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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 154 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 154/ मन्त्र 5
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - विष्णुः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    तद॑स्य प्रि॒यम॒भि पाथो॑ अश्यां॒ नरो॒ यत्र॑ देव॒यवो॒ मद॑न्ति। उ॒रु॒क्र॒मस्य॒ स हि बन्धु॑रि॒त्था विष्णो॑: प॒दे प॑र॒मे मध्व॒ उत्स॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तत् । अ॒स्य॒ । प्रि॒यम् । अ॒भि । पाथः॑ । अ॒श्या॒म् । नरः॑ । यत्र॑ । दे॒व॒यवः॑ । मद॑न्ति । उ॒रु॒ऽक्र॒मस्य॑ । सः । हि । बन्धुः॑ । इ॒त्था । विष्णोः॑ । प॒दे । प॒र॒मे । मध्वः॑ । उत्सः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तदस्य प्रियमभि पाथो अश्यां नरो यत्र देवयवो मदन्ति। उरुक्रमस्य स हि बन्धुरित्था विष्णो: पदे परमे मध्व उत्स: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तत्। अस्य। प्रियम्। अभि। पाथः। अश्याम्। नरः। यत्र। देवयवः। मदन्ति। उरुऽक्रमस्य। सः। हि। बन्धुः। इत्था। विष्णोः। पदे। परमे। मध्वः। उत्सः ॥ १.१५४.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 154; मन्त्र » 5
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 24; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    अहं यत्र देवयवो नरो मदन्ति तदस्योरुक्रमस्य विष्णोः प्रियं पाथोभ्यश्यां यस्य परमे पदे मध्व उत्सइव तृप्तिकरो गुणो वर्त्तते स हि इत्था नो बन्धुरिवास्ति ॥ ५ ॥

    पदार्थः

    (तत्) (अस्य) (प्रियम्) येन प्रीणाति तत् (अभि) (पाथः) वर्त्म (अश्याम्) प्राप्नुयाम् (नरः) नेतारः (यत्र) यस्मिन् (देवयवः) ये देवान् दिव्यान् भोगान् कामयन्ते (मदन्ति) आनन्दयन्ति (उरुक्रमस्य) बहुपराक्रमस्य (सः) (हि) खलु (बन्धुः) दुःखविनाशकत्वेन सुखप्रदः (इत्था) अनेन प्रकारेण (विष्णोः) व्यापकस्य (पदे) प्राप्तव्ये (परमे) अत्युत्तमे मोक्षे पदे (मध्वः) मधुरादिरसयुक्तस्य (उत्सः) कूपइव तृप्तिकरः ॥ ५ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। ये परमेश्वरेण वेदद्वारा दत्तमाज्ञामनुगच्छन्ति ते मोक्षसुखमश्नुवते। यथा जना बन्धुं प्राप्य सहायं लभन्ते तृषिता वा मधुरजलं कूपं प्राप्य तृप्यन्ति तथा परमेश्वरं प्राप्य पूर्णाऽनन्दा जायन्ते ॥ ५ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    मैं (यत्र) जिसमें (देवयवः) दिव्य भोगों की कामना करनेवाले (नरः) अग्रगन्ता उत्तम जन (मदन्ति) आनन्दित होते हैं (तत्) उस (अस्य) इस (उरुक्रमस्य) अनन्त पराक्रमयुक्त (विष्णोः) व्यापक परमात्मा के (प्रियम्) प्रिय (पाथः) मार्ग को (अभ्यश्याम्) सब ओर से प्राप्त होऊँ, जिस परमात्मा के (परमे) अत्युत्तम (पदे) प्राप्त होने योग्य मोक्ष पद में (मधवः) मधुरादि गुणयुक्त पदार्थ का (उत्सः) कूपसा तृप्ति करनेवाला गुण वर्त्तमान है (सः, हि) वही (इत्था) इस प्रकार से हमारा (बन्धुः) भाई के समान दुःख विनाश करने से सुख देनेवाला है ॥ ५ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो परमेश्वर की वेदद्वारा दी हुई आज्ञा के अनुकूल चलते हैं, वे मोक्ष सुख को प्राप्त होते हैं। जैसे जन बन्धु को प्राप्त होकर सहायता को पाते हैं वा प्यासे जन मीठे जल से पूर्ण कुये को पाकर तृप्त होते हैं, वैसे परमेश्वर को प्राप्त होकर पूर्ण आनन्द को प्राप्त होते हैं ॥ ५ ॥

