ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 22/ मन्त्र 17
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः
देवता - विष्णुः
छन्दः - पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
इ॒दं विष्णु॒र्वि च॑क्रमे त्रे॒धा निद॑धे प॒दम्। समू॑ळ्हमस्य पांसु॒रे॥
स्वर सहित पद पाठइ॒दम् । विष्णुः॑ । वि । च॒क्र॒मे॒ । त्रे॒धा । नि । द॒धे॒ । प॒दम् । सम्ऽऊ॑ळ्हम् । अ॒स्य॒ । पां॒सु॒रे ॥
स्वर रहित मन्त्र
इदं विष्णुर्वि चक्रमे त्रेधा निदधे पदम्। समूळ्हमस्य पांसुरे॥
स्वर रहित पद पाठइदम्। विष्णुः। वि। चक्रमे। त्रेधा। नि। दधे। पदम्। सम्ऽऊळ्हम्। अस्य। पांसुरे॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 22; मन्त्र » 17
अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
Acknowledgment
अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
ईश्वरेणैतज्जगत् कियत्प्रकारकं रचितमित्युपदिश्यते।
अन्वयः
मनुष्यैर्यो विष्णुस्त्रेधेदं पदं विचक्रमेऽस्य त्रिविधस्य जगतः समूढं मध्यस्थं जगत्पांसुरेऽन्तरिक्षे विदधे विहितवानस्ति स एवोपास्यो वर्त्तते इति बोध्यम्॥१७॥
पदार्थः
(इदम्) प्रत्यक्षाप्रत्यक्षं जगत् (विष्णुः) व्यापकेश्वरः (वि) विविधार्थे (चक्रमे) यथायोग्यं प्रकृतिपरमाण्वादिपादानंशान् विक्षिप्य सावयवं कृतवान् (त्रेधा) त्रिःप्रकारकम् (नि) नितराम् (दधे) धृतवान् (पदम्) यत्पद्यते प्राप्यते तत् (समूढम्) यत्सम्यक् तर्क्यते तर्केण यद्विज्ञायते तत् (अस्य) जगतः (पांसुरे) प्रशस्ताः पांसवो रेणवो विद्यन्ते यस्मिन्नन्तरिक्षे तस्मिन्। नगपांसुपाण्डुभ्यश्चेति वक्तव्यम्। (अष्टा०५.२.१०७) अनेन प्रशंसार्थे रः प्रत्ययः॥यास्कमुनिरिमं मन्त्रमेवं व्याचष्टे-विष्णुर्विशतेव्यश्नोतेर्वा यदिदं किं च तद्विक्रमते विष्णुस्त्रिधा निधत्ते पदं त्रेधाभावाय पृथिव्यामन्तरिक्षे दिवीति शाकपूणिः। समारोहणं विष्णुपदे गयशिरसीत्यौर्णवाभः। समूढमस्य पांसुरेऽप्यायनेऽन्तरिक्षे पदं न दृश्यतेऽपि वोपमार्थे समूढमस्य पांसुर इव पदं न दृश्यत इति पांसवः पादैः सूयन्त इति वा पन्नाः शेरत इति वा पंसनीया भन्तीति वा। (निरु०१२.१९) गयशिरसीत्यत्र गय इत्यपत्यनामसु पठितम्। (निघं०२.२) गय इति धननामसु च। (निघं०२.१०) प्राणा वै गयाः। (श०ब्रा०१४.७.१.७) प्रजायाः शिर उत्तमभागो यत्कारणं तद्विष्णुपदं गयानां विद्यादिधनानां यच्छिरः फलमानन्दः सोऽपि विष्णुपदाख्यः। गयानां प्राणानां शिरः प्रीतिजनकं सुखं तदपि विष्णुपदमित्यौर्णवाभाचार्य्यस्य मतम्। पादैः सूयन्ते वाऽनेन कारणांशैः कार्य्यमुत्पद्यत इति बोध्यम्। पदं न दृश्यतेऽनेनातीन्द्रियाः परमाण्वादयोऽन्तरिक्षे विद्यमाना अपि चक्षुषा न दृश्यन्त इति वेदितव्यम्। इदं त्रेधाभावायेति। एकं प्रत्यक्षं प्रकाशरहितं पृथिवीमयं द्वितीयं कारणाख्यमदृश्यं तृतीयं प्रकाशमयं सूर्य्यादिकं च जगदस्तीति बोध्यम्। विष्णुशब्देनात्र व्यापकेश्वरो ग्राह्य इति॥१७॥
भावार्थः
