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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 18 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 18/ मन्त्र 7
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - सदसस्पतिः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    यस्मा॑दृ॒ते न सिध्य॑ति य॒ज्ञो वि॑प॒श्चित॑श्च॒न। स धी॒नां योग॑मिन्वति॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यस्मा॑त् । ऋ॒ते । न । सिध्य॑ति । य॒ज्ञः । वि॒पः॒ऽचितः॑ । च॒न । सः । धी॒नाम् । योग॑म् । इ॒न्व॒ति॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्मादृते न सिध्यति यज्ञो विपश्चितश्चन। स धीनां योगमिन्वति॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यस्मात्। ऋते। न। सिध्यति। यज्ञः। विपःऽचितः। चन। सः। धीनाम्। योगम्। इन्वति॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 18; मन्त्र » 7
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 35; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    स एव सर्वं जगद्रचयतीत्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यस्माद्विपश्चितः सर्वशक्तिमतो जगदीश्वरादृते यज्ञश्चन न सिध्यति स सर्वप्राणिमनुष्याणां धीनां योगमिन्वति॥७॥

    पदार्थः

    (यस्मात्) परमेश्वरात् (ऋते) विना (न) निषेधे (सिध्यति) निष्पद्यते (यज्ञः) सङ्गतः संसारः (विपश्चितः) अनन्तविद्यावतः (चन) कदाचित् (सः) जगदीश्वरः (धीनाम्) प्रज्ञानां कर्मणां वा (योगम्) संयोजनम् (इन्वति) व्याप्नोति जानाति वा। इन्वतीति व्याप्तिकर्मसु पठितम्। (निघं०२.१८) गतिकर्मसु च। (निघं०२.१४)॥७॥

    भावार्थः

    व्यापकस्येश्वरस्य व्याप्यस्य सर्वस्य जगतश्च द्वयोर्नित्यसम्बन्धोऽस्ति। स एव सर्वं जगद्रचयित्वा धृत्वा सर्वेषां बुद्धीनां चेष्टाया विज्ञाता सन् सर्वेभ्यः प्राणिभ्यस्तत्तत्कर्मानुसारेण सुखदुःखात्मकं फलं प्रददाति। नैव कश्चिदनीश्वरं स्वभावसिद्धमनधिष्ठातृकं जगद्भवितुमर्हति, जडानां विज्ञानाभावेन यथायोग्यनियमेनोत्पत्तुमनर्हत्वात्॥७॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    वही सब जगत् को रचता है, इसका उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (यस्मात्) जिस (विपश्चितः) अनन्त विद्यावाले सर्वशक्तिमान् जगदीश्वर के (ऋते) विना (यज्ञः) जो कि दृष्टिगोचर संसार है, सो (चन) कभी (न सिध्यति) सिद्ध नहीं हो सकता, (सः) वह जगदीश्वर सब मनुष्यों की (धीनाम्) बुद्धि और कर्मों के (योगम्) संयोग को (इन्वति) व्याप्त होता वा जानता है॥७॥

    भावार्थ

    व्यापक सब में रहनेवाले ईश्वर और व्याप्य जगत् का नित्य सम्बन्ध है। वही सब संसार को रचकर तथा धारण करके सब की बुद्धि और कर्मों को अच्छी प्रकार जानकर सब प्राणियों के लिये उनके शुभ अशुभ कर्मों के अनुसार सुख दुःखरूप फल को देता है। कभी ईश्वर को छोड़ के अपने आप स्वभावमात्र से सिद्ध होनेवाला अर्थात् जिसका कोई स्वामी न हो, ऐसा संसार नहीं हो सकता, क्योंकि जड़ पदार्थों के अचेतन होने से यथायोग्य नियम के साथ उत्पन्न होने की योग्यता कभी नहीं होती॥७॥

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    विषय

    वही सब जगत् को रचता है, इसका उपदेश इस मन्त्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे मनुष्या! यस्मात् विपश्चितः सर्वशक्तिमतः जगदीश्वरात् ऋते यज्ञः च न सिध्यति स सर्व प्राणि मनुष्याणां धीनां  योगम् इन्वति॥७॥

    पदार्थ

    हे (मनुष्या)=मनुष्यों! (यस्मात्)=जिस, (जगदीश्वरात्)=परमेश्वर के विना, (विपश्चितः) अनन्तविद्यावतः=अनन्त विद्यावान्, (सर्वशक्तिमतः)=सबसे शक्तिमान्, (यज्ञः)=संङ्गत संसारः, (च)=भी, (न)=नहीं, (सिध्यति)=सिद्ध होता है,  (सः)=वह परमेश्वर, (सर्व)=समस्त, (प्राणि)=प्राणियों,  (मनुष्याणां)=मनुष्यों की, (धीनाम्) प्रज्ञानां कर्मणां वा=प्रज्ञा या कर्मों के, (योगम्)=संयोजनम्=संयोग को, (इन्वति) व्याप्नोति जानाति वा=व्याप्त होता है या जानता है॥७॥       

