ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 128/ मन्त्र 8
ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः
देवता - अग्निः
छन्दः - विराडत्यष्टिः
स्वरः - गान्धारः
अ॒ग्निं होता॑रमीळते॒ वसु॑धितिं प्रि॒यं चेति॑ष्ठमर॒तिं न्ये॑रिरे हव्य॒वाहं॒ न्ये॑रिरे। वि॒श्वायुं॑ वि॒श्ववे॑दसं॒ होता॑रं यज॒तं क॒विम्। दे॒वासो॑ र॒ण्वमव॑से वसू॒यवो॑ गी॒र्भी र॒ण्वं व॑सू॒यव॑: ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्निम् । होता॑रम् । ई॒ळ॒ते॒ । वसु॑ऽधितिम् । प्रि॒यम् । चेति॑ष्ठम् । अ॒र॒तिम् । नि । ए॒रि॒रे॒ । ह॒व्य॒ऽवाह॑म् । नि । ए॒रि॒रे॒ । वि॒श्वऽआ॑युम् । वि॒श्वऽवे॑दसम् । होता॑रम् । य॒ज॒तम् । क॒विम् । दे॒वासः॑ । र॒ण्वम् । अव॑से । व॒सु॒ऽयवः॑ । गीः॒ऽभिः । र॒ण्वम् । व॒सु॒ऽयवः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निं होतारमीळते वसुधितिं प्रियं चेतिष्ठमरतिं न्येरिरे हव्यवाहं न्येरिरे। विश्वायुं विश्ववेदसं होतारं यजतं कविम्। देवासो रण्वमवसे वसूयवो गीर्भी रण्वं वसूयव: ॥
स्वर रहित पद पाठअग्निम्। होतारम्। ईळते। वसुऽधितिम्। प्रियम्। चेतिष्ठम्। अरतिम्। नि। एरिरे। हव्यऽवाहम्। नि। एरिरे। विश्वऽआयुम्। विश्वऽवेदसम्। होतारम्। यजतम्। कविम्। देवासः। रण्वम्। अवसे। वसुऽयवः। गीःऽभिः। रण्वम्। वसुऽयवः ॥ १.१२८.८
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 128; मन्त्र » 8
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 15; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 15; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
कस्य समागमेन किं प्राप्तव्यमित्याह ।
अन्वयः
हे मनुष्या ये देवासो यमग्निमिव होतारं वसुधितिमरतिं हव्यवाहं चेतिष्ठं प्रियं विद्वांसं जिज्ञासवो न्येरिरे विश्वायुं विश्ववेदसं, होतारं यजतं कविं रण्वं वसूयव इव न्येरिरे वसूयवोऽवसे गीर्भी रण्वमीळते तान् यूयमपीळिध्वम् ॥ ८ ॥
पदार्थः
(अग्निम्) पावकमिव वर्त्तमानम् (होतारम्) दातारम् (ईळते) स्तुवन्ति (वसुधितिम्) वसूनां धितयो यस्य तम् (प्रियम्) प्रीतिकारकम् (चेतिष्ठम्) अतिशयेन चेतितारम् (अरतिम्) प्राप्तविद्यम् (नि) (एरिरे) प्रेरयन्ति (हव्यवाहम्) हव्यानां वोढारम् (नि) (एरिरे) प्राप्नुवन्ति (विश्वायुम्) यो विश्वं सर्वं बोधमेति तम् (विश्ववेदसम्) विश्वं समग्रं वेदो धनं यस्य तम् (होतारम्) आदातारम् (यजतम्) पूजितुमर्हम् (कविम्) पूर्णविद्यम् (देवासः) विद्वांसः (रण्वम्) सत्योपदेशकम् (अवसे) रक्षणाद्याय (वसूयवः) य आत्मनो वसूनि द्रव्याणीच्छन्ति ते (गीर्भिः) सुसंस्कृताभिर्वाग्भिः (रण्वम्) सत्यवादिनम् (वसूयवः) अत्रोभयत्र वसुशब्दात्सुप आत्मनः क्यजिति क्यच् प्रत्ययः। क्याच्छन्दसीत्युः प्रत्ययः, अन्येषामपीति दीर्घः ॥ ८ ॥
भावार्थः
अत्रवाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या विद्वांसो यस्य सेवासङ्गेन विद्याः प्राप्नुवन्ति तस्यैव सेवासङ्गेन युष्माभिरप्येता आप्तव्याः ॥ ८ ॥ अत्र विद्वद्गुणवर्णनादेतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥ ।इत्यष्टाविंशत्युत्तरं शततमं सूक्तं पञ्चदशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
किसके मिलाप से क्या पाने योग्य है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जो (देवासः) विद्वान् जन जिस (अग्निम्) अग्नि के समान वर्त्तमान (होतारम्) देनेवाले (वसुधितिम्) जिसके कि धनों की धारणा हैं (अरतिम्) और जो विद्या पाये हुए हैं उस (हव्यवाहम्) देने-लेने योग्य व्यवहार की प्राप्ति कराने (चेतिष्ठम्) चिताने और (प्रियम्) प्रीति उत्पन्न करानेहारे विद्वान् के जानने की इच्छा किये हुए (न्येरिरे) निरन्तर प्रेरणा देते वा (विश्वायुम्) जो सब विद्यादि गुणों के बोध को प्राप्त होता (विश्ववेदसम्) जिसका समग्र वेद धन उस (होतारम्) ग्रहण करनेवाले (यजतम्) सत्कार करने योग्य (कविम्) पूर्णविद्यायुक्त और (रण्वम्) सत्योपदेशक सत्यवादी पुरुष को (वसूयवः) जो धन आदि पदार्थों की इच्छा करते हैं उनके समान (न्येरिरे) निरन्तर प्राप्त होते हैं वा जो (वसूयवः) धन आदि पदार्थों को चाहनेवाले (अवसे) रक्षा आदि के लिये (गीर्भिः) अच्छी संस्कार की हुई वाणियों से (रण्वम्) सत्य बोलनेवाले की (ईळते) स्तुति करते हैं, उन सबों की तुम भी स्तुति करो ॥ ८ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! विद्वान् लोग जिसकी सेवा और सङ्ग से विद्यादि गुणों को पाते हैं, उसी की सेवा और सङ्ग से तुम लोगों को चाहिये कि इनको पाओ ॥ ८ ॥इस सूक्त में विद्वानों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ एकता है, यह जानना चाहिये ॥यह एकसौ अट्ठाईसवाँ १२८ सूक्त और पन्द्रहवाँ वर्ग पूरा हुआ ॥
