ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 162/ मन्त्र 12
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - मित्रादयो लिङ्गोक्ताः
छन्दः - स्वराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
ये वा॒जिनं॑ परि॒पश्य॑न्ति प॒क्वं य ई॑मा॒हुः सु॑र॒भिर्निर्ह॒रेति॑। ये चार्व॑तो मांसभि॒क्षामु॒पास॑त उ॒तो तेषा॑म॒भिगू॑र्तिर्न इन्वतु ॥
स्वर सहित पद पाठये । वा॒जिन॑म् । प॒रि॒ऽपस्य॑न्ति । प॒क्वम् । ये । ई॒म् । आ॒हुः । सु॒र॒भिः । निः । ह॒र॒ । इति॑ । ये । च॒ । अर्व॑तः । मां॒स॒ऽभि॒क्षाम् । उ॒प॒ऽआस॑ते उ॒तो इति॑ । तेषा॑म् । अ॒भिऽगू॑र्तिः । नः॒ । इ॒न्व॒तु॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ये वाजिनं परिपश्यन्ति पक्वं य ईमाहुः सुरभिर्निर्हरेति। ये चार्वतो मांसभिक्षामुपासत उतो तेषामभिगूर्तिर्न इन्वतु ॥
स्वर रहित पद पाठये। वाजिनम्। परिऽपश्यन्ति। पक्वम्। ये। ईम्। आहुः। सुरभिः। निः। हर। इति। ये। च। अर्वतः। मांसऽभिक्षाम्। उपऽआसते उतो इति। तेषाम्। अभिऽगूर्तिः। नः। इन्वतु ॥ १.१६२.१२
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 162; मन्त्र » 12
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 9; मन्त्र » 2
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अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 9; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
ये वाजिनं पक्वं परिपश्यन्ति य ईं पक्वमाहुः। ये चार्वतो मांसभिक्षामुतो उपासते तेषामभिगूर्त्तिः सुरभिश्च न इन्वतु। हे विद्वँस्त्वमिति रोगान्निर्हर ॥ १२ ॥
पदार्थः
(ये) (वाजिनम्) बहूनि वाजा अन्नादीनि यस्मिन् तमाहारम् (परिपश्यन्ति) सर्वतः प्रेक्षन्ते (पक्वम्) पाकेन सम्यक् संस्कृतम् (ये) (ईम्) जलम्। ईमिति उदकना०। निघं० १। १२। (आहुः) कथयन्ति (सुरभिः) सुगन्धः (निः) (हरः) (इति) (ये) (च) (अर्वतः) प्राप्तस्य (मांसभिक्षाम्) मांसस्य भिक्षामलाभम् (उपासते) (उतो) (तेषाम्) (अभिगूर्त्तिः) अभिगत उद्यमः (नः) अस्मान् (इन्वतु) व्याप्नोतु प्राप्नोतु ॥ १२ ॥
भावार्थः
ये अन्नं जलं च शोधितुं पक्तुं भोक्तुं जानन्ति मांसं वर्जयित्वा भुञ्जते त उद्यमिनो जायन्ते ॥ १२ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
(ये) जो लोग (वाजिनम्) जिसमें बहुत अन्नादि पदार्थ विद्यमान उस भोजन को (पक्वम्) पकाने से अच्छा बना हुआ (परिपश्यन्ति) सब ओर से देखते हैं वा (ये) जो (ईम्) जल को पका (आहुः) कहते हैं (ये, च) और जो (अर्वतः) प्राप्त हुए प्राणी के (मांसभिक्षाम्) मांस के न प्राप्त होने को (उतो) तर्क-वितर्क से (उपासते) सेवन करते हैं (तेषाम्) उनका (अभिगूर्त्तिः) उद्यम और (सुरभिः) सुगन्ध (नः) हम लोगों को (इन्वतु) व्याप्त वा प्राप्त हो। हे विद्वन् ! तू (इति) इस प्रकार अर्थात् मांसादि अभक्ष्य के त्याग से रोगों को (निर्हर) निरन्तर दूर कर ॥ १२ ॥
भावार्थ
जो लोग अन्न और जल को शुद्ध करना, पकाना, उसका भोजन करना जानते और मांस को छोड़ कर भोजन करते, वे उद्यमी होते हैं ॥ १२ ॥
विषय
आचार्य का कर्तव्य
पदार्थ
१. (ये) = जो आचार्यगतमन्त्र के अनुसार विद्यार्थी में वीर्यरक्षण की भावना पैदा करके विद्यार्थी को (वाजिनम्) = शक्तिशाली व दृढ़शरीरवाला तथा (पक्वम्) = परिपक्व ज्ञानवाला, परिपक्व बुद्धिवाला (परिपश्यन्ति) = देखते हैं और २. (ये) = जो आचार्य (ईम्) = निश्चय से (आहुः) = कहते हैं कि (सुरभिः) = [क] तू दीप्त ज्ञानाग्नि के कारण उत्तम बुद्धिमान् [wise, learned] हुआ है, [ख] स्वास्थ्य के कारण चमकते हुए सुन्दर शरीरवाला [shining, handsome] हुआ है तथा [ग] मन में उत्तम गुणोंवाला [good, virtuous] बना है- ऐसा तू निर्हर इति निश्चय से ज्ञान को दूर-दूर तक ले जानेवाला बन - हम तो बस यही चाहते हैं । ३. (ये च) = और जो आचार्य (अर्वतः) = कामक्रोधादि का संहार करनेवाले इस विद्यार्थी से (मांसभिक्षाम्) = उसके मांस [जीवन] की ही भिक्षा को उपासते= माँग लेते हैं, अर्थात् इसे यह कहते हैं कि अपने जीवन को लोकहित के लिए दे डाल, ४. (तेषाम्) = उन, लोकहित के लिए विद्यार्थियों को शक्तिशाली व ज्ञानी बनानेवाले आचार्यों का (अभिगूर्तिः) = उद्योग (उत उ) निश्चय ही (नः इन्वतु) हमें व्याप्त करे, अर्थात् हम भी इन्हीं आचार्यों में से एक बनें और विद्यार्थियों को ज्ञान देकर उनसे लोकहित में प्रवृत्त होने की गुरुदक्षिणा
