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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 145 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 145/ मन्त्र 3
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - अग्निः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    तमिद्ग॑च्छन्ति जु॒ह्व१॒॑स्तमर्व॑ती॒र्विश्वा॒न्येक॑: शृणव॒द्वचां॑सि मे। पु॒रु॒प्रै॒षस्ततु॑रिर्यज्ञ॒साध॒नोऽच्छि॑द्रोति॒: शिशु॒राद॑त्त॒ सं रभ॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । इत् । ग॒च्छ॒न्ति॒ । जु॒ह्वः॑ । तम् । अर्व॑तीः । विश्वा॑नि । एकः॑ । शृ॒ण॒व॒त् । वचां॑सि । मे॒ । पु॒रु॒ऽप्रै॒षः । ततु॑रिः । य॒ज्ञ॒ऽसाध॑नः । अच्छि॑द्रऽऊतिः । शिशुः॑ । आ । अ॒द॒त्त॒ । सम् । रभः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तमिद्गच्छन्ति जुह्व१स्तमर्वतीर्विश्वान्येक: शृणवद्वचांसि मे। पुरुप्रैषस्ततुरिर्यज्ञसाधनोऽच्छिद्रोति: शिशुरादत्त सं रभ: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम्। इत्। गच्छन्ति। जुह्वः। तम्। अर्वतीः। विश्वानि। एकः। शृणवत्। वचांसि। मे। पुरुऽप्रैषः। ततुरिः। यज्ञऽसाधनः। अच्छिद्रऽऊतिः। शिशुः। आ। अदत्त। सम्। रभः ॥ १.१४५.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 145; मन्त्र » 3
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 14; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे विद्वान् भवानेको मे विश्वानि वचांसि शृणवद्यो रभः पुरुप्रैषस्ततुरिर्यज्ञसाधनोऽछिद्रोऽतिः शिशुः सर्वोपकारं कर्त्तुं प्रयत्नं समादत्त यं धीमन्तो गच्छन्ति तमर्वतीर्गच्छन्ति तमिज्जुह्वो गच्छन्ति ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (तम्) (इत्) एव (गच्छन्ति) प्राप्नुवन्ति (जुह्वः) विद्याविज्ञाने आददत्यः (तम्) (अर्वतीः) प्रशस्तबुद्धिमत्यः कन्याः (विश्वानि) अखिलानि (एकः) अद्वितीयः (शृणवत्) शृणुयात् (वचांसि) प्रश्नरूपाणि (वचनानि) (मे) मम (पुरुप्रैषः) पुरुभिर्बहुभिः सज्जनैः प्रैषः प्रेरितः (ततुरिः) दुःखात् सर्वान् सन्तारकः (यज्ञसाधनः) यज्ञस्य विद्वत्सत्कारस्य साधनानि यस्य (अच्छिद्रोतिः) अच्छिद्राऽप्रच्छिन्नाऽद्वैधीभूता ऊती रक्षणादिक्रिया यस्मात् सः (शिशुः) अविद्यादिदोषाणां तनूकर्त्ता (आ) समन्तात् (अदत्त) गृह्णीयात् (सम्) (रभः) महान् ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्यद्यद्विदितं यद्यदधीतं तस्य तस्य परीक्षामाप्ताय विदुषे यथा प्रदद्युरेवं कन्या अपि स्वाध्यापिकायै परीक्षां प्रदद्युर्नैवं विना सत्याऽसत्ययोस्सम्यग् निर्णयो भवितुमर्हति ॥ ३ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे विद्वान् ! आप (एकः) अकेले (मे) मेरे (विश्वानि) समस्त (वक्षांसि) वचनों को (शृणवत्) सुनें जो (रभः) बड़ा महात्मा (पुरुप्रैषः) जिसको बहुत सज्जनों ने प्रेरणा दी हो (ततुरिः) जो दुःख से सभों को तारनेवाला (यज्ञसाधनः) विद्वानों के सत्कार जिसके साधन अर्थात् जिसकी प्राप्ति करानेवाले (अच्छिद्रोतिः) जिससे नहीं खण्डित हुई रक्षणादि क्रिया (शिशुः) और जो अविद्यादि दोषों को छिन्न-भिन्न करे, सबके उपकार करने को अच्छा यत्न (समादत्त) भली-भाँति ग्रहण करे (तम्) उसको (अर्वतीः) बुद्धिमती कन्या (गच्छन्ति) प्राप्त होती (तमित्) और उसीको (जुह्वः) विद्या विज्ञान की ग्रहण करनेवाली कन्या प्राप्त होती हैं ॥ ३ ॥

