति॑ । आ । ग॒हि॒ । आ । त्वा॒ । पृ॒ण॒क्तु॒ । इ॒न्द्रि॒यम् । रजः॑ । सू॒र्यः॑ । न । र॒श्मिऽभिः॑ ॥ विषयः- पुनः सेनाध्यक्षकृत्यमुपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। प्रजासेनाशालासभास्थैः पुरुषैः सुपरीक्ष्य सूर्यसदृशं प्रजासेनाशालासभाध्यक्षं कृत्वा सर्वथा स सत्कर्त्तव्य एवं सभ्या अपि प्रतिष्ठापयितव्याः ॥१॥
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