परमेश्वरेणास्मिन् संसारे त्रिविधं जगद्रचितमेकं पृथिवीमयं द्वितीयमन्तरिक्षस्थं त्रसरेण्वादिमयं तृतीयं प्रकाशमयं च। एतेषां त्रयाणामेतानि त्रीण्येवाधारभूतानि यच्चान्तरिक्षस्थं तदेव पृथिव्याः सूर्य्यादेश्च वर्धकं नैवैतदीश्वरेण विना कश्चिज्जीवो विधातुं शक्नोति। सामर्थ्याभावात्। सायणाचार्य्यादिभिर्विलसनाख्येन चास्य मन्त्रस्यार्थस्य वामनाभिप्रायेण वर्णितत्वात्स पूर्वपश्चिमपर्वतस्थो विष्णुरस्तीति मिथ्यार्थोऽस्तीति वेद्यम्॥१७॥
हिन्दी (4)
विषय
ईश्वर ने इस संसार को कितने प्रकार का रचा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-
पदार्थ
मनुष्य लोग जो (विष्णुः) व्यापक ईश्वर (त्रेधा) तीन प्रकार का (इदम्) यह प्रत्यक्ष वा अप्रत्यक्ष (पदम्) प्राप्त होनेवाला जगत् है, उसको (विचक्रमे) यथायोग्य प्रकृति और परमाणु आदि के पद वा अंशों को ग्रहण कर सावयव अर्थात् शरीरवाला करता और जिसने (अस्य) इस तीन प्रकार के जगत् का (समूढम्) अच्छी प्रकार तर्क से जानने योग्य और आकाश के बीच में रहनेवाला परमाणुमय जगत् है, उसको (पांसुरे) जिसमें उत्तम-उत्तम मिट्टी आदि पदार्थों के अति सूक्ष्म कण रहते हैं, उनको आकाश में (विदधे) धारण किया है। जो प्रजा का शिर अर्थात् उत्तम भाग कारणरूप और जो विद्या आदि धनों का शिर अर्थात् उत्तम फल आनन्दरूप तथा जो प्राणों का शिर अर्थात् प्रीति उत्पादन करनेवाला सुख है, ये सब विष्णुपद कहाते हैं, यह और्णवाभ आचार्य्य का मत है। पादैः सूयन्त इति वा इसके कहने से कारणों से कार्य्य की उत्पत्ति की है, ऐसा जानना चाहिये। पदं न दृश्यते जो इन्द्रियों से ग्रहण नहीं होते, वे परमाणु आदि पदार्थ अन्तरिक्ष में रहते भी हैं, परन्तु आँखों से नहीं दीखते। इदं त्रेधाभावाय इस तीन प्रकार के जगत् को जानना चाहिये अर्थात् एक प्रकाशरहित पृथिवीरूप, दूसरा कारणरूप जो कि देखने में नहीं आता, और तीसरा प्रकाशमय सूर्य्य आदि लोक हैं। इस मन्त्र में विष्णु शब्द से व्यापक ईश्वर का ग्रहण है॥१७॥
भावार्थ
परमेश्वर ने इस संसार में तीन प्रकार का जगत् रचा है अर्थात् एक पृथिवीरूप, दूसरा अन्तरिक्ष आकाश में रहनेवाला प्रकृति परमाणुरूप और तीसरा प्रकाशमय सूर्य्य आदि लोक तीन आधाररूप हैं, इनमें से आकाश में वायु के आधार से रहनेवाला जो कारणरूप है, वही पृथिवी और सूर्य्य आदि लोकों का बढ़ानेवाला है और इस जगत् को ईश्वर के विना कोई बनाने को समर्थ नहीं हो सकता, क्योंकि किसी का ऐसा सामर्थ्य ही नहीं॥१७॥
विषय
ईश्वर ने इस संसार को कितने प्रकार का रचा है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
मनुष्यैः यो विष्णुः त्रेधा इदं पदं वि चक्रमे अस्य त्रिविधस्य जगतः समूढं मध्यस्थं जगत् पांसुरे अन्तरिक्षे विदधे विहितवान् अस्ति स एव उपास्यः वर्त्तते इति बोध्यम्॥१७॥
पदार्थ