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    व्यापक सब में रहनेवाले ईश्वर और व्याप्य जगत् का नित्य सम्बन्ध है। वही सब संसार को रचकर तथा धारण करके सब की बुद्धि और कर्मों को अच्छी प्रकार जानकर सब प्राणियों के लिये उनके शुभ अशुभ कर्मों के अनुसार सुख दुःखरूप फल को देता है। कभी ईश्वर को छोड़ के अपने आप स्वभावमात्र से सिद्ध होनेवाला अर्थात् जिसका कोई स्वामी न हो, ऐसा संसार नहीं हो सकता, क्योंकि जड़ पदार्थों के अचेतन होने से यथायोग्य नियम के साथ उत्पन्न होने की योग्यता कभी नहीं होती है॥७॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (मनुष्या) मनुष्यों! (यस्मात्) जिस (जगदीश्वरात्) परमेश्वर के विना (विपश्चितः) अनन्त विद्यावान् और (सर्वशक्तिमतः) सबसे शक्तिमान् (यज्ञः) संयुक्त संसार (च) भी (नसिध्यति) सिद्ध नहीं होता है, (सः) वह परमेश्वर (सर्व) समस्त (प्राणिः) प्राणियों और (मनुष्याणां) मनुष्यों की (धीनाम्) प्रज्ञा या कर्मों के (योगम्) संयोग को (इन्वति) व्याप्त होता है या जानता है॥७॥  

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (यस्मात्) परमेश्वरात् (ऋते) विना (न) निषेधे (सिध्यति) निष्पद्यते (यज्ञः) सङ्गतः संसारः (विपश्चितः) अनन्तविद्यावतः (चन) कदाचित् (सः) जगदीश्वरः (धीनाम्) प्रज्ञानां कर्मणां वा (योगम्) संयोजनम् (इन्वति) व्याप्नोति जानाति वा। इन्वतीति व्याप्तिकर्मसु पठितम्। (निघं०२.१८) गतिकर्मसु च। (निघं०२.१४)॥७॥
    विषयः- स एव सर्वं जगद्रचयतीत्युपदिश्यते।   

    अन्वयः- हे मनुष्या! यस्माद्विपश्चितश्चतः सर्वशक्तिमतो जगदीश्वरादृते यज्ञश्चन न सिध्यति स सर्वप्राणिमनुष्याणां धीनां  योगमिन्वति॥महर्षिकृत: ॥७॥        
             
    भावार्थः(महर्षिकृतः)- व्यापकस्येश्वरस्य व्याप्यस्य सर्वस्य जगतश्च द्वयोर्नित्यसम्बन्धोऽस्ति। स एव सर्वं जगद्रचयित्वा धृत्वा सर्वेषां बुद्धीनां चेष्टाया विज्ञाता सन् सर्वेभ्यः प्राणिभ्यस्तत्तत्कर्मानुसारेण सुखदुःखात्मकं फलं प्रददाति। नैव कश्चिदनीश्वरं स्वभावसिद्धमनधिष्ठातृकं जगद्भवितुमर्हति, जडानां विज्ञानाभावेन यथायोग्यनियमेनोत्पत्तुमनर्हत्वात्॥७॥

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    विषय

    अहंकार - शून्यता

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र का मेधावी पुरुष विनीत होता है । वह कभी भी किसी कार्य की सफलता का अहंकार नहीं करता । वह समझता है कि (यस्मात् ऋते) - जिस सदसस्पति = ब्रह्माण्ड के स्वामी के बिना (विपश्चितः चन) - बड़े - से - बड़े ज्ञानी का भी (यज्ञः) - कोई भी लोकसंग्रहात्मक उत्तम कार्य (न सिध्यति) - सिद्ध नहीं होता (सः) - वह प्रभु ही (धीनाम्) - हमारे प्रज्ञापूर्वक किये जानेवाले कर्मों के (योगम् इन्वति) - सम्बन्ध को व्याप्त करता है , अर्थात् वे प्रभु ही हमारे प्रत्येक कर्म को सफल किया करते हैं । प्रभु के सहाय्य के बिना किसी प्रकार की सफलता मिलना सम्भव ही नहीं । बड़े - से - बड़ा ज्ञानी भी उस प्रभु के सहाय्य के बिना अपने यज्ञों को सफल नहीं कर सकता । २. मेधा की प्राप्ति का सर्वप्रमुख परिणाम हमारे जीवनों में यही होता है कि हमारा अहंकार नष्ट हो जाता है । 'अज्ञान व अहंकार' पर्यायवाची शब्द हैं । किसी ने कितना सत्य कहा है कि - 'अहंभावो दयाभावो ज्ञानस्य चरमावधिः' - ज्ञान की चरम सीमा निरहंकृती ही है । ज्ञानी पुरुष प्रत्येक कार्य की सफलता में प्रभु का हाथ देखता है । ज्ञानी विजय का गर्व न कर सब कर्मों को प्रभु - अर्पण करके चलता है । 

    भावार्थ

    भावार्थ - विजयमात्र प्रभु की है । वही हमारे प्रज्ञापूर्वक कर्मों में व्याप्त होते हैं । वे ही उन्हें सफल करते हैं । 

