ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 122/ मन्त्र 2
ऋषिः - कक्षीवान्
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
पत्नी॑व पू॒र्वहू॑तिं वावृ॒धध्या॑ उ॒षासा॒नक्ता॑ पुरु॒धा विदा॑ने। स्त॒रीर्नात्कं॒ व्यु॑तं॒ वसा॑ना॒ सूर्य॑स्य श्रि॒या सु॒दृशी॒ हिर॑ण्यैः ॥
स्वर सहित पद पाठपत्नी॑ऽइव । पू॒र्वऽहू॑तिम् । व॒वृ॒धध्यै॑ । उ॒षसा॒नक्ता॑ । पु॒रु॒धा । विदा॑ने॒ इति॑ । स्त॒रीः । न । अत्क॑म् । विऽउ॑तम् । वसा॑ना । सूर्य॑स्य । श्रि॒या । सु॒ऽदृशी॑ । हिर॑ण्यैः ॥
स्वर रहित मन्त्र
पत्नीव पूर्वहूतिं वावृधध्या उषासानक्ता पुरुधा विदाने। स्तरीर्नात्कं व्युतं वसाना सूर्यस्य श्रिया सुदृशी हिरण्यैः ॥
स्वर रहित पद पाठपत्नीऽइव। पूर्वऽहूतिम्। ववृधध्यै। उषसानक्ता। पुरुधा। विदाने इति। स्तरीः। न। अत्कम्। विऽउतम्। वसाना। सूर्यस्य। श्रिया। सुऽदृशी। हिरण्यैः ॥ १.१२२.२
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 122; मन्त्र » 2
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
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अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ दम्पत्योर्व्यवहारमाह ।
अन्वयः
हे सति स्त्रि त्वं पत्नीव ववृधध्यै पूर्वहूतिं पतिं स्वीकृत्य पुरुधा विदाने उषासानक्तेव वर्त्तस्व सूर्यस्य हिरण्यैः श्रिया च सदृशी अत्कमिव व्युतं वसाना सती स्तरीर्न सततं भव ॥ २ ॥
पदार्थः
(पत्नीव) यथा विदुषी स्त्री (पूर्वहूतिम्) पूर्वा हूतिराह्वानं यस्य तम् (ववृधध्यै) वर्धयितुम्। अत्र बहुलं छन्दसीति शपः श्लुस्तुजादित्वाद्दीर्घश्च। (उषासानक्ता) रात्रिदिने (पुरुधा) ये पुरून् बहून् धरतस्ते (विदाने) विज्ञायमाने (स्तरीः) कलायन्त्रादिसंयोगेनास्तारिषत यास्ता नौकाः (न) इव (अत्कम्) कूपमिव (व्युतम्) विविधतयोतं विस्तृत वस्त्रम् (वसाना) परिदधती (सूर्यस्य) सवितुः (श्रिया) शोभया (सुदृशी) सुष्ठुदर्शनं यस्याः सा (हिरण्यैः) ज्योतिभिरिव ॥ २ ॥
भावार्थः
अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। पतिव्रता सन्तं पतिं प्रीणाति स्त्रीव्रतः पतिः स्त्रियं च तौ यथाऽहोरात्रः सम्बद्धो वर्त्तते यथा वर्त्तमानौ वस्त्रालङ्कारैः सुशोभितौ धर्म्ये व्यवहारे यथावत्प्रयतेताम् ॥ २ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब स्त्री-पुरुषों के व्यवहार को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे सरलस्वभावयुक्त उत्तम स्त्री ! तू (पत्नीव) जैसे यज्ञादि कर्म में साथ रहनेवाली विद्वान् की स्त्री (ववृधध्यै) वृद्धि करने को अर्थात् गृहस्थाश्रम आदि व्यवहारों के बढ़ाने को (पूर्वहूतिम्) जिसका पहिले बुलाना होता अर्थात् सब कामों से जिसकी प्रथम सेवा करनी होती उस अपने पति को स्वीकार कर (पुरुधा) जो बहुत व्यवहार वा पदार्थों की धारणा करनेहारे (विदाने) जाने जाते उन (उषासानक्ता) रात्रिदिन के समान वर्त्ते वैसी वर्त्ता कर तथा (सूर्यस्य) सूर्यमण्डल की (हिरण्यैः) सुवर्ण सी चिलकती हुई ज्योतियों और (श्रिया) उत्तम शोभा से (सुदृशी) जिस तेरा अच्छा दर्शन वह (अत्कम्) कुएं के समान (व्युतम्) अनेक प्रकार बुने हुए विस्तारयुक्त वस्त्र को (वसाना) पहिनती हुई (स्तरीः) जैसे कलायन्त्रादिकों के संयोग से ढाँपी हुई नाव हों (न) वैसी निरन्तर हो ॥ २ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। पतिव्रता स्त्री विद्यमान अपने पति को प्रसन्न करती और स्त्रीव्रत अर्थात् नियम से अपनी स्त्री में रमनेहारा पति जैसे दिन-रात्रि सम्बन्ध से मिला हुआ वर्त्तमान है, वैसे सम्बन्ध से वर्त्तमान कपड़े और गहने पहिने हुए सुशोभित धर्मयुक्त व्यवहार में यथावत् प्रयत्न करे ॥ २ ॥
विषय
पूर्वहति का वर्धन
पदार्थ
१. (इव) = जैसी (पत्नी) = पत्नी (पूर्वहूतिम्) - पति की पहली पुकार को वावृधध्या बढ़ाने के लिए, अर्थात् पूर्ण करने के लिए होती है, उसी प्रकार (उषासानक्ता) = दिन और रात (पुरुधा) = नाना प्रकार से मेरी पुकार के वर्धनोपायों को (विदाने) = जाननेवाले हों, अर्थात् दिन और रात मेरी प्रातः की प्रथम प्रार्थना को पूर्ण करनेवाले हों । मैं प्रातः जो भी कामना करूँ, आयोजन बनाऊँ उसे दिन और रात पूर्ण करनेवाले हों । मैं प्रातः जो निश्चय करूँ, अगले चौबीस घण्टों में उसे क्रियात्मक रूप दे पाऊँ । २. (स्तरीः न) = [स्तृञ् - आछादने] अपने प्रकाश से आच्छादित करनेवाले सूर्य के समान (अत्कम्) = [अक्तम् - सा०] सन्तत, अविच्छिन्न (व्युतम्) = विशेषेण सम्बद्ध रूप को (वसाना) = धारण करती हुई (सूर्यस्य श्रिया) = सूर्य की श्री से (सुदशी) = शोभन दर्शनवाली उषा (हिरण्यैः) = अपने हितरमणीय प्रकाशों से [वावृधध्या] हमारा वर्धन करनेवाली हो । ३. 'अत्कं' शब्द वेद में वस्त्र के लिए प्रयुक्त होता है, 'व्युत' उसका विशेषण है - जो उत्तमता से बुना गया है । उषा ने मानो प्रकाश के सुन्दर बुने हुए वस्त्र को धारण किया हुआ है । यह उषा अपने हितकर व रमणीय प्रकाशों से हमारा वर्धन करे ।