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    विषय

    विष्णु के परमपद में मधु का उत्स

    पदार्थ

    १. मैं (अस्य) = इस (उरुक्रमस्य) = विशाल पराक्रमवाले अथवा विशाल व्यवस्थावाले प्रभु के (तत्) = उस (प्रियम्) = प्रीतिजनक (पाथः) = मुक्ति के स्थानभूत अन्तरिक्षलोक को (अश्याम्) = प्राप्त करूँ, (यत्र) = जिसमें (देवयवः) = उस महादेव प्रभु की प्राप्ति की कामनावाले (नरः) = मनुष्य (मदन्ति) = आनन्द का अनुभव करते हैं । २. (सः) वे प्रभु ही (इत्था) = सचमुच (बन्धुः) = हमारे बन्धु हैं। अन्य बन्धुओं के बन्धुत्व में थोड़ा-बहुत स्वार्थ है, परन्तु प्रभु का बन्धुत्व केवल जीवप्रीति के कारण है। ३. (विष्णो:) = इस विष्णु के (परमे पदे) = सर्वोत्कृष्ट स्थान में प्रकृति व जीव से ऊपर उठकर उस परमात्मा के तृतीय धाम में [तृतीये धामन्] (मध्वः उत्स:) = माधुर्य का झरना है। प्रभु-प्राप्ति में ही सच्चा एवं सर्वोत्कृष्ट आनन्द है।

    भावार्थ

    भावार्थ – देवयु बनकर मैं मोक्षलोक को प्राप्त करूँ । प्रभु के इस परमपद में माधुर्य का स्रोत है।

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    विषय

    उत्तम स्वास्थ्यजनक गृहों की इच्छा ।

    भावार्थ

    ( यत्र ) जिस प्रभु परमेश्वर के आश्रय रहकर ( देवयवः ) परम उपास्य देव की आराधना करने वाले, उसके भक्त जन ( मदन्ति ) आनन्द लाभ करते हैं, नित्य तृप्त और हर्षित रहते हैं मैं ( अस्य ) उस प्रभु के ( प्रियम् ) अति प्रिय, मनोहर ( तत् पाथः ) पालनकारी आनन्द रस या मन्तव्य परम मार्ग का ( अभि अश्याम् ) साक्षात् लाभ करूं । ( सः हि ) वह ही निश्रय ( इत्था ) सचमुच ( बन्धुः ) हमारा प्रिय बन्धु है। उस ( उरुक्रमस्य ) विशाल एवं नाना लोकों में व्यापक और चरा चर को बनाने वाले ( विष्णोः ) व्यापक परमेश्वर के ( परमे पदे ) परम सर्वोत्कृष्ट ‘प्राप्तव्य’ परम वेद्य स्वरूप में ही ( मध्वः ) मधुर आनन्द रस का ( उत्सः ) स्रोत है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः॥ विष्णुर्देवता ॥ छन्दः- १, २ विराट् त्रिष्टुप । ३, ४, ६ निचृत् त्रिष्टुप् । ५ त्रिष्टुप् ॥ षडृचं सूक्तम् ॥

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    मन्त्रार्थ

    (अस्य-उरुक्रमस्य विष्णोः) इस महापराक्रमी विष्णु व्यापक परमात्मा के (तत् प्रियं पाथः-अभ्यश्याम्) उस प्रिय अवकाश-मुक्तों के विशाल सदन को "पाथः-अन्तरिक्षम्” [ निरु० ६।६] प्राप्त करू (यत्र देवयवः-नरः मदन्ति) जहां उस परमात्मदेव को चाहने वाले प्राप्त करने वाले आनन्दित होते हैं (परमे पदे मध्वः-उत्सः) उस परम पद् मोक्ष सदन में मधुर रस का उत्स्रवण स्रोत है कूप है (सः-हि इत्था बन्धुः) वह विष्णु परमात्मा ही सच्चा बन्धु है ॥५॥

    टिप्पणी

    "त्रयः सत्वरजस्तमांसि धातवो येषु तानि” (दयानन्दः) पृथिव्यप्तेजो रूपधातु त्रयविशिष्टम् (सायणः )

