ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 123/ मन्त्र 5
ऋषिः - दीर्घतमसः पुत्रः कक्षीवान्
देवता - उषाः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
भग॑स्य॒ स्वसा॒ वरु॑णस्य जा॒मिरुष॑: सूनृते प्रथ॒मा ज॑रस्व। प॒श्चा स द॑घ्या॒ यो अ॒घस्य॑ धा॒ता जये॑म॒ तं दक्षि॑णया॒ रथे॑न ॥
स्वर सहित पद पाठभग॑स्य । स्वसा॑ । वरु॑णस्य । जा॒मिः । उषः॑ । सू॒नृ॒ते॒ । प्र॒थ॒मा । ज॒र॒स्व॒ । प॒श्चा । सः । द॒ध्याः॒ । यः । अ॒घस्य॑ । धा॒ता । जये॑म । तम् । दक्षि॑णया । रथे॑न ॥
स्वर रहित मन्त्र
भगस्य स्वसा वरुणस्य जामिरुष: सूनृते प्रथमा जरस्व। पश्चा स दघ्या यो अघस्य धाता जयेम तं दक्षिणया रथेन ॥
स्वर रहित पद पाठभगस्य। स्वसा। वरुणस्य। जामिः। उषः। सूनृते। प्रथमा। जरस्व। पश्चा। सः। दघ्याः। यः। अघस्य। धाता। जयेम। तम्। दक्षिणया। रथेन ॥ १.१२३.५
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 123; मन्त्र » 5
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 4; मन्त्र » 5
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अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 4; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे सूनृते त्वमुषरुषाइव भगस्य स्वसेव वरुणस्य जामिरिव प्रथमा सती विद्या जरस्व योऽघस्य धाता भवेत् तं दक्षिणया रथेन यथा वयं जयेम तथा स्वं दघ्याः। यो जनः पापी स्यात् स पश्चा तिरस्करणीयः ॥ ५ ॥
पदार्थः
(भगस्य) ऐश्वर्य्यस्य (स्वसा) भगिनीव (वरुणस्य) श्रेष्ठस्य (जामिः) कन्येव (उषः) उषाः (सूनृते) सत्याचरणयुक्ते (प्रथमा) (जरस्व) स्तुहि (पश्चा) पश्चात् (सः) (दघ्याः) तिरस्कुरु (यः) (अघस्य) पापस्य (धाता) (जयेम) (तम्) (दक्षिणया) सुशिक्षितया सेनया (रथेन) विमानादियानेन ॥ ५ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। स्त्रीभिः स्वस्वगृह ऐश्वर्य्योन्नतिः श्रेष्ठा रीतिर्दुष्टताडनं च सततं कार्य्यम् ॥ ५ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे सूनृते ! सत्य आचरणयुक्त स्त्री तूँ (उषः) प्रातःसमय की वेला के समान वा (भगस्य) ऐश्वर्य्य की (स्वसा) बहिन के समान वा (वरुणस्य) उत्तम पुरुष की (जामिः) कन्या के समान (प्रथमा) प्रख्याति प्रशंसा को प्राप्त हुई विद्याओं की (जरस्व) स्तुति कर, (यः) जो (अघस्य) अपराध का (धाता) धारण करनेवाला हो (तम्) उसको (दक्षिणया) अच्छी सिखाई हुई सेना और (रथेन) विमान आदि यान से जैसे हम लोग (जयेम) जीतें वैसे तूँ (दघ्याः) उसका तिरस्कार कर, जो मनुष्य पापी हो (सः) वह (पश्चा) पीछा करने अर्थात् तिरस्कार करने योग्य है ॥ ५ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। स्त्रियों को चाहिये कि अपने-अपने घर में ऐश्वर्य की उन्नति श्रेष्ठ रीति और दुष्टों का ताड़न निरन्तर किया करें ॥ ५ ॥
विषय
'सूनृता' उषा
पदार्थ
१. हे (सूनृते) = उत्तम, दुःखों का परिहाण करनेवाली तथा ठीक समय पर आनेवाली [सु+ऊन्+ऋत्] (उषः) = उषे! तू (भगस्य) = ऐश्वर्य की (स्वसा) = बहिन है, ऐश्वर्य को उत्तम स्थिति में रखनेवाली है [सु+अस्] तथा (वरुणस्य जामिः) = श्रेष्ठता को जन्म देनेवाली है, सब देव तुझमें ही श्रेष्ठता को जन्म देते हैं [जनयन्ति अस्याम्] । ऐसी तू (प्रथमा जरस्व) = हमारे द्वारा सबसे पहले स्तुत की जाए । हम उषा के महत्त्व का स्मरण करते हुए ऐश्वर्य व श्रेष्ठता को प्राप्त करें । २. (यः) = जो (अघस्य) = पाप का धाता धारण करनेवाला हो (सः) = वह (पश्चा) = पीछे (दध्या) = जानेवाला हो [दधिर्गत्यर्थः] । पापी इस उषा में कभी हमारे सामने न आये । (तम्) = इस पापी को (दक्षिणया) = हमारी उन्नति की कारणभूत तेरे द्वारा तथा (रथेन) = उन्नति के मार्ग पर आगे बढ़नेवाले शरीर - रथ के द्वारा (जयेम) = हम जीतें । 'दक्षिणया' शब्द का अर्थ दानवृत्ति के द्वारा भी हो सकता है । दान की वृत्ति के द्वारा हम पाप को पराजित करनेवाले होते हैं । हम प्रातः उठे और उस समय दान की भावना को अपने में (जाग्रत्) = करें । यह त्यागभाव हमें अशुभ से बचानेवाला होगा ।
