ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 139/ मन्त्र 11
ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
ये दे॑वासो दि॒व्येका॑दश॒ स्थ पृ॑थि॒व्यामध्येका॑दश॒ स्थ। अ॒प्सु॒क्षितो॑ महि॒नैका॑दश॒ स्थ ते दे॑वासो य॒ज्ञमि॒मं जु॑षध्वम् ॥
स्वर सहित पद पाठये । दे॒वा॒सः॒ । दि॒वि । एका॑दश । स्थ । पृ॒थि॒व्याम् । अधि॑ । एका॑दश । स्थ । अ॒प्सु॒ऽक्षितः॑ । म॒हि॒ना । एका॑दश । स्थ । ते । दे॒वा॒सः॒ । य॒ज्ञम् । इ॒मम् । जु॒ष॒ध्व॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
ये देवासो दिव्येकादश स्थ पृथिव्यामध्येकादश स्थ। अप्सुक्षितो महिनैकादश स्थ ते देवासो यज्ञमिमं जुषध्वम् ॥
स्वर रहित पद पाठये। देवासः। दिवि। एकादश। स्थ। पृथिव्याम्। अधि। एकादश। स्थ। अप्सुऽक्षितः। महिना। एकादश। स्थ। ते। देवासः। यज्ञम्। इमम्। जुषध्वम् ॥ १.१३९.११
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 139; मन्त्र » 11
अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 4; मन्त्र » 6
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अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 4; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे देवासो विद्वांसो यूयं ये दिवि एकादश स्थ ये पृथिव्यामेकादशाधिष्ठ ये महिनाऽप्सुक्षित एकादश स्थ ते यथाविधाः सन्ति तथा तान् विज्ञाय हे देवासो यूयमिमं यज्ञं जुषध्वम् ॥ ११ ॥
पदार्थः
(ये) (देवासः) विद्वांसः (दिवि) सूर्यादिलोके (एकादश) दश प्राणा जीवात्मा च (स्थ) सन्ति (पृथिव्याम्) भूमौ (अधि) उपरि (एकादश) (स्थ) (अप्सुक्षितः) येऽप्सु क्षियन्ति निवसन्ति ते (महिना) महिम्ना (एकादश) दशेन्द्रियाणि मनश्चेति (स्थ) (ते) (देवासः) विद्वांसः (यज्ञम्) संगन्तव्यम् (इमम्) (जुषध्वम्) सेवध्वम् ॥ ११ ॥
भावार्थः
इहेश्वरसृष्टौ ये पदार्थाः सूर्यादिलोके सन्त्यर्थाद्येऽन्यत्र वर्त्तन्त त एवाऽत्र यावन्तोऽत्र सन्ति तावन्त एव तत्र सन्ति तान् यथावद्विदित्वा मनुष्यैर्योगक्षेमः सततं कर्त्तव्य इति ॥ ११ ॥अत्र विदुषां शीलवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह संगतिर्भवतीति बोध्यम् ॥इत्येकोनचत्वारिंशदुत्तरं शततमं सूक्तं चतुर्थो वर्गो विंशोऽनुवाकश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (देवासः) विद्वानो ! तुम (ये) जो (दिवि) सूर्यादि लोक में (एकादश) दश प्राण और ग्यारहवाँ जीव (स्थ) हैं वा जो (पृथिव्याम्) पृथिवी में (एकादश) उक्त एकादश गण के (अधि, स्थ) अधिष्ठित हैं वा जो (महिना) महत्त्व के साथ (अप्सुक्षितः) अन्तरिक्ष वा जलों में निवास करनेहारे (एकादश) दशेन्द्रिय और एक मन (स्थ) हैं (ते) वे जैसे हैं वैसे उनको जानके हे (देवासः) विद्वानो ! तुम (इमम्) इस (यज्ञम्) सङ्ग करने योग्य व्यवहाररूप यज्ञ को (जुषध्वम्) प्रीतिपूर्वक सेवन करो ॥ ११ ॥
भावार्थ
ईश्वर के इस सृष्टि में जो पदार्थ सूर्यादि लोकों में हैं अर्थात् जो अन्यत्र वर्त्तमान हैं वे ही यहाँ हैं, जितने यहाँ हैं उतने ही वहाँ और लोकों में हैं, उनको यथावत् जानके मनुष्यों को योगक्षेम निरन्तर करना चाहिये ॥ ११ ॥।इस सूक्त में विद्वानों के शील का वर्णन होने से इसके अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिये ॥ ११ ॥यह एकसौ उनतालीसवाँ सूक्त, चौथा वर्ग और बीसवाँ अनुवाक समाप्त हुआ ॥
विषय
तेतीस देवता
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार जीवन बिताने पर हम सब देवों के अधिष्ठान होते हैं, अतः कहते हैं- (ये) = जो (देवास:) = देव (दिवि) = द्युलोक में (एकादश) = ग्यारह स्थ हो, (पृथिव्याम् अधि) = इस पृथिवी पर (एकादश स्थ) = ग्यारह हो और (महिना) = अपनी महिमा से (अप्सुक्षितः) = अन्तरिक्षलोक में रहनेवाले (एकादश स्थ) = ग्यारह हो (ते) = वे हे (देवासः) = तेतीस देवो! आप (इमं यज्ञं जुषध्वम्) = मेरे जीवन-यज्ञ का प्रीतिपूर्वक सेवन करो। 'सर्वा ह्यस्मिन्देवता गावो गोष्ठइवासते' सारे देव इस शरीर में इस प्रकार निवास करते हैं, जैसे कि गौएँ गोशाला में इन सब देवताओं की अनुकूलता होने पर ही शरीर के पूर्ण स्वास्थ्य पर निर्भर है। शरीर में यह स्थूल शरीर ही पृथिवीलोक है, इसका मुख्य देवता 'अग्नि' है। शरीर में इस अग्नि के ठीक होने पर शरीर स्वस्थ कहलाता है। इसके न रहने पर यह शरीर ठण्डा पड़ जाता है, अर्थात् मृत्यु हो जाती है। शरीर में हृदय अन्तरिक्ष लोक है। इसका मुख्य देवता 'वायु' है। हृदय में सदा वायु व गति की भावना का रहना आवश्यक हैं। द्युलोक यहाँ मस्तिष्क है, इसमें ज्ञानसूर्य का उदय होना आवश्यक है।