भावार्थ
लें ।
विषय
तपस्वी, दृढ़ राष्ट्रपति की परिपक्व अन्न से तुलना । ‘मांसमिक्षा’ का सत्यार्थ।
भावार्थ
( ये ) जो लोग ( वाजिनम् ) अश्व के समान अश्व सैन्य को और राष्ट्र को (पक्वं) परिपक्व, सुदृढ़, सुशिक्षित, तपस्या से युक्त को ( परि पश्यन्ति ) देखते हैं उस पर अपना सदा सब प्रकार निरीक्षण, देख रेख रखते हैं और ( ये ) जो (ईम्) इसको ( पक्वं ) परिपक्व ज्ञान और बलवीर्यवान् देखकर ( आहुः ) ये उपदेश करते हैं कि तू ( सुरभिः ) सुदृढ़, आचारवान्, सुगन्धित सुपक्व अन्न के समान है तू ( निर्हर ) अब बाहर निकल आ, मैदान या कार्य क्षेत्र में आ । और ( ये च ) जो भी ( अर्वतः ) ज्ञानवान् और बलवान् पुरुष की ( मांसभिक्षाम् ) मनन करने और मन को उत्तम प्रतीत होने योग्य ज्ञान और बल अथवा उसके देह की भिक्षा अर्थात् लेने की याचना ( उपासते ) करते हैं, अर्थात् उससे ज्ञान चाहते या उसकी कार्यक्षेत्र में बलि चाहते हैं इस कार्य के लिये उसके समीप रहते हैं ( तेषाम् ) उनका ( अभिगूर्तिः ) उसके हित के लिये सब प्रकार का उद्योग ( नः इन्वतु ) हमें प्राप्त हो । ( २ ) राष्ट्र पक्ष में—( ये ) जो विद्वान् लोग ( वाजिनम् ) अन्नादि समृद्धि से युक्त या संग्रामादि के बल से युक्त राष्ट्र को खूब ( पक्वं ) परिपक्व, पके खेतों वाला और दृढ़ (परिपश्यन्ति) देख लेते हैं और ( ये ) जो ( ईम् ) इसके विषय में ( आहुः ) कहते हैं कि वह ( सुरभिः ) वह खेत खूब उत्तम पके धान के गन्धसे युक्त और सैन्य सुदृढ़ है। (निः हर) इस पके खेत को काट के ले जाओ, और सैन्य को हे सेनापते ! तू संग्राम में ले जा । और (ये ) जो (अर्वतः) इस भोगयोग्य राष्ट्र के ( मांसभिक्षाम् उपासते ) मन को लुभाने वाले अन्न ऐश्वर्यादि और सैन्य के देह रक्तादि की याचना करते हैं उनका ( अभिगूर्तिः ) उद्यम और उपदेश हमें प्राप्त हो । (३) ब्रह्मचारी पक्ष में देखो ( यजु० २५ । ३५ )।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ मित्रादयो लिङ्गोक्ताः देवताः ॥ छन्दः- १, २, ९, १०, १७, २० निचृत् त्रिष्टुप् । ३ निचृज्जगती। ४,७,८,१८ त्रिष्टुप् । ५ विराट् त्रिष्टुप् । ६, ११, २१ भुरिक् त्रिष्टुप् । १२ स्वराट् त्रिष्टुप् । १३, १४ भुरित् पङ्क्तिः । १५, १९, २२ स्वराट् पङ्क्तिः। १६ विराट् पङ्क्तिः। द्वाविंशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जे लोक अन्न व जल शुद्ध करणे, शिजविणे, त्याचे भोजन करणे जाणतात व मांस वर्ज्य करून भोजन करतात ते उद्योगी असतात. ॥ १२ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Those who watch the nation’s food and prosperity grow to ripeness and perfection, and those who say: Ah yes! it is fragrant, harvest it, take it, export it too! and those who contribute their share to the nation’s prosperity and also wait for their share of the food and fragrance of yajna, and in addition, their coordination, cooperation and common voice of exhortation may, we pray, be for the good and growth of us all.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The warrior qualities are emphasized.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
They who crave for the meat of a horse, and declare the horse fit to be killed, should be exterminated. Who keep the fast horse well trained and disciplined, deserve to be praised by us for the strength of their character and perseverance.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those who may desire to eat the flesh of horses and other good animals, should be restrained by the king and other officers, so that men may accomplish their works well, without violence. (This mantra has been interpreted in the Rigvedadi Bhashya Bhumika also in a slightly different manner.)
Foot Notes
(वाजिनम् ) बहूनि वाजा:- अनादीनि यस्मिन् तम् आहारम् = The food which consists of grain and other edible articles. (ईम्) जलम् = Water. ( अवंत:) प्राप्तस्य = Of that which comes or is offered. ( मांसभिक्षाम् ) मांसस्य भिक्षाम् अलाभम् = Abstinence from flesh diet.
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