    भावार्थ

    मनुष्यों ने जो जाना और जो-जो पढ़ा उस-उस की परीक्षा जैसे अपने आप पढ़ानेवाले विद्वान् को देवें वैसे कन्या भी अपनी पढ़ानेवाली को अपने पढ़े हुए की परीक्षा देवें ऐसे करने के विना सत्याऽसत्य का सम्यक् निर्णय होने को योग्य नहीं है ॥ ३ ॥

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    विषय

    'निर्देष्टा व तारयिता' प्रभु

    पदार्थ

    १. [हूयन्ते इति जुह्वः - आहुतयः] (जुह्वः) = सब आहुतियाँ (तम् इत्) = उस प्रभु को ही गच्छन्ति प्राप्त होती हैं। (तम्) = उस प्रभु को ही (अर्वती:) = [अर्व = to kill] सब अशुभों का संहार करनेवाली स्तुतियाँ प्राप्त होती हैं। प्रभु प्राप्ति के लिए धीर पुरुष यज्ञशील बनता है और स्तुति करता है। २. वह (एक:) = अद्वितीय प्रभु ही (मे) = मेरे (विश्वानि वचांसि) = सब स्तुति प्रार्थना वचनों को (शृणवत्) = सुनता है। मेरी प्रार्थनाओं को सुनकर उन प्रार्थनाओं की पूर्ति के लिए (पुरुप्रैषः) = पालक व पूरक निर्देशोंवाला वह प्रभु है। मैं प्रार्थना करता हूँ। उसकी पूर्ति के लिए प्रभु मुझे मार्ग का निर्देश ही नहीं उसपर चलने के लिए शक्ति भी देते हैं और इस प्रकार (ततुरिः) = वे सब (विघ्न) = बाधाओं से तारनेवाले हैं, (यज्ञसाधनः) = विघ्नों से तारकर हमारे यज्ञों को सिद्ध करनेवाले हैं। ३. यज्ञों— उत्तम कर्मों की सिद्धि के द्वारा वे प्रभु (अच्छिद्रोतिः) = निर्दोष व अन्तर से शून्य (निरन्तर) रक्षणवाले हैं। वे प्रभु सदा हमारा रक्षण कर रहे हैं। (शिशुः) = हमारी बुद्धियों को तीक्ष्ण करनेवाले हैं। इन बुद्धियों के अनुसार (संरभ:) = [रभू - to begin] कार्यों का सम्यक् आरम्भ करनेवालों को (आदत्त) = प्रभु अपनी गोद में ग्रहण करते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ-यज्ञ व स्तुतियाँ हमें प्रभु की ओर ले चलती हैं। प्रभु हमारी प्रार्थनाओं को सुनकर उनकी पूर्ति के लिए साधनों का निर्देश करते हैं, उन्हें पालन के लिए बुद्धि व शक्ति देते हैं । जो सम्यक् कार्यों का आरम्भ करता है, उसे प्रभु ग्रहण करते हैं।

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    विषय

    शिष्य का स्वरूप । पक्षान्तर में आचार्य, राजा सेनाओं का वर्णन और स्वयंवर का दिर्शन ।

