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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 159 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 159/ मन्त्र 5
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - द्यावापृथिव्यौ छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    तद्राधो॑ अ॒द्य स॑वि॒तुर्वरे॑ण्यं व॒यं दे॒वस्य॑ प्रस॒वे म॑नामहे। अ॒स्मभ्यं॑ द्यावापृथिवी सुचे॒तुना॑ र॒यिं ध॑त्तं॒ वसु॑मन्तं शत॒ग्विन॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तत् । राधः॑ । अ॒द्य । स॒वि॒तुः । वरे॑ण्यम् । व॒यम् । दे॒वस्य॑ । प्र॒ऽस॒वे । म॒ना॒म॒हे॒ । अ॒स्मभ्य॑म् । द्या॒वा॒पृ॒थि॒वी॒ इति॑ । सु॒ऽचे॒तुना॑ । र॒यिम् । ध॒त्त॒म् । वसु॑ऽमन्तम् । श॒त॒ऽग्विन॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तद्राधो अद्य सवितुर्वरेण्यं वयं देवस्य प्रसवे मनामहे। अस्मभ्यं द्यावापृथिवी सुचेतुना रयिं धत्तं वसुमन्तं शतग्विनम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तत्। राधः। अद्य। सवितुः। वरेण्यम्। वयम्। देवस्य। प्रऽसवे। मनामहे। अस्मभ्यम्। द्यावापृथिवी इति। सुऽचेतुना। रयिम्। धत्तम्। वसुऽमन्तम्। शतऽग्विनम् ॥ १.१५९.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 159; मन्त्र » 5
    अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 2; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे अध्यापकोपदेशकौ वयमद्य सवितुर्देवस्य प्रसवे यद्वरेण्यं राधो मनामहे तच्छतग्विनं वसुमन्तं रियं सुचेतुनाऽस्मभ्यं द्यावापृथिवी इव युवां धत्तम् ॥ ५ ॥

    पदार्थः

    (तत्) (राधः) द्रव्यम् (अद्य) इदानीम् (सवितुः) जगदुत्पादकस्य (वरेण्यम्) वर्त्तुमर्हम् (वयम्) (देवस्य) द्योतकस्य (प्रसवे) प्रसूतेऽस्मिञ्जगति (मनामहे) विजानीमः (अस्मभ्यम्) (द्यावापृथिवी) भूमिसूर्यौ (सुचेतुना) सुष्ठु संज्ञानेन (रयिम्) श्रियम् (धत्तम्) (वसुमन्तम्) बहुधनयुक्तम् (शतग्विनम्) शतानि गावो विद्यन्ते यस्मिँस्तम् ॥ ५ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। विद्वांसो यथा द्यावापृथिव्यौ सर्वान् प्राणिनः सुखयतः तथा सर्वान् विद्याधनोन्नत्या सुखयन्तु ॥ ५ ॥अस्मिन् सूक्ते विद्युद्भूमिवद्विद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥इति एकोनषष्ठ्युत्तरं शततमं सूक्तं द्वितीयो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे अध्यापक और उपदेशको ! (वयम्) हम लोग (अद्य) आज (सवितुः) जगत् के उत्पन्न करने (देवस्य) और प्रकाश करनेवाले ईश्वर के (प्रसवे) उत्पन्न किये हुए इस जगत् में जिस (वरेण्यम्) स्वीकार करने योग्य (राधः) द्रव्य को (मनामहे) जानते हैं (तत्) उस (शतग्विनम्) सैकड़ों गौओंवाले (वसुमन्तम्) नाना प्रकार के धनों से युक्त (रयिम्) धन को (सुचेतुना) सुन्दर ज्ञान से (अस्मभ्यम्) हम लोगों के लिये (द्यावापृथिवी) भूमिमण्डल और सूर्यमण्डल के समान तुम (धत्तम्) धारण करो ॥ ५ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। विद्वान् जन जैसे द्यावापृथिवी सब प्राणियों को सुखी करते हैं, वैसे सबको विद्या और धन की उन्नति से सुखी करें ॥ ५ ॥

