ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 32/ मन्त्र 14
ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अहे॑र्या॒तारं॒ कम॑पश्य इन्द्र हृ॒दि यत्ते॑ ज॒घ्नुषो॒ भीरग॑च्छत् । नव॑ च॒ यन्न॑व॒तिं च॒ स्रव॑न्तीः श्ये॒नो न भी॒तो अत॑रो॒ रजां॑सि ॥
स्वर सहित पद पाठअहेः॑ । या॒तार॑म् । कम् । अ॒प॒श्यः॒ । इ॒न्द्र॒ । हृ॒दि । यत् । ते॒ । ज॒घ्नुषः॑ । भीः । अग॑च्छत् । नव॑ । च॒ । यम् । न॒व॒तिम् । च॒ । स्रव॑न्तीः । श्ये॒नः । न । भी॒तः । अत॑रः । रजां॑सि ॥
स्वर रहित मन्त्र
अहेर्यातारं कमपश्य इन्द्र हृदि यत्ते जघ्नुषो भीरगच्छत् । नव च यन्नवतिं च स्रवन्तीः श्येनो न भीतो अतरो रजांसि ॥
स्वर रहित पद पाठअहेः । यातारम् । कम् । अपश्यः । इन्द्र । हृदि । यत् । ते । जघ्नुषः । भीः । अगच्छत् । नव । च । यम् । नवतिम् । च । स्रवन्तीः । श्येनः । न । भीतः । अतरः । रजांसि॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 32; मन्त्र » 14
अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 38; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 38; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(अहेः) मेघस्य (यातारम्) देशान्तरे प्रापयितारम् (कम्) सूर्यादन्यम् (अपश्यः) पश्येत्। अत्र लिङर्थे लङ्। (इन्द्र) शत्रुदलविदारक योद्धः (हृदि) हृदये (यत्) धनम् (ते) तव (जघ्नुषः) हन्तुः सकाशात् (भीः) भयम् (अगच्छत्) गच्छति प्राप्नोति। अत्र सर्वत्र वर्त्तमाने लङ्। (नव) संख्यार्थे (च) पुनरर्थे (स्रवन्तीः) गमनं कुर्वन्तीर्नदीर्नाड़ीर्वा। स्रवन्त्य इति नदीनामसु पठितम्। निघं० १।१३। स्रुधातोर्गत्यर्थत्वाद्रुधिरप्राणगमनमार्गा जीवनहेतवो नाड्योपि गृह्यन्ते। (श्येनः) पक्षी (न) इव (भीतः) भयं प्राप्तः (अतरः) तरति (रजांसि) सर्वाँल्लोकान् लोकारजांस्युच्यंते। निरु० ४।१९। ॥१४॥
अन्वयः
पुनस्तयोः परस्परं किं भवतीत्युपदिश्यते।
पदार्थः
हे इन्द्र योद्धर्यस्य शत्रून् जघ्नुषस्ते तव प्रभावोऽहेर्मेघस्य विद्युद्गर्जनादिविशेषात् प्राणिनो यद्याभीरगच्छत् प्राप्नोति विद्वान् मनुष्यस्तस्य मेघस्य यातारं देशांतरे प्रापयितारं सूर्य्यादन्यं कमप्यर्थं न पश्येयुः। स सूर्येण हतो मेघो भीतो नेव श्येनादिव कपोतः भूमौ पतित्वा नवनवतिर्नदीर्नाडीर्वा स्रवंतीः पूर्णाः करोति यद्यस्मात्सूर्यः स्वकीयैः प्रकाशाकर्षणछेदनादिगुणैर्महान्वर्त्तते तत्तस्माद्रजांस्यतरः सर्वांल्लोकान् संतरतीवास्ति स त्वं हृदि यं शत्रुमपश्यः पश्येस्तं हन्याः ॥१४॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। राजभृत्या वीरा यथा केनचित् प्रहृतो भययुक्तः श्येनः पक्षी इतस्ततो गच्छति तथैव सूर्येण हत आकर्षितश्च यो मेघ इतस्ततः पतन् गच्छति स स्वशरीराख्येन जलेन लोकलोकान्तरस्य मध्येऽनेका नद्यो नाड्यश्च पिपर्त्ति। अत्र नवनवतिमितिपदमसंख्यातार्थेऽस्त्यु पलक्षणत्वान्नह्येतस्य मेघस्य सूर्याद्भिन्नं किमपि निमित्तमस्ति यथाऽन्धकारे प्राणिनां भयं जायते तथा मेघस्य सकाशाद्विद्युद्गर्जनादिभिश्च भयं जायते तन्निवारकोपि सूर्य एव तथा सर्वलोकानां प्रकाशाकर्षणादिभिर्व्यवहारेतुरस्ति तथैव शत्रून् विजयेरन् ॥१४॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर उन दोनों में परस्पर क्या होता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।