भावार्थ
भावार्थ - दिन - रात मेरी पुकार सुनें, अर्थात् मैं प्रातः बनाये हुए अपने आयोजन को दिन रात पूर्ण करने में ही व्यतीत करूँ । उषा का हितरमणीय प्रकाश मेरा वर्धन करनेवाला हो ।
विषय
‘उषासानक्ता’ रूपमें पति-पत्नी का वर्णन ।
भावार्थ
(उषासानक्ता पुरुधा विदाने) दिन की न्यांई ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित पुरुष हो, तथा रात्रि की न्यांई सद्गुणों के तारा मण्डल से विभूषित स्त्री हो । ये दोनों नाना विद्याओं के जानने वाले हों । स्त्री ( पत्नी इव ) सती पत्नी के समान ही (पूर्वहूतिं) पूर्व स्वीकृत पति की ( वावृधध्यै) निरन्तर वृद्धि के लिये यत्न करे । वह ( स्तरीः) कवच को योद्धा के समान (व्युतम्) विशेष रूप से बुने गये वस्त्र को ( वसाना ) पहनती हुई ( सूर्यस्य ) सूर्य के समान तेजस्वी और विद्वान् पुरुष की ( श्रिया ) लक्ष्मी और ( हिरण्यैः ) हितकारी और रमणीय उत्तम गुणों से और सुवर्ण के आभूषणों से ( सुदृशी) सुन्दर, पूजनीय रूप से दीखने वाली तथा उत्तम रीति से सब पदार्थों को देखने वाली, सुलोचना, हो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
औशिजः कक्षीवानृषिः॥ विश्वेदेवा इन्द्रश्च देवताः॥ छन्दः–१, ७, १३ भुरिक् पङ्क्तिः । २, ८, १० त्रिष्टुप् । ३, ४, ६, १२, १४, १५ विराट् त्रिष्टुप् । ५, ९, ११ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. पतिव्रता स्त्री आपल्या पतीला प्रसन्न करते व स्त्रीव्रत पती अर्थात आपल्या पत्नीत रमणारा, दिवस व रात्रीच्या संबंधाप्रमाणे असतो. तशा संबंधाप्रमाणेच वस्त्र व अलंकाराने सुशोभित होऊन धर्मयुक्त व्यवहारात प्रयत्न करावा. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Let the dawn and dusk, light of day and peace of night, clothed in beauty of the sun, beatific with the rays of light, dressed like a lady of fulfilment in apparel of golden hue, bearing rich gifts of life and wealth, come in response to our invitation to yajna with a shower of light for our growth and enrichment.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Now the duties or dealings of the husband and wife are told in the second Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Chaste woman! be thou like a noble wife who always reveres her husband and attends to his first call helping him to grow (physically mentally and spiritually.) Let the husband and wife be like the morning and night who uphold all and let them be highly learned. Let the wife be full of splendor like the light of the sun, beautiful and good looking, putting on well-woven robes. Be like the well O wife feeding all with sweet water and like the boat taking your husband and other kith and kin across the river of misery.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(स्तरी:) कलायन्त्रादिसंयोगेनास्तारिषत यास्ता नौका: = Boats driven by machines etc. (अत्कम् ) कूपम् इव = Like the well. (हिरण्यै:) ज्योतिर्भि: इव = Like the splendours of the sun. ज्योतिर्वै शुक्रं हिरण्यम् (ऐतरेय० ७. १२ ) ज्योतिहि हिरण्यम् (शतपथ ४. ३.१.११ ) ज्योतिर्वै हिरण्यम् (ताण्ड्य ६. ६. १०)
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
A chaste wife always pleases her noble husband and husband observing the vow of fidelity or faithfulness, pleases his wife. They should be like the day and night, associated with each other, adorned with nice dress and ornaments. They should always endeavor to do noble deeds.
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