(मनुष्यैः)=मनुष्य लोग, (यो)= जो, (विष्णुः) व्यापकेश्वरः= व्यापक ईश्वर, (त्रेधा) त्रिःप्रकारकम्=तीन प्रकार का, (इदम्) प्रत्यक्षाप्रत्यक्षं जगत्= यह प्रत्यक्ष वा अप्रत्यक्ष, (पदम्) यत्पद्यते प्राप्यते तत्=प्राप्त होनेवाला जगत् है, उसको, (वि) विविधार्थे=विविध प्रकार से, (चक्रमे) यथायोग्यं प्रकृतिपरमाण्वादिपादानंशान् विक्षिप्य सावयवं कृतवान् अस्य=यथायोग्य प्रकृति और परमाणु आदि के पद वा अंशों को ग्रहण कर सावयव अर्थात् शरीरवाला किया है, जिसने, (त्रिविधस्य)=तीन प्रकार के, (जगतः)=जगत् का, (समूढम्) यत्सम्यक् तर्क्यते तर्केण यद्विज्ञायते तत् मध्यस्थम्=अच्छी प्रकार तर्क से जानने योग्य और आकाश के बीच में रहनेवाला परमाणुमय है, (पांसुरे) प्रशस्ताः पांसवो रेणवो विद्यन्ते यस्मिन्नन्तरिक्षे तस्मिन्=जिसमें उत्तम-उत्तम मिट्टी आदि पदार्थों के अति सूक्ष्म कण रहते हैं, उनको आकाश में, (अन्तरिक्षे)=अन्तरिक्ष में, (वि) विविधार्थे=विभिन्न प्रकार से, (दधे) धृतवान्= धारण किया है, (स)=वह, (एव)=ही, (उपास्यः)=उपासना किये जाने योग्य, (वर्त्तते)=है, (इति)=ऐसा, (बोध्यम्)=जानना चाहिए॥१७॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
परमेश्वर ने इस संसार में तीन प्रकार का जगत् रचा है अर्थात् एक पृथिवीरूप, दूसरा अन्तरिक्ष आकाश में स्थित त्रसरेणुवाला और तीसरा प्रकाशमय है। इन लोकों के ये तीन ही आधारभूत हैं, जो अन्तरिक्ष में स्थित हैं। वही पृथिवी और सूर्य्य आदि लोकों का बढ़ानेवाला है, ईश्वर के विना, ईश्वर के सामर्थ्य के विना कोई भी जीव निर्माण नहीं कर सकता है। सायणाचार्य आदि और विलसन नामक योरोपीय विद्वानों ने भी इस मन्त्र का अर्थ वर्णित करते हुए कहा है-वामनरूप (विष्णु के पांचवें बौनेरूप अवतार) के अभिप्राय से पूर्व और पश्चिम में स्थित पर्वत यह विष्णु है। यह अर्थ मिथ्या है, ऐसा समझना चाहिए ॥१७॥
विशेष
अनुवादक की टिप्पणियाँ- (1) प्रकृति- विश्व की रचना या सृष्टि करने वाली मूल नियामक तथा संचालन शक्ति को प्रकृति कहते हैं।
(2) त्रसरेणु- ऋग्वेद के मन्त्र संख्या 01-04-09 में स्पष्ट किया गया है ॥१७॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
(मनुष्यैः) मनुष्य लोग (यो) जिस (विष्णुः) व्यापक ईश्वर द्वारा (त्रेधा) तीन प्रकार के (इदम्) यह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष (पदम्) प्राप्त होनेवाला जगत् है, उसको (विविधार्थे) विविध प्रकार से (चक्रमे) यथायोग्य प्रकृति और परमाणु आदि के पद या अंशों को ग्रहण कर सावयव अर्थात् शरीरवाला किया है। [जो] (त्रिविधस्य) तीन प्रकार के (जगतः) जगत् का, (समूढम्) अच्छी प्रकार तर्क से जानने योग्य और आकाश के बीच में रहनेवाला परमाणुमय है। (पांसुरे) जिसमें उत्तम-उत्तम मिट्टी आदि पदार्थों के अति सूक्ष्म कण रहते हैं, उनको (अन्तरिक्षे) अन्तरिक्ष में (वि) विभिन्न प्रकार से जिसने (दधे) धारण किया है। (स) वह (एव) ही (उपास्यः) उपासना किये जाने योग्य (वर्त्तते) है, (इति) ऐसा (बोध्यम्) जानना चाहिए॥१७॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (इदम्) प्रत्यक्षाप्रत्यक्षं जगत् (विष्णुः) व्यापकेश्वरः (वि) विविधार्थे (चक्रमे) यथायोग्यं प्रकृतिपरमाण्वादिपादानंशान् विक्षिप्य सावयवं कृतवान् (त्रेधा) त्रिःप्रकारकम् (नि) नितराम् (दधे) धृतवान् (पदम्) यत्पद्यते प्राप्यते तत् (समूढम्) यत्सम्यक् तर्क्यते तर्केण यद्विज्ञायते तत् (अस्य) जगतः (पांसुरे) प्रशस्ताः पांसवो रेणवो विद्यन्ते यस्मिन्नन्तरिक्षे तस्मिन्। नगपांसुपाण्डुभ्यश्चेति वक्तव्यम्। (अष्टा०५.