पदार्थ
हे इन्द्र ! योधा जिस युद्ध व्यवहार में शत्रुओं का (जघ्नुषुः) हननेवाले (ते) आपका प्रभाव (अहेः) मेघ के गर्जन आदि शब्दों से प्राणियों को (यत्) जो (भीः) भय (अगच्छत्) प्राप्त होता है विद्वान् लोग उस मेघ के (यातारम्) देश देशान्तर में पहुंचानेवाले सूर्य को छोड़ और (कम्) किसको देखें सूर्य से ताड़ना को प्राप्त हुआ मेघ (भीतः) डरे हुए (श्येनः) (न) वाज के समान (च) भूमि में गिर के (नवनवतिम्) अनेक (स्रवन्तीः) जल बहानेवाली नदी वा नाड़ियों को पूरित करता है (यत्) जिस कारण सूर्य अपने प्रकाश आकर्षण और छेदन आदि गुणों से बड़ा है इसीसे (रजांसि) सब लोकों को (अतरः) तरता अर्थात् प्रकाशित करता है इसके समान आप हैं वे आप (हृदि) अपने मन में जिसको शत्रु (अपश्यः) देखो उसी को मारा करो ॥१४॥
भावार्थ
इस मंत्र में उपमालङ्कार है। राजसेना के वीर पुरुषों को योग्य है कि जैसे किसी से पीड़ा को पाकर डरा हुआ श्येन पक्षी इधर-उधर गिरता पड़ता उड़ता है वा सूर्य से अनेक प्रकार की ताड़ना और खैंच कढ़ेर को प्राप्त होकर मेघ इधर-उधर देशदेशान्तर में अनेक नदी वा नाड़ियों को पूर्ण करता है इस मेघ की उत्पत्ति का सूर्य से भिन्न कोई निमित्त नहीं है। और जैसे अन्धकार में प्राणियों को भय होता है वैसे ही मेघ के बिजली और गर्जना आदि गुणों से भय होता है उस भय का दूर करनेवाला भी सूर्य ही है तथा सब लोकों के व्यवहारों को अपने प्रकाश और आकर्षण आदि गुणों में चलानेवाला है वैसे ही दुष्ट शत्रुओं को जीता करें। इस मंत्र में (नवनवतिम्) यह संख्या का उपलक्षण होने से पद असंख्यात अर्थ में है ॥१४॥
विषय
वासनानदी - संतरण
पदार्थ
१. इस वासना को जीतना सुगम नहीं । सुगम क्या, इसका जीतना असम्भव - सा प्रतीत होता है, परन्तु जब प्रभु को अपना मित्र बनाकर यह 'इन्द्र' इस वासना से संग्राम करता है तब उसे अवश्य मार ही पाता है । वस्तुतः इन्द्र का मित्र प्रभु ही अपने मित्र के लिए इस कामरूप शत्रु का विनाश करते हैं । मन्त्र में कहते हैं कि हे (इन्द्र) - शत्रुओं का विदारण करनेवाले जीव ! तू (अहेः यातारम्) - इस आहनन करनेवाली वासना के प्रति जानेवाले और उसपर आक्रमण करनेवाले (कम्) - उस आनन्दस्वरूप प्रभु को (अपश्यः) - देख । (यत्) - जब भी (ते हृदि) - तेरे हृदय में (भीः अगच्छत्) - भय प्राप्त हो, तू प्रभु का ध्यान कर । अरे ! उस प्रभु की मित्रता में डर का प्रश्न ही कहाँ ? (जघ्नुषः) - [हतवतः] तूने उस कामरूप शत्रु को मार ही लिया है, डरता क्यों है ?