    भावार्थ

    शिष्य का स्वरूप । ( तम् इत् ) उसको ही ( जुह्वः ) ग्रहण करने योग्य वेद वाणियां ( गच्छन्ति ) प्राप्त होती हैं । ( अर्वतीः तम् ) विद्वानों की ज्ञान वाणियां भी उसको ही प्राप्त होती हैं । वह ही ( एकः ) अकेला ( मे विश्वानि वचांसि ) मुझ आचार्य के सब वचनों को सुने । वह (पुरुप्रैषः) बहुत सी आज्ञाओं का पालक, ( ततुरः ) कार्य करने में अति शीघ्रकारी, अप्रमाद्री ( यज्ञसाधनः ) विद्या दान की साधना करने हारा ( अच्छिद्रोतिः ) त्रुटि रहित व्रत का पालक, ( शिशुः ) उत्तम प्रशंसनीय एवं मा की गोद में बालक के समान स्वच्छ हृदय से आचार्य की विद्यामय गोद में ( रभः ) कार्यारंभ करने वाला होकर ( सम् आदत ) उत्तम रीति से ज्ञान ग्रहण करे। ( २ ) आचार्य का स्वरूप । ( जुह्वः अर्वती ) वेद वाणियां और विद्वानों की सब वाणियां उसी को प्राप्त हैं वह मुझे एक आचार्य सब वचनोपदेश ( शृणवत् ) श्रवण करावे । ( पुरुप्रैषः ) बहुत से आज्ञा वचनों वा भृत्य के समान आज्ञा पालक शिष्यों वाला ( ततुरिः ) अज्ञान और दुःख से लड़ने वाला, ( अच्छिद्रोतिः ) त्रुटि रहित रक्षा और ज्ञान वाला, मिर्भ्रान्त ( शिशुः ) उत्तम प्रशंसायोग्य, शास्त्रों का उपदेष्टा, ज्ञानदाता ( रभः ) शिष्य को अपने अधीन लेने हारा होकर ही ( सम आदत्त ) अच्छी प्रकार मुझ शिष्य को स्वीकार करता है । ( ३ ) राजा को ( जुहूंः ) शत्रु को ललकारने और वेतन ग्रहण करने वाली सेनाएं और ( अर्वतीः ) अश्व सेनाएं प्राप्त होती हैं । वह (मे) मुझ प्रजाजन के सब प्रार्थना वचनों को श्रवण करे, आज्ञाएं सुनावे । बहुत से भृत्यों से युक्त, कष्टों से तारने वाला, ( यज्ञ-साधनः ) प्रजापति के पद पर, परस्पर संगति का करने वाला, सब संघों को वशकारी, अच्छिन्न रक्षक, प्रशंसनीय ( रभः ) महान् होकर राष्ट्र को ग्रहण करे । ( ४ ) विद्वान् को (जुह्वः) ज्ञानवती और (अर्वतीः) बलवती कन्याएं (गच्छन्ति) वरणार्थ प्राप्त होती हैं ।

    टिप्पणी

    ‘जुहूः’-क्षत्रं वै जुहूः दिशः इतरा स्रुचः । श० १।३।२।११॥ ‘शिशुः’- शेते प्रजासु मातुरङ्के शिशुरिव । शोचयिता वा शत्रूणाम् ( सा० ) शंसनीयो भवति, शिशीतेर्वा स्याद् दानकर्मणः । (निरु० १०। ४। २ ) ‘रभः’–रभते, लभते वर्ग ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः– १, विराड्जगती । २, निचृज्जगती च । ३,४ भुरिक त्रिष्टुप । पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी, जे जे जाणले व जे जे वाचले त्याची परीक्षा अध्यापकासमोर व विद्वानांसमोर जशी दिली जाते तशी परीक्षा मुलींनीही आपल्या अध्यापिकांसमोर द्यावी, असे केल्याशिवाय सत्यासत्याचा सम्यक निर्णय होणार नाही. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Just as ladles of ghrta reach agni, fire of yajna, so do youth of noble speech and blessed intelligence reach Agni, lord of brilliance and exalted soul, bearing questions and homage. May the lord, sole master of knowledge, unique and unparallelled, listen to my prayers and questions too, lord inspirer of many, instant saviour of the seekers, master of yajnic accomplish ments, giver of faultless protection, dispeller of doubts and darkness, all-great and loving, gracefully receiving and acknowledging questions as well as the homage of yajna.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The enlightened leaders are eulogized.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned leader! you being the best among us listen to all our requests or questions. You are indeed great, admired by many good men. You ward off all miseries, possess the resources of honoring enlightened man. You are also protector of righteous persons, destroyer of all ignorance and other evils. Try always to do good to all. It is such an enlightened leader whom highly, intelligent girls and otherwise and knowledgeable people approach and seek his guidance.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is the duty of men to seek guidance from the absolutely truthful learned persons. Girls also should do likewise. Failing in it, it is not possible to get correct knowledge to distinguish between the true and false.

    Foot Notes

    (जुह्वः) विद्या विज्ञाने आददत्य: = Accepting wisdom and knowledge of various sciences. (अर्बती:) प्रशस्त बुद्धिमत्यः कन्याः = Highly intelligent girls. ( शिश:) अविवादिदोषाणां तनूकर्ता = Destroyer of ignorance and other evils. (रभः) महान् = Great.

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