२.१०७) अनेन प्रशंसार्थे रः प्रत्ययः॥ यास्कमुनिरिमं मन्त्रमेवं व्याचष्टे-विष्णुर्विशतेव्यश्नोतेर्वा यदिदं किं च तद्विक्रमते विष्णुस्त्रिधा निधत्ते पदं त्रेधाभावाय पृथिव्यामन्तरिक्षे दिवीति शाकपूणिः। समारोहणं विष्णुपदे गयशिरसीत्यौर्णवाभः। समूढमस्य पांसुरेऽप्यायनेऽन्तरिक्षे पदं न दृश्यतेऽपि वोपमार्थे समूढमस्य पांसुर इव पदं न दृश्यत इति पांसवः पादैः सूयन्त इति वा पन्नाः शेरत इति वा पंसनीया भन्तीति वा। (निरु०१२.१९) गयशिरसीत्यत्र गय इत्यपत्यनामसु पठितम्। (निघं०२.२) गय इति धननामसु च। (निघं०२.१०) प्राणा वै गयाः। (श०ब्रा०१४.७.१.७) प्रजायाः शिर उत्तमभागो यत्कारणं तद्विष्णुपदं गयानां विद्यादिधनानां यच्छिरः फलमानन्दः सोऽपि विष्णुपदाख्यः। गयानां प्राणानां शिरः प्रीतिजनकं सुखं तदपि विष्णुपदमित्यौर्णवाभाचार्य्यस्य मतम्। पादैः सूयन्ते वाऽनेन कारणांशैः कार्य्यमुत्पद्यत इति बोध्यम्। पदं न दृश्यतेऽनेनातीन्द्रियाः परमाण्वादयोऽन्तरिक्षे विद्यमाना अपि चक्षुषा न दृश्यन्त इति वेदितव्यम्। इदं त्रेधाभावायेति। एकं प्रत्यक्षं प्रकाशरहितं पृथिवीमयं द्वितीयं कारणाख्यमदृश्यं तृतीयं प्रकाशमयं सूर्य्यादिकं च जगदस्तीति बोध्यम्। विष्णुशब्देनात्र व्यापकेश्वरो ग्राह्य इति॥१७॥
विषयः- ईश्वरेणैतज्जगत् कियत्प्रकारकं रचितमित्युपदिश्यते।
अन्वयः- मनुष्यैर्यो विष्णुस्त्रेधेदं पदं विचक्रमेऽस्य त्रिविधस्य जगतः समूढं मध्यस्थं जगत्पांसुरेऽन्तरिक्षे विदधे विहितवानस्ति स एवोपास्यो वर्त्तते इति बोध्यम्॥१७॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- परमेश्वरेणास्मिन् संसारे त्रिविधं जगद्रचितमेकं पृथिवीमयं द्वितीयमन्तरिक्षस्थं त्रसरेण्वादिमयं तृतीयं प्रकाशमयं च। एतेषां त्रयाणामेतानि त्रीण्येवाधारभूतानि यच्चान्तरिक्षस्थं तदेव पृथिव्याः सूर्य्यादेश्च वर्धकं नैवैतदीश्वरेण विना कश्चिज्जीवो विधातुं शक्नोति। सामर्थ्याभावात्। सायणाचार्य्यादिभिर्विलसनाख्येन चास्य मन्त्रस्यार्थस्य वामनाभिप्रायेण वर्णितत्वात्स पूर्वपश्चिमपर्वतस्थो विष्णुरस्तीति मिथ्यार्थोऽस्तीति वेद्यम्॥१७॥
विषय
तीन कदम
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार (विष्णुः) - व्यापक उन्नति करनेवाले जीव ने (इदम्) - यह (विचक्रमे) - विशेष पुरुषार्थ किया है कि (त्रेधा) - तीन प्रकार से (पदम्) - कदम को (निदधे) - रक्खा है । केवल शरीर , केवल मन व केवल मस्तिष्क की उन्नति न करके उसने तीनों की ही उन्नति की है - शरीर को नीरोग बनाया है , मन को निर्मल और मस्तिष्क को निशित - तीन बुद्धिवाला । इस प्रकार त्रिविध उन्नति करते हुए (अस्य) - इस जीव ने (पांसुरे) - इस धूलि से बने शरीर में इस पार्थिव देह में (सम् ऊढम्) - कर्त्तव्य का सम्यक् वहन किया है । जैसे ब्रह्माण्ड की त्रिलोकी में पृथिवी में अग्नि का निवास है , इसी प्रकार इस विष्णु ने भी इस शरीर में शक्ति की रक्षा के द्वारा ' प्राणाग्नि' को स्थापित किया है । बाह्य अन्तरिक्ष में जैसे चन्द्रमा की स्थिति है , उसी प्रकार इसने अपने हदयान्तरिक्ष में [चदि आह्लादे] आह्लाद - मनः प्रसाद को स्थापित किया है । द्युलोक सूर्य से उज्ज्वल है । इसका मस्तिष्करूप द्युलोक भी ज्ञानसूर्य से उज्ज्वल हुआ है । इस प्रकार इस विष्णु ने स्वकर्तव्य को सम्यक् निबाहा है ।
