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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 27 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 27/ मन्त्र 12
    ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    स रे॒वाँइ॑व वि॒श्पति॒र्दैव्यः॑ के॒तुः शृ॑णोतु नः। उ॒क्थैर॒ग्निर्बृ॒हद्भा॑नुः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । रे॒वान्ऽइ॑व । वि॒श्पतिः॑ । दैव्यः॑ । के॒तुः । शृ॒णो॒तु॒ । नः॒ । उ॒क्थैः । अ॒ग्निः । बृ॒हत्ऽभा॑नुः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स रेवाँइव विश्पतिर्दैव्यः केतुः शृणोतु नः। उक्थैरग्निर्बृहद्भानुः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः। रेवान्ऽइव। विश्पतिः। दैव्यः। केतुः। शृणोतु। नः। उक्थैः। अग्निः। बृहत्ऽभानुः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 27; मन्त्र » 12
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे विद्वँस्त्वं यो दैव्यः केतुर्विश्पतिर्बृहद्भानू रेवान् इवाग्निरस्ति तमुक्थैः शृणोतु नोऽस्मभ्यं श्रावयतु॥१२॥

    पदार्थः

    (सः) श्रीमान् (रेवान् इव) महाधनाढ्य इव। अत्र रैशब्दान्मतुप्। रयेर्मतौ बहुलम्। (अष्टा०वा०६.१.३७) इति वार्त्तिकेन सम्प्रसारणं छन्दसीरः (अष्टा०८.२.१५) इति वत्वम्। (विश्पतिः) विशां प्रजानां पतिः पालनहेतुः। अत्र वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति इति व्रश्चभ्रस्जसृज० (अष्टा०८.२.३६) अनेन षकारादेशो न। (दैव्यः) देवेषु कुशलः। अत्र देवाद्यञञौ। (अष्टा०वा०४.१.८५) अनेन प्राग्दीव्यतीयकुशलेऽर्थे देवशब्दाद्यञ् प्रत्ययः। (केतुः) रोगदूरकरणे हेतुः (शृणोतु) श्रावयतु वा। अत्र पक्षेऽन्तर्गतो ण्यर्थः। (नः) अस्मभ्यम् (उक्थैः) वेदस्तोत्रैः सुखप्रापकः (बृहद्भानुः) बृहन्तो भानवः प्रकाशा यस्य सः॥१२॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यथा पूर्णधनो विद्वान् मनुष्यो धनभोगैः सर्वान् मनुष्यान् सुखयति, सर्वेषां वार्त्ताः प्रीत्या शृणोति, तथैव जगदीश्वरोऽपि प्रीत्या सम्पादितां स्तुतिं श्रुत्वा तान् सदैव सुखयतीति॥१२॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    हे विद्वान् मनुष्य ! तुम जो (दैव्यः) देवों में कुशल (केतुः) रोग को दूर करने में हेतु (विश्पतिः) प्रजा को पालनेवाला (बृहद्भानुः) बहुत प्रकाशयुक्त (रेवान् इव) अत्यन्त धनवाले के समान (अग्निः) सबको सुख प्राप्त करनेवाला अग्नि है (उक्थैः) वेदोक्त स्तोत्रों के साथ सुना जाता है, उसको (शृणोतु) सुन और (नः) हम लोगों के लिये सुनाइये॥१२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे पूर्ण धनवाला विद्वान् मनुष्य धन भोगने योग्य पदार्थों से सब मनुष्यों को सुखसंयुक्त करता और सब की वार्त्ताओं को सुनता है, वैसे ही जगदीश्वर सबकी की हुई स्तुति को सुनकर उनको सुखसंयुक्त करता है॥१२॥

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    विषय

    फिर वह परमेश्वर कैसा है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे विद्वन् त्वं यः दैव्यः केतुः विश्पतिः बृहद्भानू रेवान् इव अग्निः अस्ति तम् उक्थैः शृणोतु नःअस्मभ्यं श्रावयतु॥१२॥