भावार्थ
भावार्थ- हमारा शरीर सब देवों का निवास स्थान हो। मुख्यरूप से शरीर तेजस्विता की अग्निवाला हो, हृदय वायु की भाँति सतत क्रिया की भावनावाला हो, मस्तिष्क ज्ञानसूर्यवाला हो ।
विषय
११, ११, ११, करके ३३ देव, ३३ अधिकारी ।
भावार्थ
हे ( देवासः ) विद्वान् जनो ! ( दिवि ) सूर्य के समान ज्ञान प्रकाश के निमित्त ( ये एकादश स्थ ) आप लोग जो ग्यारह हो, ( पृथिव्यां अधि एकादश स्थ ) पृथिवी पर अध्यक्ष रूप से शासन करने के निमित्त भी ग्यारह होकर रहो और ( महिना ) बड़े भारी सामर्थ्य से ( अप्सुक्षितः ) जलों में निवास करने हारे होकर सामुद्रिक व्यापार और सेना विभाग के लिये भी ( एकदश स्थ ) ११ होकर रहते हो (ते) वे आप लोग ( इमं यज्ञम् ) इस सुसंगत राष्ट्र और सर्वैश्वर्यप्रद प्रजापति राजा की ( जुषध्वम् ) प्रेम से सेवा करो, उस का आश्रय लो । अध्यात्म में—दश प्राण और जीवात्मा, दश इन्द्रियां और मन, दश दिशा और सूर्य, या प्रजापति सब ११, ११ हैं । वे भी यज्ञ, प्रजापति परमेश्वर और सब के संगति कर्त्ता आत्मा और सूर्य को आश्रय करते हैं । इति चतुर्थो वर्गः ॥ इति विंशोऽनुवाकः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
परुच्छेप ऋषिः । देवता—१ विश्वे देवाः । २ मित्रावरुणौ । ३—५ अश्विनौ । ६ इन्द्रः । ७ अग्निः । ८ मरुतः । ६ इन्द्राग्नी । १० बृहस्पतिः । ११ विश्वे देवाः॥ छन्दः–१, १० निचृदष्टिः । २, ३ विराडष्टिः । ६ अष्टिः । = स्वराडत्यष्टिः । ४, ६ भुरिगत्यष्टिः । ७ अत्यष्टिः । ५ निचृद् बृहती । ११ भुरिक् पङ्क्तिः ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
ईश्वराच्या सृष्टीत जे पदार्थ सूर्य इत्यादी लोकात आहेत अर्थात् जे अन्यत्र आहेत तेच येथे आहेत. जितके येथे आहेत तितके इतर लोकात (गोलात) ही आहेत. त्यांना यथायोग्य जाणून घेऊन माणसांनी निरंतर योगक्षेम चालविला पाहिजे. ॥ ११ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O divinities, brilliant and generous powers of the Divine, existing and active by your great power and potential, ten pranic life energies and the individual soul, abiding in the heavenly regions of light, and the same eleven existing on the earth, and the same eleven abiding in the waters and the skies, may all these universal powers come and join this yajna of our life, and help us to extend it wide and high.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
A pointer to wellbeing is underlined.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
There are eleven devas in the solar world consisting of the ten Pranas and soul. Similarly, there are These make ten eleven devas on this earth and eleven in waters. senses and mind. O men of knowledge ! you know the devas and then perform the Yajna.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
A man should acquire knowledge of the solar system and other planets of the universe. He should endeavor to get happiness and his livelihood by honest means on the above lines.
Foot Notes
(एकादश) दशप्राणा: जीवात्मा च = Ten Pranas namely-Prana, Apana, Vyana, Udana, Samana, Deva Datta, Koorma, Naga, Ktikala, Dhanajaya and Soul.
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