भावार्थ
भावार्थ - इस पार्थिव शरीर में कर्तव्य का निर्वहण यही है कि हम नीरोगता , निर्मलता व निशिततारूप तीन कदमों को रखनेवाले हों ।
विषय
विष्णु, परमेश्वर ।
भावार्थ
( विष्णुः ) व्यापक परमेश्वर ( इदम् ) इस प्रत्यक्ष और ( पदम् ) जानने योग्य जगत् को ( विचक्रमे ) विविध रूप से रचता है और सबको ( त्रेधा) तीन प्रकार से ( नि दधे ) स्थिर करता है । (अस्य) इस जगत् के ( समूढम् ) भली प्रकार तर्क से जानने योग्य सूक्ष्म रूप को भी वह ( पांसुरे ) रेणुओं से पूर्ण आकाश में स्थापित करता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१–२१ मेधातिथि: काण्व ऋषिः देवता—१-४ अश्विनौ । ५-८ सविता । ९ १० अग्निः । ११ १२ इन्द्राणीवरुणान्यग्न्याय्यः । १३, १४ द्यावापृथिव्यौ । १५ पृथिवी । १६ देवो विष्णुर्वा १७-२१ विष्णुः ॥ गायत्र्यः । एकविशत्यृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वराने या जगात तीन प्रकारची निर्मिती केलेली आहे. अर्थात एक पृथ्वीरूपी, दुसरी अंतरिक्ष, आकाशात राहणारे प्रकृती परमाणूरूपी व तिसरी प्रकाशमय सूर्य इत्यादी लोक. हे तीन आधाररूप आहेत.
टिप्पणी
यापैकी आकाशात राहणारे वायूच्या आधारे कारणरूप आहेत. तेच पृथ्वी व सूर्य इत्यादींना वाढविणारे आहे. ईश्वराखेरीज कोणीही हे जग उत्पन्न करण्यास समथ नाही, कारण असे कुणाचेच सामर्थ्य नाही. ॥ १७ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Vishnu created this threefold universe of matter, motion and mind in three steps of evolution through Prakriti, subtle elements and gross elements, shaped the atoms into form and fixed the form in eternal space and time.
Subject of the mantra
Of how many kinds this universe was created by God, this has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(manuṣyaiḥ)=human beings, (yo)=That, (viṣṇuḥ) =pervading God, (tredhā)=in three kind of, (idam) =this perceptible or imperceptible, (padam)=the realizable world, to that, (vividhārthe)=in different ways, (cakrame) =who has created properly with organ, in other words made created structure with parts of prakriti and atoms, [jo]=Who, (trividhasya)=of three type, (jagataḥ)=of the universe, (samūḍham)=is able to be logically known and is the one resident of the middle of the atomy sky. (pāṃsure)=in which very fine particles of substances like good soil etc. are present, to those, (antarikṣe)=In space (vi)=in various ways who, (dadhe)=has contained, (sa)=He, (eva)=only, (upāsyaḥ)=is worthy of worship, (varttate)=is, (iti)=such, (bodhyam) =must be understood.