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    विषय

    वसुमान् रयि

    पदार्थ

    १. (अद्य) = आज, गतमन्त्र के अनुसार दीप्त जीवनवाले बनकर (वयम्) = हम (सवितुः देवस्य) = प्रेरक, प्रकाशमय प्रभु की (प्रसवे) = अनुज्ञा में (तत्) = उस (वरेण्यम्) = वरणे के योग्य (राधः) = कार्यसाधक धन को (मनामहे) = माँगते हैं, उस धन की याचना करते हैं जो हमारे कार्यों को सिद्ध करनेवाला है। इस धन को हम प्रभु की अनुज्ञा में चलते हुए सुपथ से ही कमाते हैं । धन को हम उस सविता देव का ही मानते हैं। अपने को स्वामी न जानते हुए हम अपने को उस धन का रक्षक - (trustee) - मात्र समझते हैं । २. हे (द्यावापृथिवी) = मस्तिष्क व शरीर ! आप (अस्मभ्यम्) = हमारे लिए (सुचेतुना) = उत्तम ज्ञान के द्वारा (रयिं धत्तम्) = उस ऐश्वर्य को धारण करो जो कि (वसुमन्तम्) = सब वसुओंवाला है, अर्थात् निवास के लिए आवश्यक सब वस्तुओं को देनेवाला है और (शतग्विनम्) = शतवर्षपर्यन्त चलनेवाला है, अर्थात् हमारे लिए जीवनभर सहायक है।

    भावार्थ

    भावार्थ - शरीर व मस्तिष्क को स्वस्थ व दीप्त बनाकर हम सुपथ से उस ऐश्वर्य का अर्जन करें जो हमें आजीवन वसुओं के जुटाने में सहायक हो ।

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    विषय

    ईश्वर के स्वरूप का चिन्तन कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( वयम् ) हम लोग ( सवितुः ) सर्वोत्पादक ( देवस्य ) प्रकाशस्वरूप, सुखदायक परमेश्वर के ( वरेण्यम् ) श्रेष्ठ ( राधः ) परम आराधनीय स्वरूप ऐश्वर्य को उसके ( प्रसवे ) उत्तम उपासना काल में ( मनामहे ) सदा चिन्तन करें। इसी प्रकार ( सवितुः देवस्य ) पुत्रोत्पादक जीवन और ज्ञानदाता गुरु के ( प्रसवे ) शासन में रह कर उसके ( वरेण्यं तद् राधः मनामहे ) सर्वश्रेष्ठ ज्ञान और ऐश्वर्य को धारण करें । वे दोनों ( द्यावा पृथिवी ) सूर्य और पृथिवी के समान ( सुचेतुना ) उत्तम चित्त और ज्ञानवान् होकर ( अस्मभ्यम् ) हमारे लिये ( शतग्विनं ) सैकड़ों गौओं और वाणियों से युक्त ( वसुमन्तं ) ऐश्वर्य युक्त, ( रयिं ) सम्पदा को ( धत्तम् ) प्रदान करें । द्वितीयो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः ॥ द्यावापृथिव्यौ देवते ॥ छन्दः- १ विराट् जगती । २, ३, ५ निचृज्जगती । ४ जगती च ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. विद्वान लोक जसे द्यावापृथ्वी वरील सर्व प्राण्यांना सुखी करतात तसे सर्वांच्या विद्या व धनाची वृद्धी करून सुखी करावे. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    That gift of knowledge worthy of love and choice in the creation of self-refulgent Lord Savita’s cosmic yajna, we value and admire. May the heaven and earth, universal father and mother, blest with immanent will of Nature, bear, bring and reveal that body of knowledge which is rich in wealth and power and provides a hundred forms of prosperity with cows, fertile lands and the word of knowledge and divinity.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Prayers to the teacher-preacher combine.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O teachers and preachers, bestow upon us that desirable wealth in the world which is created by God. The real wealth is of the hundreds of cows and other riches. You who are like the earth and the sun uphold us with your good knowledge and harmony.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the sun and the earth make all beings happy, same way, enlightened persons should make all glad by the advancement of knowledge and wealth.

    Foot Notes

    (प्रसवे) प्रसूते अस्मिन् जगति = In this world created by God. (शतग्विनम् ) शतानि गावो विद्यन्ते यस्मिन् तम् = Consisting of hundreds of cows.

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