ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 188/ मन्त्र 10
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - आप्रियः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
उप॒ त्मन्या॑ वनस्पते॒ पाथो॑ दे॒वेभ्य॑: सृज। अ॒ग्निर्ह॒व्यानि॑ सिष्वदत् ॥
स्वर सहित पद पाठउप॑ । त्मन्या॑ । व॒न॒स्प॒ते॒ । पाथः॑ । दे॒वेभ्यः॑ । सृ॒ज॒ । अ॒ग्निः । ह॒व्यानि॑ । सि॒स्व॒द॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
उप त्मन्या वनस्पते पाथो देवेभ्य: सृज। अग्निर्हव्यानि सिष्वदत् ॥
स्वर रहित पद पाठउप। त्मन्या। वनस्पते। पाथः। देवेभ्यः। सृज। अग्निः। हव्यानि। सिस्वदत् ॥ १.१८८.१०
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 188; मन्त्र » 10
अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 9; मन्त्र » 5
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अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 9; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ दातृविषयमाह ।
अन्वयः
हे वनस्पते त्मन्या तथाऽग्निर्देवेभ्यो हव्यानि सिष्वदत्तथा त्वं देवेभ्य पाथ उपसृज ॥ १० ॥
पदार्थः
(उप) (त्मन्या) आत्मनि साध्व्या क्रियया (वनस्पते) वनानां पालक (पाथः) अन्नम् (देवेभ्यः) विद्वद्भ्यो दिव्यगुणेभ्यो वा (सृज) (अग्निः) पावकः (हव्यानि) अत्तव्यानि (सिष्वदत्) स्वादूकरोति ॥ १० ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये वनादिरक्षणेन तृणौषधीन् वर्द्धयन्ति ते सर्वोपकारं कर्त्तुं योग्या जायन्ते ॥ १० ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब देनेवाले के विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (वनस्पते) वनों के पालनेवाले ! (त्मन्या) अपने बीच उत्तम क्रिया से जैसे (अग्निः) अग्नि (देवेभ्यः) विद्वान् वा दिव्य गुणों के लिये (हव्यानि) भोजन करने योग्य पदार्थों को (सिष्वदत्) स्वादिष्ठ करता है वैसे आप विद्वान् वा दिव्य गुणों के लिये (पाथः) अन्न को (उप, सृज) उनके लिये देओ ॥ १० ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो वनादिकों की रक्षा से घास, फूस और ओषधियों को बढ़ाते हैं, वे सबका उपकार करने योग्य होते हैं ॥ १० ॥
विषय
वानस्पतिक भोजन
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार विविध प्रकार से सहायक ये पशु हमें प्राप्त हों, परन्तु 'हमें इनके मांस का प्रयोग नहीं करना है', इस बात को स्पष्ट करने के लिए कहते हैं कि हे (वनस्पते) = ओषधे ! तू (त्मन्या) = स्वयं (देवेभ्यः) = देववृत्तिवाले पुरुषों के लिए (पाथः) = अन्न को (उपसृज) = समीपता से उत्पन्न कर, अर्थात् देववृत्ति के पुरुष वानस्पतिक भोजन ही करनेवाले हों । २. (अग्नि:) = प्रगतिशील व्यक्ति (हव्यानि) = हव्य पदार्थों को ही (सिष्वदत्) = आस्वादित करता है। यज्ञिय पवित्र पदार्थों का ही भोजन करता हुआ वह सात्त्विक वृत्तिवाला बनता है।
भावार्थ
भावार्थ - मनुष्य का भोजन औषधि व वनस्पति ही है।
विषय
विद्वान् की शोभा।
भावार्थ
जिस प्रकार जलों और प्रकाशों या रश्मियों का पालक सूर्य ही (पाथः) पान करने योग्य जलों को मेघ द्वारा उत्पन्न करता है। (अग्निः) सूर्य का ताप और अग्नि परिपाक करके (हव्यानि) अन्नों और खाने योग्य फलों को स्वाद युक्त करता है उसी प्रकार हे (वनस्पते) वनों और जलों और ऐश्वर्यों के पालक पुरुष ! तू (देवेभ्यः) विद्वानों, करप्रद प्रजाजनों के हित के लिये (त्मन्या) अपने सामर्थ्य से (पाथः) उत्तम जल, उत्तम अन्न और उत्तम पालन का उपाय (उपसृज) किया कर। (अग्निः) अग्रणी नायक और विद्वान् पुरुष (हव्यानि) खाने योग्य पदार्थों को (सिष्वदत) उत्तम स्वाद युक्त बनावे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः । आप्रियो देवता ॥ छन्दः–१, ३, ५, ६, ७, १० निचृद्गायत्री। २, ४, ८, ९, ११ गायत्री ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे वनांचे रक्षण करून तृण वगैरे तसेच औषधींची वाढ करतात ते सर्वांवर उपकार करणारे असतात. ॥ १० ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O Vanaspati, lord of herbs and trees and forests, create, produce and give the best of food and nourishments to the noble and virtuous people of virtue with the sincerity of your mind and soul, as fire helps to prepare the sweetest delicacies for entertainment of the divines.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
In the praise of a learned donor.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O protector of the forests as energy turns all the eatables into delicious, likewise with your admirable actions, we make (prepare) good meals for the enlightened persons.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
NA
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those who preserve and help the growth of the vegetables, herbs and plants, through the conservation of forests etc. they are able to deliver benefits to all.
Foot Notes
(त्मन्या) आत्मनि साध्व्या क्रियया । By good activity or process. ( पाथ: ) अन्नम् | अन्नमपि पाथ उच्यते ( NKT. 6-2-6) = Food. हव्यानि | अत्तव्यानि । हव्यानि is from हु– दानादनयोः आदाने च | अत्न आदानार्थग्रहणम् | Eatables.
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