English Translation (K.K.V.)
Human beings, through whom the universal God is of the three types of this perceptible or imperceptible, attainable world, it has been composed of parts i.e. having a body by taking the positions or parts of nature and atoms etc. in various ways. That is of three kinds of the worlds and is well logically known. In which, the very fine particles of the best soil et cetera remain present; the one who has imbibed them in different ways in the space. He alone is worthy of worship, this should be known
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
The Supreme Lord has created three types of worlds in this world i.e. one is earthly form, the other is the trasrenu in space and the third is luminous. These three are the basic of these worlds, which are situated in space. He is the enhancer of the earth and the Sun etc. worlds, without God, without the power of God, no living being can be created. Sayanacharya etc. scholars and European scholar, named Wilson, while describing in the translation of this mantra have said that the mountain situated in the east and west is Vishnu as the meaning of form of Vamana (fifth dwarf incarnation) of Vishnu. This translation is false, it should be understood like that.
TRANSLATOR’S NOTES-
(1) Prakriti-The basic regulator and governing force that creates or creates the world is called Prakriti. (2) Trasrenu-This has been explained in mantra number 01-04-09 of Rigveda.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Of how many kinds has this world been made by God is taught in the 17th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Men should adore that Omnipresent God only Who made this world in three ways i. e. (1) This visible earth without light (2) invisible subtle world in the form of atoms etc. (3) Shining solar world. He made the form of the universe that can be logically known in the firmament. Yaskacharya explains this Mantra in his well-known work Nirukta 12.19 in the above manner.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(विष्णुः) व्यापकेश्वरः = All pervading God. (चक्रमे ) यथायोग्यं प्रकृतिपरमाण्वादिपादान् अंशान्विक्षिप्य सावयवं कृतवान् | = Created in an orderly manner out of the atoms of the Primordial Matter. (पदम् ) यत् पद्यते प्राप्यते तत् = World which is realized or seen by all. (समूढम्) यत् सम्यक् तर्क्यते तर्केण यद् विज्ञायते तत् = That which is known through logic.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
God has made the Universe of three kinds. (1)Consisting of the earth. (2) Consisting of त्रसरेणु (trasarenu) i. e. atoms or motes of dust which are seen moving in a sun-beam, lying in the firmament or intermediate region between heaven and earth. (3) Bright solar world. Out of these three, the earth, the firmament and the sky, the invisible subtle cause consisting of atoms and molecules in the middle region is the cause of the growth of the earth and the sun etc. All this universe can not be made by any one except the Omnipotent God because none has got that power. Sayanacharya and Wilson have misinterpreted this Mantra thinking wrongly that there is allusion to the theory of Vamana Avatar or dwarf incarnation in this.
Translator's Notes
Rishi Dayananda while interpreting the Mantra on the authority of Yaskacharya the author of the famous Nirukta and other Acharyas in the above most rational manner, has criticised Sayanacharya and Wilson for their wrong interpretation' referring to the Pauranik Vamanavatar or dwarf incarnation story. For instance, Sayanacharya says in his commentary- (विष्णु:) त्रिविक्रमावतारधारी इदं प्रतीयमानं सर्वे जगदुद्दिश्य विशेषेण क्रमणंकृतवान् । तदा त्रिभिः प्रकारैः स्वकीयं पदं प्रक्षिप्तवान् । अस्य विष्णोः पांसुरे-धूलियुक्ते पादस्थाने इदं सर्व जगत् सम्यक् अन्तर्भूतम् || Which Prof. Wilson translates as follows- "Vishnu (in the form of Trivikrama Avatara) traversed this world; three times, he planted his foot, and the whole world was collected in the dust of his foot-step." In his notes on P. 234 Wilson says- Planted his foot--This looks still more like an allusion to the fourth Avatar, although no mention is made of king Bali or the dwarf, and these may have been subsequent grafts upon the original tradition of Vishnu's three paces etc. Griffith has also mis-interpreted the Mantra following Sayanacharya. He translated it as follows--- "Through all this world strode Vishnu, thrice his foot he planted, and the whole. Was gathered in his foot -step's, "dust." So Rishi Dayananda was right in condemning the wrong interpretation put by Sayanacharya, Wilson and others, though Wilson had to admit willy nilly that "no mention is made of king Bali or the dwarf, and these may have been grafted upon the original tradition of Vishnu's three paces." How can then such interpretation not based upon the original text, be accepted as authentic.?
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Hemanshu Pota
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal