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यजुर्वेद अध्याय - 32

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  • यजुर्वेद - अध्याय 32/ मन्त्र 13
    ऋषिः - मेधाकाम ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - भुरिग्गायत्री स्वरः - षड्जः
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    सद॑स॒स्पति॒मद्भु॑तं प्रि॒यमिन्द्र॑स्य॒ काम्य॑म्।स॒निं मे॒धाम॑यासिष॒ꣳ स्वाहा॑॥१३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सद॑सः। पति॑म्। अद्भु॑तम्। प्रि॒यम्। इन्द्र॑स्य। काम्य॑म्। स॒निम्। मे॒धाम्। अ॒या॒सि॒ष॒म्। स्वाहा॑ ॥१३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सदसस्पतिमद्भुतम्प्रियमिन्द्रस्य काम्यम् । सनिम्मेधामयासिषँस्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सदसः। पतिम्। अद्भुतम्। प्रियम्। इन्द्रस्य। काम्यम्। सनिम्। मेधाम्। अयासिषम्। स्वाहा॥१३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 32; मन्त्र » 13
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    व्याखान -

    हे सभापते ! विद्यामय न्यायकारिन् ! सभासद् सभाप्रिय ! सभा ही हमारा न्यायकारी राजा हो, ऐसी इच्छावाला हमको आप कीजिए। किसी एक मनुष्य को हम लोग राजा कभी न बनावें, किन्तु [सभा से ही सुखदायक ] आपको ही हम लोग सभापति सभाध्यक्ष राजा मानें। आप (अद्भुतम्)  अद्भुत, आश्चर्य, विचित्र शक्तिमय हैं तथा (प्रियम्) प्रियस्वरूप ही हैं, इन्द्र जो जीव, उसको, (काम्यम्) कमनीय (कामना के योग्य) आप ही हैं । (सनिम्) सम्यक् भजनीय और सेव्य भी जीवों के आप ही हैं । (मेधाम्) विद्या, सत्यधर्मादि धारणावाली बुद्धि को हे भगवन् ! मैं (अयासिषम्) याचता हूँ, सो आप कृपा करके मुझको देओ। (स्वाहा) यही 'स्व' स्वकीय वाक् (आह) कहती है कि एक ईश्वर से भिन्न कोई जीवों को सेव्य नहीं है। यही वेद में ईश्वराज्ञा है, सो सब मनुष्यों को अवश्य मानने योग्य है ॥ ५२ ॥

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