२. उस प्रभु की मित्रता में (यत्) - आज तू (नव च नवतिं च) - नौ और नब्बे, अर्थात् निन्यानवे प्रकार से (स्त्रवन्तीः) - बहती हुई इन वासना - नदियों को प्राप्त करके (श्येनः) - [क्ष्यैङ् गतौ] निरन्तर गतिशील होता हुआ तथा (न भीतः) - न डरा हुआ (रजांसि) - [उदकानि] उन वासनारूप नदियों के राजसभावरूप जलों को (अतरः) - तैर गया है ।
३. संसार की वासनाओं को जीतने का उपाय यही है कि हम [क] सुकर्मशील बने रहें ; [ख] क्रिया - शीलतारूप वज्र हाथ में होने पर हम इनसे डरें नहीं ; तथा [ग] उस प्रभु को अपने मित्र के रूप में देखें । वस्तुतः उस प्रभु ने ही तो इन वासनाओं को विनष्ट करना है ।
भावार्थ
भावार्थ - वासनाओं के विनाशक प्रभु हैं, यह देखते हुए हम निर्भयता के साथ सुकर्मशील बने रहें तब अवश्य ही हम इन असंख्यात वासना - नदियों के राजसभावरूप जलों को तैरनेवाले बनेंगे ।
विषय
फिर उन दोनों में परस्पर क्या होता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे इन्द्र योद्धः यस्य शत्रून् जघ्नुषः ते तव प्रभावः अहेः मेघस्य विद्युत् गर्जनादि विशेषात् प्राणिनः यत् या भीः अगच्छत् प्राप्नोति विद्वान् मनुष्यः तस्य मेघस्य यातारं देशांतरे प्रापयितारं सूर्य्यात् अन्यं कम् अपि अर्थं न पश्येयुः। स सूर्येण हतः मेघः भीतः न इव श्येनात् इव कपोतः भूमौ पतित्वा नव नवतिः नदीः नाडीः वा स्रवंतीः पूर्णाः करोति यत् यस्मात् सूर्यः स्वकीयैः प्रकाशाकर्षण छेदनादिगुणैः महान् वर्त्तते तत् तस्मात् रंजासि अतरः सर्वांन् लोकान् संतरत् इव अस्ति स त्वं हृदि यं शत्रुम् अपश्यः पश्येः तं हन्याः ॥१४॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) शत्रुदलविदारक योद्धृः=शत्रुओं के दलों का विदारण करने वाले योद्धा ! (यस्य)=जिसके, (शत्रून्)=शत्रुओं को, (जघ्नुषः) हन्तुः सकाशात्=समीप से मारनेवाले, (ते) तव=आपका, (प्रभावः)=प्रभाव, (अहेः) मेघस्य=मेघ के, (विद्युत्)=तड़ित विद्युत् से, (गर्जनादि)=गर्जन आदि के, (विशेषात्)=विशेष शब्द, (प्राणिनः)=प्राणियों को, (यत्)=जिस, (भीः) भयम्=भय को, (अगच्छत्) गच्छति प्राप्नोति=प्राप्त कराते हैं, (विद्वान्)=विद्वान्, (मनुष्यः)=मनुष्य, (तस्य)=उस, (मेघस्य)=मेघ के, (यातारम्) देशान्तरे प्रापयितारम्=देश देशान्तर में पहुंचानेवाले, (सूर्य्यात्)=सूर्य से, (अन्यम्)=भिन्न, (अपि)=किसी को भी, (अर्थम्)=किसी प्रयोजन से, (न)=न, (पश्येयुः)=देखें, (सः)=उस, (सूर्येण)=सूर्य के द्वारा, (हतः)=मारा गया अथवा छिन्न-भिन्न किया हुआ, (मेघः)=मेघ, (भीतः) भयं प्राप्तः=भयभीत, (श्येनात्) पक्ष्याः=पक्षी के, (न) इव=समान, (कपोतः)=कबूतर पक्षी को, (भूमौ)=भूमि पर, (पतित्वा) =गिराकर, (नवनवतिः) उपलक्षार्थे=विशेष, (नदीः)=नदियों, (वा)=अथवा, (नाडीः)=नाडियों के द्वारा, (स्रवन्तीः) गमनं कुर्वन्तीर्नदीर्नाड़ीर्वा=जाती हुई नदियां या नाडियां, (पूर्णाः)=पूरा, (करोति)=करती हैं। (यत्) धनम्=जिस धन को, (यस्मात्)=इस कारण से, (सूर्यः)=सूर्य, (स्वकीयैः)=अपने, (प्रकाशाकर्षण)=प्रकाश और आकर्षण से, व (छेदनादिगुणैः)=छेदन आदि गुणों के द्वारा, (महान्)=महान्, (वर्त्तते)=होता है, (तत्)=उससे, (तस्मात्)=इसलिये, (रजांसि) सर्वाँल्लोकान् लोका रजांस्युच्यंते=सब