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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 103 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 103/ मन्त्र 2
    ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स धा॑रयत्पृथि॒वीं प॒प्रथ॑च्च॒ वज्रे॑ण ह॒त्वा निर॒पः स॑सर्ज। अह॒न्नहि॒मभि॑नद्रौहि॒णं व्यह॒न्व्यं॑सं म॒घवा॒ शची॑भिः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । धा॒र॒य॒त् । पृ॒थि॒वीम् । प॒प्रथ॑त् । च॒ । वज्रे॑ण । ह॒त्वा । निः । अ॒पः । स॒स॒र्ज॒ । अह॑न् । अहि॑म् । अभि॑नत् । रौ॒हि॒णम् । वि । अह॑न् । विऽअं॑सम् । म॒घऽवा॑ । शची॑भिः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स धारयत्पृथिवीं पप्रथच्च वज्रेण हत्वा निरपः ससर्ज। अहन्नहिमभिनद्रौहिणं व्यहन्व्यंसं मघवा शचीभिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः। धारयत्। पृथिवीम्। पप्रथत्। च। वज्रेण। हत्वा। निः। अपः। ससर्ज। अहन्। अहिम्। अभिनत्। रौहिणम्। वि। अहन्। विऽअंसम्। मघऽवा। शचीभिः ॥ १.१०३.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 103; मन्त्र » 2
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 16; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथैतस्मिञ्जगति तद्रचितोऽयं सूर्य्यः किं कर्माऽस्तीत्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    हे मनुष्या यो मघवा शचीभिः पृथिवीं धारयत्स्वतेजः पप्रथद्विद्युदादींश्च वज्रेण मेघं हत्वाऽपो निःससर्ज पुनरहिमहन् रौहिणमभिनत् न केवलं साधारणमेव हन्ति किन्तु व्यंसं यथा स्यात्तथा व्यहन् स ईश्वरेण रचितोऽस्तीति विजानीत ॥ २ ॥

    पदार्थः

    (सः) (धारयत्) धरति (पृथिवीम्) भूमिम् (पप्रथत्) स्वतेजो विस्तार्य स्वेन तेजसा सर्वं जगत् प्रकाशयति (च) एवं विद्युदादीन् (वज्रेण) किरणसमूहेन (हत्वा) (निः) निरन्तरम् (अपः) जलानि (ससर्ज) सृजति (अहन्) हन्ति (अहिम्) मेघम् (अभिनत्) भिनत्ति (रौहिणम्) रोहिण्यां प्रादुर्भूतम् (वि) (अहन्) हन्ति (व्यंसम्) विगता अंसा यस्य तम् (मघवा) सूर्यः (शचीभिः) कर्मभिः ॥ २ ॥

    भावार्थः

    मनुष्यैरिदं द्रष्टव्यं प्रसिद्धो यः सूर्य्यलोकोऽस्ति स विदारणाकर्षणप्रकाशनादिकर्मभिर्वृष्टिं कृत्वा पृथिवीं धृत्वाऽव्यक्तपदार्थान् प्रकाश्य सर्वान् प्राणिनो व्यवहारयति स परमात्मनो रचनेन विना कदाचिदपि संभवितुं नार्हति ॥ २ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब इस जगत् में परमेश्वर से बनाया हुआ यह सूर्य्य कौन काम करता है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जो (मघवा) सूर्य्यलोक (शचीभिः) कामों से (पृथिवीम्) पृथिवी को (धारयत्) धारण करता अपने तेज (च) और बिजुली आदि को (पप्रथत्) फैलाता उस अपने तेज से सब जगत् को प्रकाशित करता (वज्रेण) अपने किरणसमूह से मेघ को (हत्वा) मारके (अपः) जलों को (निः) (ससर्ज) निरन्तर उत्पन्न करता फिर (अहिम्) मेघ को (अहन्) हनता (रौहिणम्) रोहिणी नक्षत्र में उत्पन्न हुए मेघ को (अभिनत्) विदारण करता (व्यंसम्) (वि, अहन्) केवल साधारण ही विदारता हो सो नहीं किन्तु कटि जाँघ भुजा आदि जिसकी ऐसे रुण्ड, मुण्ड, मुचण्ड, उद्दण्ड, वीर के समान विशेष करके मेघों को हनता है (सः) वह सूर्य्यलोक ईश्वर ने रचा है, यह जानो ॥ २ ॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को यह देखना चाहिये कि प्रसिद्ध जो सूर्यलोक है वह मेघों के विदारण, लोकों के खींचने और प्रकाश आदि कामों से जल, वर्षा, पृथिवी को धारण और अप्रकट अर्थात् अन्धकार से ढंपे हुए जो पदार्थ हैं उनको प्रकाशित कर सब प्राणियों को व्यवहार में चलाता है, वह परमात्मा के बनाने के विना उत्पन्न नहीं हो सकता ॥ २ ॥

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    विषय

    अहि , रौहिण व व्यंस का विनाश

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार ‘उत्कृष्ट शक्ति’ को धारण करनेवाला (सः) = वह (पृथिवीम्) = इस शरीररूप पृथिवी को (धारयत्) = धारण करता है (च) = और (पप्रथत्) = इसकी शक्ति का विस्तार करता है । (वज्रेण) = क्रियाशीलतारूप वज्र से (हत्वा) = वासनाओं को नष्ट करके (अपः) =शरीर में उत्पन्न रेतः कणों का [आपः - रेतः] (निः ससर्ज) = निश्चय से निर्माण करता है । 