    विशेष

    ऋषिः- दीर्घतमाः दीर्घकाल से अज्ञानान्धकारयुक्त या दीर्घ अर्थात् यु को चहानेवाला "आयुर्वेदीर्घम् " (तां० १३।११।१२) “तमु आकांक्षायाम्" (दिवादि०) ततो-असुन् प्रत्यय:-औणादिकः देवता-विष्णुः (व्यापक परमात्मा)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जे परमेश्वराने वेदाद्वारे दिलेल्या आज्ञेप्रमाणे वागतात ते मोक्षसुख प्राप्त करतात. जसे लोक बंधूकडून साह्य प्राप्त करतात किंवा तृषार्त लोक विहिरीद्वारे मधुर जल प्राप्त करून तृप्त होतात तसे ते परमेश्वराला प्राप्त करून आनंद भोगतात. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    May I rise to and follow that cherished path of lord Vishnu and reach that state of being wherein the noble people dedicated to Divinity live and rejoice in bliss. This lord of divine power and action is friend of the industrious men of relentless action, and there in his supreme presence flows the stream of divine love and bliss.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Again in the praise of Lord Vishnu.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    May I attain the charming path of the All-pervading and Almighty God. The souls that desire to have exalted Divine enjoyment and virtues get it from Him. In that highest state of liberation lies the source (fountainhead) of the sweetness. God is our true end real friend; he ends our miseries and gives joy.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those who follow the dictates of God as given through the Vedas, enjoy the great delight of emancipation. As a man gets help from his friend, or as a thirsty person quenches his thirst on finding a well of sweet water, likewise, a man attains perfect bliss on attaining God.

    Foot Notes

    Giver of joy by destroying all miseries. ( पाथ: ) वर्त्म = Path. ( उत्स: ) कूप: इव तृप्तिकर:- Giver of satisfaction or joy like the well (of sweet water).

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    बंगाली (1)

    পদার্থ

    তদস্য প্রিয়মভি পাথো অশ্যাং নরো যত্র দেবযবো মদন্তি।

    উরুক্রমস্য স হি বন্ধুরিত্থা বিষ্ণোঃ পদে পরমে মধ্ব উৎসঃ।।৪৫।।

    (ঋগ্বেদ ১।১৫৪।৫)

    পদার্থঃ আমি (অস্য) এই (উরুক্রমস্য) সর্বপরাক্রমশালী পরমাত্মার (তৎ) সেই (প্রিয়ম্) প্রীতিজনক (অভি পাথঃ) মুক্তির স্থানভূত অমৃতলোক (অশ্যাম্) প্রাপ্ত করব, (যত্র) যার মাধ্যমে (দেবযবঃ) সেই মহান ঈশ্বরকে কামনাকারী (নরঃ) মনুষ্য (মদন্তি) আনন্দের অনুভব করে। (স হি) সেই ঈশ্বরই (ইত্থা) প্রকৃতপক্ষে (বন্ধুঃ) আমাদের বন্ধু। (বিষ্ণোঃ) এই সর্ব ব্যাপক পরমাত্মার (পরমে পদে) সর্বোৎকৃষ্ট স্থানে (মধ্বঃ উৎসঃ) মাধুর্যের ঝর্ণা প্রবাহিত হয়।

     

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ প্রত্যেক মানুষের জীবনের একটি করে লক্ষ্য থাকে। সেই লক্ষ্যে যখন মানুষ পৌঁছাতে পারে, তখন সে পরম সুখ ও শান্তি অনুভব করে। কিন্তু এসব পার্থিব সুখ ক্ষণস্থায়ী। মানুষের পরম লক্ষ্য হওয়া উচিত সেই সর্বব্যাপক প্রভুর পরম পদ অর্থাৎ মোক্ষ। মানুষ ঈশ্বরের সান্নিধ্য রূপ মোক্ষ লাভ করলে পরম সুখ ও শান্তি লাভ করে। মোক্ষাবস্থায় মানুষের মনে হয় যেন পরমাত্মার নিকট হতে মধুর ঝর্ণা স্ফূরিত হচ্ছে। এজন্য আমাদের পরম বন্ধু রূপ পরমাত্মার নিত্য শ্রদ্ধা পূর্বক উপাসনার মাধ্যমে তাঁর সেই পরম পদ রূপ মুক্তিলাভের আকাঙ্ক্ষা করতে হবে।।৪৫।।

     

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