लोकों से, (अतरः) तरति=पार कर जाता है, (सर्वांन्)=सब, (लोकान्)=लोकों का, (संतरत्)=पार कराने वाले के, (इव)=समान, (अस्ति)=है, (सः)=वह, (त्वम्)=आप, (हृदि) हृदये=हृदय में, (यम्)=जिस, (शत्रुम्)=शत्रु को, (अपश्यः) पश्येत्=देखें, (तम्)=उसको, (हन्याः)=मार दें अथवा छिन्न-भिन्न कर दें ॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मंत्र में उपमालङ्कार है। राज्य के सेवक, जैसे कोई घायल भय से युक्त श्येन पक्षी इधर से उधर जाता है, उसी प्रकार सूर्य के द्वारा छिन्न-भिन्न किया हुआ जो मेघ इधर-उधर गिरता हुआ जाता है, वह अपने शरीर नाम के जल से लोक-लोकान्तर के मध्य में अनेक नदियों और नाड़ियों को उन्नत करता है। यहाँ “नवनवतिम्” इस पद से संख्या से रहित या अनेक अर्थ में उपलक्षण होने से लिया है। जैसे अनेक अर्थ में मेघ का सूर्य से भिन्न कोई निमित्त नहीं है, जैसे अन्धकार में प्राणियों में भय उत्पन्न होता है, वैसे ही मेघ के समीप विद्युत् आदि की गर्जना से भय उत्पन्न होता है। उसका निवारक भी सूर्य ही है। वैसे ही समस्त लोकों के प्रकाशन और आकर्षण आदि व्यवहार में है, वैसे ही शत्रुओं को जीतें ॥१४॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (इन्द्र) शत्रुओं के दलों का विदारण करने वाले योद्धा! (यस्य) जिसके (शत्रून्) शत्रुओं को (जघ्नुषः) समीप से मारनेवाले (ते) आपके, (प्रभावः) प्रभाव से (अहेः) मेघ के (विद्युत्) तड़ित विद्युत् से (गर्जनादि) गर्जन आदि के (विशेषात्) विशेष शब्द (प्राणिनः) प्राणियों को (यत्) जिस (भीः) भय को (अगच्छत्) प्राप्त कराते हैं। (विद्वान्) विद्वान् (मनुष्यः) मनुष्य (तस्य) उस (मेघस्य) मेघ के (यातारम्) देश देशान्तर में पहुंचानेवाले (सूर्य्यात्) सूर्य से (अन्यम्) भिन्न (अपि) किसी को भी (अर्थम्) किसी प्रयोजन से (न) न (पश्येयुः) देखें। (सः) उस (सूर्येण) सूर्य के द्वारा (हतः) मारा गया अथवा छिन्न-भिन्न किया हुआ (मेघः) मेघ (भीतः) भयभीत (श्येनात्) पक्षी के (न) समान (कपोतः) कबूतर पक्षी को (भूमौ) भूमि पर (पतित्वा) गिराकर (नवनवतिः) विशेष (नदीः) नदियों (वा) अथवा (नाडीः) नाड़ियों के के द्वारा (स्रवन्तीः) जाती हुई नदियां या नाड़ियां (पूर्णाः) पूरा (करोति) करती हैं। (यत्) जिस धन को (यस्मात्) इस कारण से (सूर्यः) सूर्य (स्वकीयैः) अपने (प्रकाशाकर्षण) प्रकाश और आकर्षण से, व (छेदनादिगुणैः) छेदन आदि गुणों के द्वारा (महान्) महान् (वर्त्तते) होता है, (तत्) उससे (तस्मात्) इसलिये (रजांसि) सब लोकों से (अतरः) पार हो जाता है। (सर्वांन्) सब (लोकान्) लोकों के (संतरत्) पार कराने वाले के (इव) समान (अस्ति) है। (सः) वह (त्वम्) आप (हृदि) हृदय में (यम्) जिस (शत्रुम्) शत्रु को (अपश्यः) देखें, (तम्) उसको (हन्याः) मार दें अथवा छिन्न-भिन्न कर दें ॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (अहेः) मेघस्य (यातारम्) देशान्तरे प्रापयितारम् (कम्) सूर्यादन्यम् (अपश्यः) पश्येत्। अत्र लिङर्थे लङ्। (इन्द्र) शत्रुदलविदारक योद्धः (हृदि) हृदये (यत्) धनम् (ते) तव (जघ्नुषः) हन्तुः सकाशात् (भीः) भयम् (अगच्छत्) गच्छति प्राप्नोति। अत्र सर्वत्र वर्त्तमाने लङ्। (नव) संख्यार्थे (च) पुनरर्थे (स्रवन्तीः) गमनं कुर्वन्तीर्नदीर्नाड़ीर्वा। स्रवन्त्य इति नदीनामसु पठितम्। निघं० १।१३। स्रुधातोर्गत्यर्थत्वाद्रुधिरप्राणगमनमार्गा जीवनहेतवो नाड्योपि गृह्यन्ते। (श्येनः) पक्षी (न) इव (भीतः) भयं प्राप्तः (अतरः) तरति (रजांसि) सर्वाँल्लोकान् लोकारजांस्युच्यंते। निरु० ४।१९। ॥१४॥
