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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 102 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 102/ मन्त्र 6
    ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    गो॒जिता॑ बा॒हू अमि॑तक्रतुः सि॒मः कर्म॑न्कर्मञ्छ॒तमू॑तिः खजंक॒रः। अ॒क॒ल्प इन्द्र॑: प्रति॒मान॒मोज॒साथा॒ जना॒ वि ह्व॑यन्ते सिषा॒सव॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    गो॒ऽजिता॑ । बा॒हू इति॑ । अमि॑तऽक्रतुः । सि॒मः । कर्म॑न्ऽकर्मन् । श॒तऽमू॑र्तिः । ख॒ज॒म्ऽक॒रः । अ॒क॒ल्पः । इन्द्रः॑ । प्र॒ति॒ऽमान॑म् । ओज॑सा । अथ॑ । जनाः॑ । वि । ह्व॒य॒न्ते॒ । सि॒सा॒सवः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    गोजिता बाहू अमितक्रतुः सिमः कर्मन्कर्मञ्छतमूतिः खजंकरः। अकल्प इन्द्र: प्रतिमानमोजसाथा जना वि ह्वयन्ते सिषासव: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    गोऽजिता। बाहू इति। अमितऽक्रतुः। सिमः। कर्मन्ऽकर्मन्। शतऽमूतिः। खजम्ऽकरः। अकल्पः। इन्द्रः। प्रतिऽमानम्। ओजसा। अथ। जनाः। वि। ह्वयन्ते। सिसासवः ॥ १.१०२.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 102; मन्त्र » 6
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स सेनापितः कीदृश इत्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    हे सभापते यस्य ते गोजिता बाहू यो भवानिन्द्र ओजसा कर्मन्कर्मनमितक्रतुरकल्पः सिमः खजङ्करः शतमूतिः प्रतिमानं वर्त्ततेऽथ तं त्वां सिषासवो जनाः विह्वयन्ते ॥ ६ ॥

    पदार्थः

    (गोजिता) गाः पृथिवीर्जयति याभ्यां तौ। अत्र कृतो बहुलमिति करणे क्विप्। सुपां सुलुगिति विभक्तेराकारादेशश्च। (बाहू) अतिबलपराक्रमयुक्तौ भुजौ (अमितक्रतुः) अमिताः क्रतवः प्रज्ञा यस्य सः (सिमः) व्यवस्थया शत्रूणां बन्धकः (कर्म्मन्कर्म्मन्) कर्मणि कर्मणि (शतमूतिः) शतमसंख्याता ऊतयो रक्षणादिका क्रिया यस्य सः। अत्र वाच्छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीति सुपो लुगभावः। (खजङ्करः) यः संग्रामं करोति सः। अत्र खज मन्थने इति धातोः कर्मण्यणित्यण्। वाच्छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीति वृद्ध्यभावः। सुपो लुगभावश्च। (अकल्पः) कल्पैरन्यैः समर्थैरसदृशोऽन्येभ्योऽधिक इति (इन्द्रः) अनेकैश्वर्य्यः (प्रतिमानम्) अतिसमर्थानामुपमा (ओजसा) बलेन (अथ) आनन्तर्ये। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (जनाः) विद्वांसः (वि) (ह्वयन्ते) स्पर्द्धन्ते (सिषासवः) सनितुं संभजितुमिच्छवः ॥ ६ ॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्यः सर्वथा समर्थः प्रतिकर्म कर्त्तुं वेत्ताऽन्यैरजेयः सर्वेषां जेता सर्वैः स्पृहणीयोऽनुपमो मनुष्यो वर्त्तते तं सेनाधिपतिं कृत्वा विजयादीनि कार्य्याणि साधनीयानि ॥ ६ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह सेनापति कैसा हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे सभापति ! जिन आपकी (गोजिता) पृथिवी की जितानेवाली (बाहू) अत्यन्त बल पराक्रमयुक्त भुजा (अथ) इसके अनन्तर जो आप (इन्द्रः) अनेक ऐश्वर्य्ययुक्त (ओजसा) बल से (कर्मन् कर्मन्) प्रत्येक को काम में (अमितक्रतुः) अतुल बुद्धिवाले (अकल्पः) और बड़े-बड़े समर्थ जनों से अधिक (सिमः) व्यवस्था से शत्रुओं के बाँधने और (खजङ्करः) संग्राम करनेवाले (शतमूतिः) जिनकी सैकड़ों रक्षा आदि क्रिया है। (प्रतिमानम्) जिनको अत्यन्त सामर्थ्यवालों की उपमा दी जाती है, उन आपको (सिषासवः) सेवन करने की इच्छा करनेवाले (जनाः) विद्वान् जन (वि, ह्वयन्ते) चाहते हैं ॥ ६ ॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि जो सर्वथा समर्थ, प्रत्येक काम के करने को जानता, औरों से न जीतने योग्य, आप सबको जीतनेवाला, सबके चाहने योग्य और अनुपम मनुष्य हो, उसको सेनाधिपति करके विजय आदि कामों को साधें ॥ ६ ॥