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    विषय

    सदसस्पति, सभापति

    भावार्थ

    ( यस्मात् ऋते) जिसके बिना ( विपश्चितः चन ) बड़े भारी विद्वान् पुरुष का भी ( यज्ञः ) यज्ञ, कोई भी उत्तम कार्य, उपासना आदि ( न सिद्ध्यति ) सफल नहीं होता, (सः) वह परमेश्वर सर्वोपास्य, ( धीनां ) समस्त बुद्धियों के और कर्मों के ( योगम् ) एकाग्रचित्त से ध्यान करने ( इन्वति ) योग्य है । अथवा—( सः धीनां योगम् ) वह समस्त बुद्धियों का संयोजन या प्रेरणा करना जानता है । वही सब बुद्धियों को प्रेरणा करता और सब कर्मों का संचालक है । अथवा—( यस्मात् विपश्चितः ऋते यज्ञः चन न सिद्धयति ) जिस मेधावी, ज्ञानवान् के बिना कोई यज्ञ सफल नहीं होता वह सब बुद्धियों को प्रेरणा करे। विद्वान् के पक्ष में—जिस विद्वान् के विना ( यज्ञः ) कोई परस्पर का संगत राज्य आदि समवाय न चल सके वह मुख्य पुरुष सब कार्यों का नियोजन करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषि मेधातिथिः काण्वः । देवता—१-३ ब्रह्मणस्पतिः । ४ ब्रह्मणस्पतिरिन्द्रश्च सोमश्च । ५ बृहस्पतिदक्षिणे । ६—८ सदसस्पतिः । ९ सदस्स पतिर्नाराशंसोवा गायत्री ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सर्वात व्यापक ईश्वर व व्याप्य जगाचा नित्य संबंध आहे, तोच सर्व संसार निर्माण करून धारण करून सर्वांची बुद्धी व कर्म चांगल्या प्रकारे जाणून सर्व प्राण्यांसाठी त्यांच्या शुभ अशुभ कर्मानुसार सुख- दुःखरूपी फळ देतो. ईश्वराशिवाय कोणी स्वामी नाही. आपोआप सिद्ध होणारे जग असू शकत नाही. कारण जड पदार्थ अचेतन असल्यामुळे यथायोग्य नियमपूर्वक उत्पन्न होणे शक्य नाही. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    The Lord omniscient and omnipresent is the One without whom no yajna, not even the yajna of creation, can be accomplished, and He manifests His presence directly in the meditative intelligence of the dedicated soul.

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    Subject of the mantra

    That only creates the world, this has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (manuṣyā)=human beings, (yasmāt)=by which God, (vipaścitaḥ)=having eternal knowledge, (sarvaśaktimataḥ)=Omnipotent, (jagadīśvarāt)=without God, (yajñaḥ)=the world collected together, (ca)=also, (nasidhyati)=is not accomplished, (saḥ)=That Supreme Lord, (sarva)=all, (prāṇiḥ)=to living beings and, (manuṣyāṇāṃ)=of human beings, (dhīnām)= of wisdom or deeds, (yogam)= to coincide, (invati)= pervades or knows.

    English Translation (K.K.V.)

    O human beings! Without whom, even having eternal knowledge and most powerful united world is not perfect, that God pervades or knows the wisdom or combined actions of all living beings and humans.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is a constant relationship between the God who resides in all and the pervasive world. He, having created and possessing all the worlds, knowing well the intellect and actions of all, gives the rewards of happiness and sorrows to all living beings according to their good and bad deeds. There can never be such a world which is self-perpetuating except God, that is, which has no owner, because the inanimate of matter, never has the ability to be born with a proper law.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    God creates the whole world is taught in the seventh Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    God who is Omnipotent and Omniscient and with out whom this world can never be accomplished, pervades and knows the association of intellects and actions.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (विपश्चित:) अनन्तविद्यात् (परमेश्वरात्) = From God of infinite knowledge. (यज्ञ:) संगत: संसार: = Universe. (इन्दति) व्याप्नोति जानाति च । इन्दतीति व्याप्तिकर्मसु पठितम् ( निघ० २.१८ ) गतिकर्मसु च ( निघ० २.१४)। = Pervades and knows.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    There is eternal relation between God who pervades and the world which is pervaded by Him. It is He who gives the fruit of the actions of all beings, having made and upheld the world and having known the movement of the intellects of all. The world can never come into existence without the Direction of God, because inanimate objects can not have consciousness and consequently there can not be any law and order without the existence and Direction of the Omniscient Supreme Being.

    Translator's Notes

    Rishi Dayananda has interpreted : here as संगत: संसार: Universe from यज- देवपूजासंगतिकरणदानेषु । The second meaning of the root Yaj has been taken here. It may also be interpreted as Yajna or sacrifice in the form of the Universe. विपश्चित् इति मेधाविनामसु ( निघ० ३.१५ ) Hence Rishi Dayananda has interpreted विपश्चित् here as the wisest or Omniscient God. Others have simply interpreted it as the Yajna even of a wise man.

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