विषयः- पुनस्तयोः परस्परं किं भवतीत्युपदिश्यते।
अन्वयः- हे इन्द्र योद्धर्यस्य शत्रून् जघ्नुषस्ते तव प्रभावोऽहेर्मेघस्य विद्युद्गर्जनादिविशेषात् प्राणिनो यद्याभीरगच्छत् प्राप्नोति विद्वान् मनुष्यस्तस्य मेघस्य यातारं देशांतरे प्रापयितारं सूर्य्यादन्यं कमप्यर्थं न पश्येयुः। स सूर्येण हतो मेघो भीतो नेव श्येनादिव कपोतः भूमौ पतित्वा नवनवतिर्नदीर्नाडीर्वा स्रवंतीः पूर्णाः करोति यद्यस्मात्सूर्यः स्वकीयैः प्रकाशाकर्षणछेदनादिगुणैर्महान्वर्त्तते तत्तस्माद्रजांस्यतरः सर्वांल्लोकान् संतरतीवास्ति स त्वं हृदि यं शत्रुमपश्यः पश्येस्तं हन्याः ॥१४॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। राजभृत्या वीरा यथा केनचित् प्रहृतो भययुक्तः श्येनः पक्षी इतस्ततो गच्छति तथैव सूर्येण हत आकर्षितश्च यो मेघ इतस्ततः पतन् गच्छति स स्वशरीराख्येन जलेन लोकलोकान्तरस्य मध्येऽनेका नद्यो नाड्यश्च पिपर्त्ति। अत्र नवनवतिमितिपदमसंख्यातार्थेऽस्त्यु पलक्षणत्वान्नह्येतस्य मेघस्य सूर्याद्भिन्नं किमपि निमित्तमस्ति यथाऽन्धकारे प्राणिनां भयं जायते तथा मेघस्य सकाशाद्विद्युद्गर्जनादिभिश्च भयं जायते तन्निवारकोपि सूर्य एव तथा सर्वलोकानां प्रकाशाकर्षणादिभिर्व्यवहारेतुरस्ति तथैव शत्रून् विजयेरन् ॥१४॥
विषय
वृत्रहनन का रहस्य ।
भावार्थ
हे (इन्द्र) सूर्य के समान तेजस्विन्! शत्रुदल के नाश करने वाले राजन्! (यत्) यदि (जघ्नुषः ते) शत्रु पर प्रहार करते हुए तुझे (भीः) भय (अगच्छत्) व्याप जाय तो (अहेः) मेघ के समान शत्रु पर (यातारम्) आक्रमण करने वाले (कम्) किसको तू (अपश्यः) देखता है? (श्येनः न) जिस प्रकार बाज़ (भीतः) डरकर (नव च नवतिं च) निन्यानवे अर्थात् असंख्य (स्रवन्तीः) नदियों को (रजांसि) अनेक लोकों को (अतरः) पार कर जाता है उसी प्रकार यदि तू भय करे तो तू भी सैकड़ों नदियों और जनपदों को छोड़ भागे। इसलिए निर्भय होकर शत्रु को मार। जब वीर पुरुष को भय व्यापता है तो वह मैदान छोड़कर बुरी तरह से भागता है। पर प्रबल वीर के सिवाय शत्रु पर आक्रमण भी कौन करेगा यह सोचकर वह धैर्य से युद्ध करे, अधीर न हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
हिरण्यस्तूप आङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ त्रिष्टुभः । पञ्चदशर्चं सूक्तम् ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसा एखाद्याकडून त्रस्त श्येन पक्षी इतस्ततः उडत असतो तसेच सूर्याद्वारे हनन, आकर्षण इत्यादी क्रियांमुळे मेघ ठिकठिकाणी नद्या, नाले पूर्ण भरत असतो. मेघाच्या उत्पत्तीचे सूर्यापेक्षा वेगळे निमित्त नाही. जसे अंधःकाराचे प्राण्यांना भय वाटते तसेच मेघाच्या विद्युत गर्जनेमुळे भय वाटते. ते भय दूर करणाराही सूर्यच आहे. तो सर्व गोलांच्या व्यवहारांना आपला प्रकाश व आकर्षण इत्यादी गुणांमुळे कार्यान्वित करणारा आहे, तसे राजसेनेच्या वीरपुरुषांनी दुष्ट शत्रूंना जिंकावे.