भावार्थ
भावार्थ - उषाकाल में जागना ऐश्वर्य व श्रेष्ठता का साधक है । यह अशुभवृत्ति को दूर करता है ।
विषय
पति के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( उषः ) प्रभात बेला के समान कान्तिमति ! तू ( भगस्यस्वसा ) सूर्य के समान उत्पन्न होने वाली, मानो उसकी बहिन, प्रभात वेला के समान ही ( भगस्य ) सुख, सेवने योग्य ऐश्वर्य की ( स्वसा ) स्वयं प्राप्त करने और कराने वाली, ऐश्वर्य के साथ ही मानो उत्पन्न, ऐश्वर्य की भगिनी के समान साक्षात् गृहलक्ष्मी है । (वरुणस्य जामिः) उषा जिस प्रकार वरण करनेयोग्य अन्धकार के वारण करने वाले सूर्य की ‘जामि’ अर्थात् भगिनी है, वह उसके साथ उत्पन्न होती है, अथवा उषा (वरुणस्य) सबको आवरण करने वाले रात्रिरूप अन्धकार की ( जामिः ) कन्या है उसी प्रकार हे कन्ये ! तू भी ( वरुणस्य ) वरण करने योग्य श्रेष्ठ पुरुष की ( जाभिः ) अपत्य उत्पन्न करने हारी अथवा दुःखों से वारण करने वाले भ्राता की भगिनी है । हे ( सूनृते ) शुभ वाणी बोलने हारी, श्रेष्ठ आचारशीले, अथवा, हे ( सूनृते ) उत्तम धन-ऐश्वर्यवति ! तू ( प्रथमः ) सर्वश्रेष्ठ होकर ( जरस्व ) उत्तम गुणों का बखान कर, या स्वयं उत्तम स्तुति को प्राप्त कर । और ( यः ) जो ( अधस्य ) पापका ( धाता ) पोषण करने वाला, कष्टों का देने वाला है ( सः ) उसको ( पश्चा दध्याः ) पीछे कर, उसका तिरस्कार कर । और ( तं ) उसको हम लोग ( दक्षिणया ) अति बलवती सेना से और ( रथेन ) रथबल से (जयेम) विजय करें। इति चतुर्थी वर्गः ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमसः पुत्रः कक्षीवानृषिः ॥ उषा देवता ॥ छन्दः– १, ३, ६, ७, ९, १०, १३, विराट् त्रिष्टुप् । २,४, ८, १२ निचत् त्रिष्टुप् । ५ त्रिष्टुप् ११ भुरिक् पङ्क्तिः ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. स्त्रियांनी सतत आपापल्या घरात ऐश्वर्य वाढवावे. श्रेष्ठ रीतीने चालावे तसेच दुष्टांचे ताडन करावे. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Sister of glory, daughter of the highest light, O Dawn, lady of truth, first shine and brighten and be praised, and then hold him who is the supporter of sin and then we shall catch him with the gift of your light and win by the chariot.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O lady of truthful conduct, thou art like the Dawn, the sister of prosperity, daughter of a noble learned person, admire and give the knowledge of various sciences. As we overcome an upholder or supporter of falsehood with the well-trained army and with the vehicles like the aero plane etc., so thou should also do. A sinner should be always dishonored and insulted.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(जामि:) कन्या = Daughter. (दक्षिणया) सुशिक्षितया सेनया = With well-trained army. (दक्ष-वृद्धौ शीघ्रार्थे च ) Tr.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Women should augment prosperity of their homes, good conduct should be maintained and the wicked must be duly punished.
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