    पदार्थ

    हे (विद्वन्)=विद्वान्, (त्वम्)=आप, (यः)=जो, (दैव्यः) देवेषु कुशलः=देवों में कुशल, (केतुः) रोगदूरकरणे हेतुः= रोग को दूर करने में हेतु, (विश्पतिः) विशां प्रजानां पतिः पालनहेतुः=प्रजा को पालनेवाले, (बृहद्भानुः) बृहन्तो भानवः प्रकाशा यस्य सः=बहुत प्रकाशयुक्त है जो, (रेवान् इव) महाधनाढ्य इव= अत्यन्त धनवाले के समान, (अग्निः)=अग्नि, (अस्ति)=है, (तम्)=उसको, (उक्थैः) वेदस्तोत्रैः सुखप्रापकः=वेदोक्त स्तोत्रों के साथ सुख प्राप्त कराने वाले, (शृणोतु) श्रावयतु वा=सुनिये और, (नः) अस्मभ्यम्=हम लोगों के लिये,  (श्रावयतु)=सुनाइये ॥१२॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे पूर्ण धनवाला विद्वान् मनुष्य धन के भोग से सब मनुष्यों को सुखी करता है, सब के समाचारों को प्रीतिपूर्वक सुनता है। वैसे ही जगदीश्वर भी प्रीतिपूर्वक की हुई सबकी की हुई स्तुति को सुनकर उनको सुखी करता है॥१२॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (विद्वन्) विद्वान्! (त्वम्) आप (यः) जो (दैव्यः) देवों में कुशल (केतुः) रोग को दूर करने में साधन,  (विश्पतिः) प्रजा को पालनेवाले और (बृहद्भानुः) बहुत प्रकाशयुक्त हैं। [जो] (रेवान् इव) अत्यन्त धनवाले के समान (अग्निः) अग्नि (अस्ति) है। (तम्) उसको (उक्थैः)  वेदोक्त स्तोत्रों के साथ सुख प्राप्त कराने वाले हैं को (शृणोतु) सुनिये और  (नः)  हम लोगों के लिये (श्रावयतु) सुनाइये ॥१२॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (सः) श्रीमान् (रेवान् इव) महाधनाढ्य इव। अत्र रैशब्दान्मतुप्। रयेर्मतौ बहुलम्। (अष्टा०वा०६.१.३७) इति वार्त्तिकेन सम्प्रसारणं छन्दसीरः (अष्टा०८.२.१५) इति वत्वम्। (विश्पतिः) विशां प्रजानां पतिः पालनहेतुः। अत्र वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति इति व्रश्चभ्रस्जसृज० (अष्टा०८.२.३६) अनेन षकारादेशो न। (दैव्यः) देवेषु कुशलः। अत्र देवाद्यञञौ। (अष्टा०वा०४.१.८५) अनेन प्राग्दीव्यतीयकुशलेऽर्थे देवशब्दाद्यञ् प्रत्ययः। (केतुः) रोगदूरकरणे हेतुः (शृणोतु) श्रावयतु वा। अत्र पक्षेऽन्तर्गतो ण्यर्थः। (नः) अस्मभ्यम् (उक्थैः) वेदस्तोत्रैः सुखप्रापकः (बृहद्भानुः) बृहन्तो भानवः प्रकाशा यस्य सः॥१२॥
    विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः- हे विद्वँस्त्वं यो दैव्यः केतुर्विश्पतिर्बृहद्भानू रेवान् इवाग्निरस्ति तमुक्थैः शृणोतु नोऽस्मभ्यं श्रावयतु॥१२॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। यथा पूर्णधनो विद्वान् मनुष्यो धनभोगैः सर्वान् मनुष्यान् सुखयति, सर्वेषां वार्त्ताः प्रीत्या शृणोति, तथैव जगदीश्वरोऽपि प्रीत्या सम्पादितां स्तुतिं श्रुत्वा तान् सदैव सुखयतीति॥१२॥

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    विषय

    रेवान् विश्पतिः

    पदार्थ

    १. (सः) - वे प्रभु (रेवान् विश्पतिः इव) - मानो एक धन - सम्पन्न प्रजापालक हैं । प्रभु प्रजाओं के रक्षण करनेवाले हैं । इस प्रभु का कोश कभी खाली नहीं होता , अतः उसके सामने प्रजारक्षण की समस्या कभी नहीं उठती । 

    २. वे प्रभु (दैव्यः) - देवताओं से प्राप्त करने योग्य हैं अथवा देवों का हित करनेवाले हैं । हम देव बनेंगे तभी प्रभु को - 'महादेव' को प्राप्त कर सकेंगे और तभी प्रभु से किये जानेवाले कल्याण के पात्र होंगे । 