टिप्पणी
या मंत्रात (नवनवतिम्) या संख्येचे उपलक्षण असल्यामुळे पद असंख्यात अर्थातच आहे. ॥ १४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, who ever sees anyone else other than you as the killer of Vrtra, since in every heart it is your fear, the victor’s fear, that prevails? And like a victorious hawk not-afraid you shine and rule over regions of the world and feed nine and ninety streams of water that flow and sustain life.
Subject of the mantra
Then what happens between the both of them? This subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (indra)=warriors who tear apart enemy troop, (yasya)=whose, (śatrūn)=to enemies, (jaghnuṣaḥ) =killing at close quarters, (te)=your, (prabhāvaḥ)=by affect, (aheḥ) =of the cloud, (vidyut)=by the lightning, (garjanādi)=of thunder etc. (viśeṣāt)=special words, (prāṇinaḥ) prāṇiyoṃ ko (yat)jisa (bhīḥ) bhaya ko (agacchat)=obtain, (vidvān)=scholar, (manuṣyaḥ)= human being, (tasya)=that, (meghasya) =of the cloud, (yātāram)=delivering to different places, (sūryyāt)=from Sun, (anyam)=different, (api)=to anybody, (artham)=by any purpose, (na)=not, (paśyeyuḥ) =see, (saḥ)=that, (sūryeṇa)=by that Sun, (hataḥ) killed or shattered, (meghaḥ)=cloud, (bhītaḥ)=afraid,(śyenāt) =of the bird, (na)=like, (kapotaḥ)=to pigeon, (bhūmau)= on the earth, (patitvā)=by dropping, (navanavatiḥ)=special, (nadīḥ) =rivers, (vā)=or, (nāḍīḥ)=by the nerves, (sravantīḥ)=flowing rivers or nerves, (pūrṇāḥ)=complete, (karoti)=make, (yat)=to which wealth, (yasmāt)=due to this reason, (sūryaḥ)=Sun, (svakīyaiḥ)=it’s, (prakāśākarṣaṇa)=with light and charm, [va]=and, (chedanādiguṇaiḥ)=by th quality of piercing etc. (mahān)=great, (varttate)=becomes, (tat)=by that, (tasmāt)=therefore, (rajāṃsi)=from all worlds, (ataraḥ)=goes across, (sarvāṃn)=all, (lokān)=in worlds, (saṃtarat)=one who gets the crossing possible, (iva)=like, (asti)=is, (saḥ)==that,(tvam)=you, (hṛdi)=in the heart, (yam)=which,(śatrum)=to enemy, (apaśyaḥ)=should see, (tam)=to that, (hanyāḥ)= must kill or shatter.
English Translation (K.K.V.)
O Warrior who has torn apart the enemy's armies! The special words of thunder, etc., from the lightning of a cloud, due to your influence, which kills enemies from close range, give the fear to the living beings. A learned man should not look at anyone for any purpose other than the Sun that takes that cloud to the different places. The clouds that were killed or dissipated by that Sun, like a frightened bird, drops the pigeon to the ground and completes the rivers or nerves passing through special rivers or nerves. The wealth that the Sun by its light and attractiveness and by quality of piercing etc., for this reason, makes it great, that is why it crosses all the worlds. He is like the one who leads you across all the worlds. Whatever enemy you see in your heart, must kill or shatter it.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is simile as a figurative in this mantra. The servants of the kingdom, as a wounded bird with fear flies away from here and there, so the cloud, which is torn apart here and there by the Sun, falls here and there, in the midst of the world with the water of his body. It upgrades many rivers and streams. Here the term “navanavatim” has been taken to mean without number or having many numbers. Just as in many ways the cloud has no other instrumental cause than the Sun, just as fear arises in the darkness of living beings, similarly the roar of electricity etc. near the cloud generates fear. Its deterrent is also the Sun. In the same way, the illumination and attraction of all the worlds are in the activities, in the same way conquer the enemies.
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