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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 52 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 52/ मन्त्र 14
    ऋषिः - सव्य आङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    न यस्य॒ द्यावा॑पृथि॒वी अनु॒ व्यचो॒ न सिन्ध॑वो॒ रज॑सो॒ अन्त॑मान॒शुः। नोत स्ववृ॑ष्टिं॒ मदे॑ अस्य॒ युध्य॑त॒ एको॑ अ॒न्यच्च॑कृषे॒ विश्व॑मानु॒षक् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । यस्य॑ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । अनु॑ । व्यचः॑ । न । सिन्ध॑वः । रज॑सः । अन्त॑म् । आ॒न॒शुः । न । उ॒त । स्वऽवृ॑ष्टिम् । मदे॑ । अ॒स्य॒ । युध्य॑तः । एकः॑ । अ॒न्यत् । च॒कृ॒षे॒ । विश्व॑म् । आ॒नु॒षक् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न यस्य द्यावापृथिवी अनु व्यचो न सिन्धवो रजसो अन्तमानशुः। नोत स्ववृष्टिं मदे अस्य युध्यत एको अन्यच्चकृषे विश्वमानुषक् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न। यस्य। द्यावापृथिवी इति। अनु। व्यचः। न। सिन्धवः। रजसः। अन्तम्। आनशुः। न। उत। स्वऽवृष्टिम्। मदे। अस्य। युध्यतः। एकः। अन्यत्। चकृषे। विश्वम्। आनुषक् ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 52; मन्त्र » 14
    अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 14; मन्त्र » 4

    व्याखान -

    हे परमैश्वर्ययुक्तेश्वर! आप इन्द्र हो । हे मनुष्यो! 'जिस परमात्मा का अन्त - इतना यह है', न हो, उसकी व्याप्ति का परिच्छेद (इयत्ता) परिमाण कोई नहीं कर सकता तथा (द्यावा) अर्थात् सूर्यादिलोक– सर्वोपरि आकाश तथा (पृथिवी) मध्य = निकृष्टलोक - ये कोई उसके आदिअन्त को नहीं पाते, क्योंकि (अनुव्यचः) वह सबके बीच में अनुस्यूत (परिपूर्ण) हो रहा है तथा (न सिन्धवः)  अन्तरिक्ष में जो दिव्य जल तथा (रजसः)  सब लोक सो भी (न - अन्तम् आनशुः) उसका अन्त नहीं पा सकते (नोत स्ववृष्टिं मदे) वृष्टिप्रहार से (युध्यतः)  युद्ध करता हुआ वृत्र (मेघ) तथा बिजली-गर्जन आदि भी (अस्य) ईश्वर का पार नहीं पा सकते। * हे परमात्मन्! आपका पार कौन पा सके, क्योंकि (एक:)  एक अपने से भिन्न सहायरहित स्वसामर्थ्य से ही (विश्वम्) सब जगत् को (आनुषक्) आनुषक्त, अर्थात् उसमें व्याप्त होते और (चकृषे) [कृतवान्] आपने ही उत्पन्न किया है, फिर जगत् के पदार्थ आपका पार कैसे पा सकें तथा (अन्यत्) आप जगद्रूप कभी नहीं बनते, न अपने में से जगत् को रचते हो, किन्तु अपने अनन्त सामर्थ्य से ही जगत् का रचन, धारण और लय यथाकाल में करते हो, इससे आपका सहाय हम लोगों को सदैव है ॥ १५ ॥

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