    २. (मघवा) = यज्ञशील जीवनवाला बनकर (शचीभिः) = [शची - कर्मनाम् , नि० २/१ः (प्रज्ञानाम) = नि० ३/९] प्रज्ञा व कर्मों के द्वारा - प्रज्ञापूर्वक कर्मों के द्वारा (अहिम्) = [आहन्तारम् - क्रोधम्] शरीर , मन व बुद्धि की शक्तियों को नष्ट करनेवाले क्रोध को (अहन्) = नष्ट करता है । क्रोध शरीर में विषों को पैदा करके नाड़ी संस्थान के रोगों [Illness] व व्रणों [Cancer] का भी कारण बनता है , एवं यह साँप से भी अधिक भयंकर है । यह (मघवा) = यज्ञशील पुरुष (रौहिणम्) = [रुह प्रादुर्भावे] बढ़ते ही जानेवाले लोभ को (अभिनत्) = विदीर्ण करता है । लोभ उत्तरोत्तर बढ़ता ही जाता है , इसका अन्त नहीं आता , इसीलिए इसे रौहिण नामक असुर कहा गया है । यज्ञशील पुरुष लोभ को समाप्त करता है । व्यंसः [वि अंस] अत्यन्त बलवान् काम को भी यह (अहन्) = नष्ट करता है । काम का जीतना सुगम नहीं होता । इसकी अत्यन्त प्रबलता के कारण ही इसे यहाँ व्यंस कहा गया है । यह अंसल अत्यन्त बलवान् है । इन क्रोध , लोभ व काम के नाश के लिए सर्वप्रमुख साधन यही है कि मनुष्य क्रियाशील बने , कर्म में लगा रहे । आलसी को ही वासनाएँ सताती हैं । साथ ही मघवा - यज्ञशील बनना इसके लिए सहायक होता है । यज्ञशीलता के साथ वासनाएँ नहीं रहती । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - मनुष्य क्रियाशीलता से क्रोध , लोभ व काम को जीतता है । इनको जीतकर ही वह शरीर में रेतः कणों का निर्माण कर पाता है । 
     

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    विषय

    पक्षान्तर में राजा और सेनाध्यक्ष के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    ईश्वर के महान् सामर्थ्यो का वर्णन करते हैं । ( सः ) वह परमेश्वर सूर्य के समान ( पृथिवीम् ) पृथिवी को ( धारयत् ) धारण करता है और ( पप्रथत् च ) उसको विशाल आकार का बनाता है जिस प्रकार ( वज्रेण मेघं हत्वा अपः निः ससर्ज ) सूर्य विद्युत् या प्रबल वायु से मेघ को आघात करके दृष्टि के जल को उत्पन्न करता है उसी प्रकार परमेश्वर भी ( वज्रेण ) विद्युत् के बल से ( हत्वा ) दो भिन्न २ प्रकार के वायुतत्वों को मिलाकर ( अपः ) जलों को ( निः ससर्ज ) निर्माण करता है । ( मघवा ) सूर्य जिस प्रकार ( अहिम् अहन् ) मेघ को छिन्न-भिन्न करता, ( रोहिणम् अभिनत् ) रोहिणी नक्षत्र के योग में उत्पन्न मेघ को छिन्न-भिन्न करता और ( वि अंसं ) विविध कन्धों वाले मेघ को ( वि अहन् ) विविध प्रकार से नाश करता है उसी प्रकार परमेश्वर भी ( शचीभिः ) अपनी बड़ी २ शक्तियों से ( अहिम् ) सर्वत्र व्यापक, महान्, अन्धकारमय जगत् के कारण तत्व, प्रकृति को (अहन्) आघात करता, उसमें प्रविष्ट होता है और (रोहिणम् ) संसार को प्रकट कर देनेवाले महान्, हिरण्यगर्भ रूप अण्ड को (अभिनत्) भेदता है उसे विभक्त कर नाना लोक बनाता है । ( वि-अंसं ) विविध पृथिवी आदि पञ्चभूतों रूप स्कन्धों से युक्त, या विविध शाखाओं से युक्त वृक्ष के समान विस्तृत सर्ग को भी (वि अहन्) विविध रूपों में विभक्त करता, या विनाश करता या प्रकट करता है । (२) राजा के पक्ष में—वह पृथिवी को शासन द्वारा धारण करता, राष्ट्र को बढ़ाता है, शस्त्रास्त्र बल से शत्रु को मार कर प्रजाओं की वृद्धि करता है । मेघ के समान उमड़ते शत्रु का नाश करता ( व्यंसं ) विविध छावनियों को बसानेवाले और ( रोहिणं ) वट के समान फैलनेवाले शत्रु के राज्य या क्षात्रबल को छिन्न-भिन्न करता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुत्स आङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १, ३, ५, ६ निचृत्त्रिष्टुप् । २, ४ विराट् त्रिष्टुप् । ७, ८, त्रिष्टुप् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी हे पाहिले पाहिजे की, प्रसिद्ध जो सूर्यलोक आहे तो मेघांचे विदारण, गोलांचे आकर्षण व प्रकाश इत्यादी कार्यांनी जल, वृष्टी, पृथ्वीला धारण व अप्रकट अर्थात अंधकाराने व्यापलेले जे पदार्थ आहेत त्यांना प्रकाशित करून सर्व प्राण्यांना व्यवहारात चालवितो. तो परमात्म्याने निर्माण केल्याखेरीज उत्पन्न होऊ शकत नाही. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, lord of light and power, like the sun, with his actions, i.e., waves of gravitation, holds the earth and manifests its vast expanse. Striking the electric thunderbolt of his energy, he constantly creates the waters of space. He breaks the cloud formed in the Rohini constellation, striking over its shoulders and releases the showers of rain on earth.

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