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    विषय

    कर्मवीर न कि वाग्वीर

    पदार्थ

    १. (बाहू) = भुजाएँ (गोजिता) = वाणी को जीतनेवाली हों [गौर्जिता याभ्याम्] , अर्थात् मनुष्य कर्मवीर हो न कि वाग्वीर । (अमितक्रतुः) = यह असीम कर्मसंकल्पवाला हो , निरन्तर क्रियाशील हो । (सिमः) = श्रेष्ठ हो अथवा [षिञ् बन्धने] शत्रुओं का बन्धक हो । कर्म में विघ्नभूत वासनाओं को विनष्ट करनेवाला हो । (कर्मन् कर्मन्) = प्रत्येक कर्म में (शतम् ऊतिः) = शतशः रक्षणोंवाला है । कर्मों में आनेवाले विघ्नों को दूर करके उनको पूर्ण करनेवाला है । (खजङ्करः) = [खज - संग्राम] युद्ध करनेवाला है । वस्तुतः अध्यात्म - संग्राम में यह काम - क्रोधादि शत्रुओं को पराजित करने का प्रयत्न करता है । 

    २. अपने जीवन का ऐसा निर्माण करनेवाला ‘कुत्स आङ्गिरस’ प्रभु का स्मरण करता हुआ कहता है कि - (इन्द्रः) = सब शत्रुओं का संहार करनेवाला प्रभु (अकल्पः) = अन्य कल्प से रहित है , अर्थात् अनुपम है । (ओजसा) = ओजस्विता के कारण यह (प्रतिमानम्) = सबके बल को मापनेवाला है । वस्तुतः प्रभु बल के पुञ्ज हैं । सम्पूर्ण शक्ति के स्रोत हैं । अथ अब (सिषासवः) = विजय - प्राप्ति की कामनावाले (जनाः) = लोग (विह्वयन्ते) = प्रभु को विविध प्रकारों से पुकारते हैं । प्रभु के द्वारा ही तो विजय प्राप्त होती है । सच्चा उपासक भी कर्मवीर बनता हुआ शक्तिशाली बनता है और विजय प्राप्त करता है । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - हम कर्मवीर बनें न कि वाग्वीर । शक्ति का सम्पादन करते हुए हम विजयी बनने का प्रयत्न करें । 
     

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    विषय

    पक्षान्तर में राजा और सेना पति का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे राजन् ! सभापते ! एवं परमेश्वर ! तेरी ( बाहू ) बाहुएं, शत्रुओं को पीड़न करने वाली अगल बगल की सेनाएं ( गोजिता ) भूमियों का विजय करने वाली हैं । और ( बाहू ) दोनों बाहू अर्थात् छाती का भाग अपने विस्तार और बल सामर्थ्य से ( गोजिता ) वृषभ को भी जीतने वाला, उससे भी अधिक शक्तिशाली हो । और तू स्वयं ( अमित-क्रतुः ) अमित, अनन्त ज्ञान और कर्म सामर्थ्य से युक्त, ( सिमः ) सबसे श्रेष्ठ तथा प्रजाओं को प्रबन्ध व्यवस्था द्वारा और शत्रुओं को बध, बन्धन, सन्धि आदि से बांधने वाला और ( कर्मन् कर्मन् ) प्रत्येक काम में ( शतम् ऊतिः ) सैकड़ों ज्ञान और रक्षण सामर्थ्य और पराक्रमों वाला ( खजंकरः ) संग्राम में शत्रुओं का नाश करने वाला है । वह ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान् स्वामी ( ओजसा ) बल पराक्रम से ( अकल्पः ) अपने समान किसी को न रखने वाला, अनुपम और ( प्रतिमानम् ) सबके सामर्थ्य को मापने वाला पैमाना है । ( अथ ) और तुझ उसको ( सिषासवः ) भजन करने हारे भक्त जन एवं शरणार्थी और ऐश्वर्य के इच्छुक सभी ( जनाः ) जन ( विह्वयन्ते ) विविध रूपों से स्तुति करते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुत्स ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १ जगती । ३, ५—८ । निचृज्जगती २, ४, ९ स्वराट् त्रिष्टुप् । १०, ११ निचृत् त्रिष्टुप् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो सर्वस्वी समर्थ, प्रत्येक कामाचा जाणता, इतरांकडून जिंकला न जाणारा, स्वतः सर्वांवर विजय प्राप्त करणारा, सर्वांचा आवडता व अनुपम मनुष्य असेल त्याला माणसांनी सेनाधिपती करून विजय प्राप्त करावा. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Strong armed victor of lands, immensely intelligent, tactical fighter and winner, protector and defender in a hundred ways in every battle, heroic warrior, strongest of the strong, match for the matchless with his might and power, such is Indra, lord ruler of the world. Him, the men of admiration invoke for company and protection.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should be Commander of the army is taught in the sixth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Commander of the army, thy arms are the winners of the earth, thy wisdom is boundless by thy strength thou art un-equaled in every act, the binder or overcomer of thy enemies, the giver of protection in a hundred ways, waging war against evil-doers, none can over power thee. Therefore people who are desirous of acquiring and dividing wealth among the needy invoke thee in various ways.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (सिमः) व्यवस्थया शत्रूणा बन्धक: = The binder or overcomer of his enemies by his proper arrangements. (खजंकर:) यः संग्रामं करोति सः = He who wages war against evil-doers. (अकल्पः) कल्पैरन्यैः समर्थैरसदृशः अन्येभ्योऽधिक इति = Incomparable.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should accomplish victory and other acts by appointing him as commander of the army who knows and is able to do all good works, invincible, conqueror of all, desired by all and un-paralleled on account of his virtues.

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