ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 187/ मन्त्र 11
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - ओषधयः
छन्दः - स्वराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
तं त्वा॑ व॒यं पि॑तो॒ वचो॑भि॒र्गावो॒ न ह॒व्या सु॑षूदिम। दे॒वेभ्य॑स्त्वा सध॒माद॑म॒स्मभ्यं॑ त्वा सध॒माद॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । त्वा॑ । व॒यम् । पि॒तो॒ इति॑ । वचः॑ऽभिः । गावः॑ । न । ह॒व्या । सु॒सू॒दि॒म॒ । दे॒वेभ्यः॑ । त्वा॒ । स॒ध॒ऽमाद॑म् । अ॒स्मभ्य॑म् । त्वा॒ । स्ध॒ऽमाद॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
तं त्वा वयं पितो वचोभिर्गावो न हव्या सुषूदिम। देवेभ्यस्त्वा सधमादमस्मभ्यं त्वा सधमादम् ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। त्वा। वयम्। पितो इति। वचःऽभिः। गावः। न। हव्या। सुसूदिम। देवेभ्यः। त्वा। सधऽमादम्। अस्मभ्यम्। त्वा। सधऽमादम् ॥ १.१८७.११
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 187; मन्त्र » 11
अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 7; मन्त्र » 6
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अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 7; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे पितो तं त्वा त्वामाश्रित्य वचोभिर्गावो न ततो वयं यथा हव्या सुषूदिम। तथा वयं देवेभ्यः सधमादं त्वाऽस्मभ्यं सधमादञ्च त्वा विद्वांस आश्रयन्ताम् ॥ ११ ॥
पदार्थः
(तम्) (त्वा) त्वाम् (वयम्) (पितो) अन्नव्यापिन् पालकेश्वर (वचोभिः) स्तुतिवाक्यैः (गावः) धेनवः (न) इव (हव्या) अत्तुं योग्यानि (सुषूदिम) क्षारयेम (देवेभ्यः) विद्वद्भ्यः (त्वा) त्वाम् (सधमादम्) सह मादयितारम् (अस्मभ्यम्) (त्वा) त्वाम् (सधमादम्) सह मादयितारम् ॥ ११ ॥
भावार्थः
अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा गावो तृणादिकं भुक्त्वा रत्नं दुग्धं ददति तथाऽन्नादिपदार्थेभ्यः श्रेष्ठतरो भागो निष्काशनीयः। ये स्वसङ्गिनोऽन्नादिना सत्कुर्वन्ति परस्परानन्दकाङ्क्षया परमात्मानञ्चाश्रयन्ति ते प्रशंसिता जायन्ते ॥ ११ ॥ ।अस्मिन् सूक्तेऽन्नगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम् ॥इति सप्ताशीत्युत्तरं शततमं सूक्तं सप्तमो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (पितो) अन्नव्यापी पालकेश्वर ! (तम्) उन पूर्वोक्त (त्वा) आपका आश्रय लेकर (वचोभिः) स्तुतिवाक्यों प्रशंसाओं से (गावः) दूध देती हुई गौवें (न) जैसे दूध, घी, दही आदि पदार्थों को देवें से उस अन्न से (वयम्) हम जैसे (हव्या) भोजन करने योग्य पदार्थों को (सुषूदिम) निकाशें तथा हम (देवेभ्यः) विद्वानों के लिये (सधमादम्) साथ आनन्द देनेवाले (त्वा) आपका हम तथा (अस्मभ्यम्) हमारे लिये (सधमादम्) साथ आनन्द देनेवाले (त्वा) आपका विद्वान् जन आश्रय करें ॥ ११ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे गौयें तृण, घास आदि खाकर रत्न दूध देती हैं, वैसे अन्नादि पदार्थों से श्रेष्ठतर भाग निकाशना चाहिये। जो अपने सङ्गियों का अन्नादि पदार्थों से सत्कार करते और परस्पर एक दूसरे के आनन्द की इच्छा से परमात्मा का आश्रय लेते हैं, वे प्रशंसित होते हैं ॥ ११ ॥इस सूक्त में अन्न के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति समझनी चाहिये ॥ यह एकसौ सतासीवाँ सूक्त और सातवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
मिलकर भोजन
पदार्थ