    ३. (केतुः) - वे प्रभु ज्ञान के पुञ्ज हैं और ज्ञान के द्वारा हमारे सब रोगों को दूर करनेवाले हैं [कित रोगापनयने] । ये प्रभु (नः) - हमारी प्रार्थना को (श्रृणोतु) - सुनें । 

    ४. वे प्रभु (उक्थैः) - स्तोत्रों के द्वारा (अग्निः) - हमें आगे ले - चलनेवाले होते हैं । (बृहद्भानुः) - वृद्धि के कारण ज्ञान को प्राप्त कराते हैं । वेदों में प्रतिपादित उक्थ हमारी उन्नति व ज्ञानवृद्धि का कारण बनते हैं । 

    भावार्थ

    भावार्थ - वे प्रभु हमारी प्रार्थनाओं को सुनें और वह ज्ञान प्राप्त कराएँ जो हमारी उन्नति का कारण हो । 

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    विषय

    विश्पति बृहद्भानु ।

    भावार्थ

    ( सः ) वह परमेश्वर राजा ( रेवान् ) धनाढ्य के समान (विश्पतिः) अधीन, आश्रित, प्रजा का पालन करनेहारा, ( दैव्यः ) समस्त दिव्य पदार्थ अग्नि, जलादि व्यापक पदार्थों और विजीगीषु विद्वानों में सबसे कुशल (केतुः) ज्ञानवान् और (बृहद्भानुः) बड़े भारी तेजों और दीप्तियों से अति तेजस्वी (अग्निः) अग्रणी, प्रतापी है । वह (नः) प्रजाजनों का (उक्थैः) वेदमन्त्रों द्वारा अथवा उनके अनुसार सब कुछ ( शृणोतु ) श्रवण करे । और न्याय करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शुनःशेप आजीगर्तिऋषिः । देवता—१-१२ अग्निः। १३ विश्वेदेवाः । छन्द:—१–१२ गायत्र्यः । १३ त्रिष्टुप् । त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसा पूर्ण धनयुक्त विद्वान माणूस धन भोगण्यायोग्य पदार्थांनी सर्व माणसांना सुखाने युक्त करतो व सर्वांच्या वार्ता प्रेमाने ऐकतो तसेच जगदीश्वर सर्वांनी केलेली स्तुती ऐकून त्यांना सुख देतो. ॥ १२ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    That Agni, divine protector and sustainer of humanity, destroyer of disease with rays of light, mighty brilliant, may listen to our prayers and hymns of praise like a generous man of wealth and prosperity.

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    Subject of the mantra

    Then, what kind of that God is, this has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    Then, what kind of He=O! (vidvan)=scholar, (tvam)=you, (yaḥ)=that, (daivyaḥ)=efficient in deities, (ketuḥ)=means of removing disease, (viśpatiḥ)= nourishing descendants, [aura]=and, (bṛhadbhānuḥ)=are very radiant, [jo]=those, (revān iva)=like extremely rich, (agniḥ)=God, (asti)=is, (tam)=Him, (ukthaiḥ)=to those provider of delight with doxology of Vedas, (śṛṇotu)=listen, [aura]=and, (naḥ)=for us, (śrāvayatu)=recite.

    English Translation (K.K.V.)

    O scholar! You, that efficient among deities and are means of removing disease, nourishing descendants and those who are very radiant. That is like extremely rich God. Listen and recite Him, to those providers of delight with doxology of Vedas, for us.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is simile as a figurative in this mantra. Just as, a learned man of full wealth makes all men happy by the enjoyment of wealth, he listens to everyone's news with love. In the same way, God also makes them happy after listening to everyone's praises with love.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is that Agni is taught further in the 12th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    May the Refulgent, Omniscient and Adorable God ever well-wisher of the enlightened truthful persons, listen to our praises and prayers, as a rich lord of men listens to the requests of the poor.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (केतु:) रोगदूरकरणे हेतुः । = Remover of all diseases ( internal as well as external). (बृहद्भानु:) बृहन्तः भानव: प्रकाशा यस्य सः । = Resplendent.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As a rich learned person pleases all men with the enjoyment of wealth, listens to the requests and complaints of all, in the same manner, when God is pleased with true love, He listens to the glorification and gives happiness to all.

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