विषय
उपासना से पूर्ण जीवन की प्राप्ति
पदार्थ
१. (वसूयवः) = सब वसुओं को प्राप्त कराने की कामनावाले (देवासः) = देववृत्ति के लोग (अग्निम्) = अग्नणी प्रभु का (ईंडते) = उपासन करते हैं, जो प्रभु (होतारम्) = सब इष्ट पदार्थों के देनेवाले हैं,( वसुधितम्) = निवास के लिए आवश्यक तत्त्वों को धारण करनेवाले हैं, (प्रियम्) = अपने भक्तों का प्रीणन करनेवाले हैं, (चेतिष्ठम्) = अधिक-से-अधिक चेतना व ज्ञानवाले हैं और (अरतिम्) = क्रियाशील हैं । २. ये देव इस (हव्यवाहम्) = सब हव्यपदार्थों का वहन करनेवाले उस प्रभु को (नि एरिरे) = निश्चय से अपने में प्रेरित करते हैं (नि एरिरे) = और निश्चित कर्तव्य-मार्ग पर गति करनेवाले होते हैं । ये प्रभु का स्मरण करते हैं और कर्तव्य-मार्ग पर आगे बढ़ते हैं । ३. ये उस प्रभु का स्मरण करते हैं जो (विश्वायुम्) = पूर्ण जीवन-प्रदाता हैं - 'विश्वमायुर्यस्मात्', (विश्ववेदसम्) = सम्पूर्ण धनोंवाले हैं, (होतारम्) = सब धनों के देनेवाले हैं, (यजतम्) = संगतिकरण के योग्य व उपास्य हैं, (कविम्) = क्रान्तप्रज्ञ हैं, तत्त्वद्रष्टा हैं । ४. (वसूयवः) = सब वसूयु (देवासः) = देव (अवसे) = अपने रक्षण के लिए (रण्वम्) = उस रमणीय व (रण्वम्) = अतिरमणीय प्रभु का ही (गीर्भिः) = वेद-वाणियों से उपासन करते हैं [ईळते] ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु के उपासन से ही पूर्ण जीवन की प्राप्ति होती है ।
विषय
विद्वान् पुरोहित, गुरु और यज्ञाग्नि सेनापति का वर्णन ।
भावार्थ
विद्वान् जन ( होतारम् ) ज्ञान और ऐश्वर्य के देने वाले ( अग्निं ) ज्ञानवान् और नायक, ( वसुधितिं ) ऐश्वर्यों के धारण करने वाले ( प्रियं ) प्रिय, ( चेतिष्ठम् ) सबसे अधिक ज्ञान देने वाले, अल्पज्ञों के चेताने वाले, ( अरतिम् ) मतिमान्, ऐश्वर्यवान्, ( हव्यवाहम् ) उत्तम अन्न आदि पदार्थों को धारण करने वाले पुरुष को ( ईडते ) आदर करते हैं । उसको ( नि एरिरे ) आदर से प्राप्त होते हैं । ( वसूयवः ) धनाभिलाषी पुरुष जिस प्रकार ( गीर्भिः ) वाणियों या स्तुतियों से ( रण्वं ) रमण करने हारे धनाढ्य की स्तुति करते हैं और ( देवाः ) ज्ञान की कामना करने हारे ( वसूयवः ) वसु, २४ वर्ष तक ब्रह्मचर्य धारण करने की इच्छा करने वाले ( रण्वं ) उत्तम विद्योपदेशक पुरुष को ( गीर्भिः ) वेदवाणियों सहित प्राप्त होते हैं उसी प्रकार ( वसूयवः ) ऐश्वर्य के इच्छुक पुरुष ( विश्वायुम् ) समस्त ज्ञान भण्डार को प्राप्त होने वाले, एवं ( विश्वायुम् ) समस्त प्राणियों या मनुष्य प्रजाजन के स्वामी, ( विश्ववेदसं ) समस्त ऐश्वर्य और ज्ञानों के स्वामी, ( होतारं ) ज्ञानैश्वर्य के दाता, ( यजतम् ) पूजनीय, ( कविम् ) क्रान्तदर्शी पुरुष को अपने ( अवसे ) रक्षा के लिये ( नि एरिरे ) नियमानुकूल प्राप्त हों । इति पञ्चदशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१—८ परुच्छेप ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः- निचृदत्यष्टिः । ३, ४, ६, ८ विराडत्यष्टिः । २ भुरिगष्टिः । ५, ७ निचृदष्टिः । अष्टर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! विद्वान लोक ज्याच्या सेवा व संगतीने विद्या इत्यादी गुण प्राप्त करतात त्याचीच सेवा व संगत याद्वारे तुम्ही ती प्राप्त करा. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The devas, creative men of brilliance inspired with generosity, who search for light, knowledge and wealth of the world for the sake of power, protection and advancement, worship Agni, lord of light and omnipotent. They honour and admire Agni, leading scholar of light and energy. They study, raise and develop fire and energy, brilliant source of light and power, productive source of wealth, inspirer of intelligence to create wealth, dearest friend and generous power, energiser, arouser and mover of mind and soul, and generous giver of comfort, joy and bliss. They worship, honour and develop Agni, creator, harbinger and giver of holy materials for wealth, yes, they do worship, honour and raise Agni, lord, scholar and power, which is life of the world, omniscient and omnipresent with every atom of the world, great unifier and integrator, creative power of cosmic yajna at every stage, poetic creator of beauty, a source of delight and happiness. That power of truth, beauty and joy, the seekers of light, wealth, power and divine joy celebrate in holy words for the sake of protection, guidance and advancement.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What could be obtained by whose association is told in the eighth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men, you should also praise that person who is shining like the fire, is giver of happiness, the possessor of the wealth of wisdom, the beloved, most enlightener and highly educated, as he is approached and praised by all seekers of Truth. Praise him like the desirous of wealth (material as well as spiritual) who is the conveyor of all good objects, who knows all things, who is the possessor of all wealth, acceptor of what is given to him with love and reverence or of all virtues, adorable, a great poet and Philosophic preacher of Truth. Approach him for protection as men desirous of wealth approach a sovereign with refined words who is truthful.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(अरतिम्) प्रप्विद्यम् = To him who acquires knowledge. (विश्वायुं ) यो विश्वम सर्व बोधमेति तम् = To him who gets all knowledge. (रण्वम् ) १ सत्योपदेशकम् =To the preacher of Truth. (रण्वम् ) २ सत्यवादिनम् = To the speaker of Truth.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men, you should also acquire the knowledge of various sciences by the service and association of those highly educated and wise persons, as enlightened persons de by so doing.
Translator's Notes
अरतिम् is derived from ऋगतिप्रापणयो: hence Rishi Dayananda Sarasvati has taken the second meaning and interpreted it as प्राप्तविद्यम् रण्वम् is from रण-शब्दे hence the meaning of speaker and preacher of truth. Even the faulty translation of Prof. Wilson and Griffith proves that here Agni is not material fire but a conscious being. Wilson's translation of चेतिष्ठम् is thoughtful,"विश्ववेदसन् has been translated by him as "who knows all things" कविम् has been translated by him as "sage." Griffith has translated चेतिष्ठम् as "most thoughtful विश्ववेदसम् has been translated as who knoweth all' कवि has been rendered into English by him as "sage. "These epithets can not be used for inanimate material fire, but either for God or a great scholar as interpreted by Rishi Dayananda Sarasvati. In this hymn, there is the mention of the attributes of a learned person as in the previous hymn, so it is connected with the same. Here ends the commentary on the 128th hymn and fifteenth Verga of the first Mandala of the Rigveda.
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