१. हे (पितो) = पालक अन्न ! (वयम्) = हम (तं त्वा) = उस तुझे (वचोभिः) = वेदवचनों के द्वारावेद निर्दिष्ट मार्ग से सेवन के द्वारा (सुषूदिम) = शरीर से दोषों का क्षरण करनेवाला करें [षूद क्षरणे], उसी प्रकार (न) = जैसे कि (गाव:) = गोदुग्धों को तथा (हव्या) =हव्य पदार्थों को। जैसे गोदुग्ध से तथा हव्य पदार्थों के सेवन से मलों का क्षरण होता है, उसी प्रकार पालक अन्न के प्रयोग से हम शरीर-मलों को क्षरित करके नीरोग-शरीरवाले बनें । २. उस (त्वा) = तुझे जो तू (देवेभ्यः) = देवताओं के लिए (सधमादम्) = [सह मादयितारम्] साथ ही आनन्दित करनेवाला है। देवलोग मिलकर ही तेरा सेवन करते हैं, अकेले नहीं खाते। वे इस बात को समझते हैं कि–'केवलाघो भवति केवलादी' – अकेला खानेवाला पापी होता है। उस (त्वा) = तुझे हम सेवन करते हैं जो तू (अस्मभ्यम्) = हमारे लिए (सधमादम्) = साथ ही आनन्दित करनेवाला है।
भावार्थ
भावार्थ- हम वेद में दी गई प्रभु की आज्ञा के अनुसार दूध व यज्ञिय पदार्थों का ही सेवन करें। ये हमारे मलों का क्षरण करनेवाले होंगे। साथ ही अन्नों का सेवन मिलकर करें, अकेले नहीं ।
विषय
अन्नवत् पालक प्रभु की उपासना।
भावार्थ
हे ( पितो ) पालक अन्न के समान राजन् ! प्रभो ! (गाव:हव्या न) गौएं या बैलगण जिस प्रकार खाने योग्य दूध और अन्न आदि पदार्थ (सूदयन्ति) बहाते और खूब अधिक मात्रा में उत्पन्न करते हैं और जिस प्रकार हम लोग (देवेभ्यः) विद्वान् पुरुषों और (अस्मभ्यम्) अपने लिये भी अन्न को (वचोभिः) उत्तम वाणियों सहित (सुषूदिम) प्रदान करते हैं उसी प्रकार हे स्वामिन् ! (वयं) हम (वचोभिः) उत्तम वाणियों और स्तुतियों से (तं त्वा) उस उपास्य तुझको (सुषूदिम) प्राप्त होते हैं, तुझे द्रवित करते हैं, प्रेम और दया से पूर्ण करते हैं । (त्वा) तुझको (देवेभ्यः) उत्तम गुणों को प्राप्त करने और (अस्मभ्यम् ) अपने हित के लिये ( सधमादं ) एक साथ संयोग से अति आनन्द देने वाला जान कर ( त्वा सुदिम ) तुझे प्राप्त होते हैं । इति सप्तमो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्य ऋषिः॥ ओषधयो देवता॥ छन्दः- १ उष्णिक् । ६, ७ भुरिगुष्णिक् । २, ८ निचृद गायत्री । ४ विराट् गयात्री । ९, १० गायत्री च । ३, ५ निचृदनुष्टुप् । ११ स्वराडनुष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जशा गाई तृण वगैरे खाऊन दूधरूपी रत्न देतात तसे अन्न इत्यादी पदार्थांपासून अत्यंत श्रेष्ठ भाग काढून घेतला पाहिजे. जे आपल्या संगतीतील लोकांचा अन्न इत्यादी पदार्थांनी सत्कार करतात व परस्पर एक दुसऱ्याच्या आनंदाची इच्छा बाळगून परमेश्वराचा आश्रय घेतात ते प्रशंसित होतात. ॥ ११ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Lord giver of food and nourishment, spirit pervasive of health and energy, you are the giver of divine joy to the generous powers of nature and the generous nobilities of humanity. You are the giver of health and joy to us all. We praise you with words of gratitude for your gifts, and just as cows distil the essence of herbs and bless us with milky nutriments, so do we distil the essence of nourishment from the divine gifts of herbs and food, and express our gratitude in words and songs of celebration and service.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O God ! blessed with the food grains, we take shelter in you with the noble words of praise, like we milk the cows. Let all learned persons take recourse to you, who delights all enlightened persons.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
NA
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The cows eat grass and give precious and nourishing milk. Likewise, the men should take the best essence and sap from the food. Those persons who honor and entertain their friends and neighbors by giving meals in order to enjoy true bliss, take shelter in God. They become admirable.
Foot Notes
(हव्या) अत्तुं योग्यम् = Worthy of eating or taking. Here used for milk and its product ( सधमादम् ) सह मादयितारम् = God Giver of delight while living within us.
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