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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 36 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 36/ मन्त्र 17
    ऋषिः - कण्वो घौरः देवता - अग्निः छन्दः - विराडुपरिष्टाद् बृहती स्वरः - मध्यमः

    अ॒ग्निर्व॑व्ने सु॒वीर्य॑म॒ग्निः कण्वा॑य॒ सौभ॑गम् । अ॒ग्निः प्राव॑न्मि॒त्रोत मेध्या॑तिथिम॒ग्निः सा॒ता उ॑पस्तु॒तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निः । व॒व्ने॒ । सु॒ऽवीर्य॑म् । अ॒ग्निः । कण्वा॑य । सौभ॑गम् । अ॒ग्निः । प्र । आ॒व॒त् । मि॒त्रा । उ॒त । मेध्य॑ऽअतिथिम् । अ॒ग्निः । सा॒तौ । उ॒प॒ऽस्तु॒तम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निर्वव्ने सुवीर्यमग्निः कण्वाय सौभगम् । अग्निः प्रावन्मित्रोत मेध्यातिथिमग्निः साता उपस्तुतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निः । वव्ने । सुवीर्यम् । अग्निः । कण्वाय । सौभगम् । अग्निः । प्र । आवत् । मित्रा । उत । मेध्यअतिथिम् । अग्निः । सातौ । उपस्तुतम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 36; मन्त्र » 17
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 11; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (अग्निः) विद्युदिव सभाध्यक्षो राजा (वव्ने) याचते। वनु याचन इत्यस्माल्लडर्थे लिट् वन सम्भक्तावित्यस्माद्वा छन्दसो वर्णलोपो वा इत्यनेनोपधालोपः। (सुवीर्यम्) शोभनं शरीरात्मपराक्रमलक्षणं बलम् (अग्निः) उत्तमैश्वर्यप्रदः (कण्वाय) धर्मात्मने मेधाविने शिल्पिने (सौभगम्) शोभना भगा ऐश्वर्य योगा यस्य तस्य भावस्तम् (अग्निः) सर्वमित्रः (प्र) प्रकृष्टार्थे (आवत्) रक्षति प्रीणाति (मित्रा) मित्राणि। अत्र शेर्लोपः। (उत) अपि (मेध्यातिथिम्) मेध्याः संगमनीयाः पवित्रा अतिथयो यस्य तम् (अग्निः) सर्वाभिरक्षकः (सातौ) संभजन्ते धनानि यस्मिन्नयुद्धे शिल्पकर्मणि वा तस्मिन् (उपस्तुतम्) य उपगतैर्गुणैः स्तूयते तम् ॥१७॥

    अन्वयः

    पुनस्तेषां गुणा अग्नि दृष्टान्तेनोपदिश्यंते।

    पदार्थः

    यो विद्वान् राजाग्निरिव सातौ संग्रामे उपस्तुतं सुवीर्यमग्निरिव कण्वाय सौभगं वव्नेग्निरिव मित्राः सुहृदः प्रावदग्निरिवोताग्निरिव मेध्यातिथिं च सेवेत स एव राजा भवितुमर्हेत् ॥१७॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथायं भौतिकोग्निर्विद्वद्भिः सुसेवितः सन् तेभ्यो बलपराक्रमान् सौभाग्यं च प्रदाय शिल्पविद्याप्रवीणं तन्मित्राणि च सर्वदा रक्षति। तथैव प्रजा सेनास्थैर्भद्रपुरुषैर्याचितोयं सभाध्यक्षो राजा तेभ्यो बलपराक्रमोत्साहानैश्वर्य्यशक्तिं च दत्वा युद्धं विद्याप्रवीणान् तन्मित्राणि च सर्वथा पालयेत् ॥१७॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर भी इन सभाध्यक्षादि राजपुरुषों के गुण अग्नि के दृष्टान्त से अगले मंत्र में कहे हैं।

    पदार्थ

    जो विद्वान् (अग्निः) भौतिक अग्नि के समान (सातौ) युद्ध में (उपस्तुतम्) उपगत स्तुति के योग्य (सुवीर्य्यम्) अच्छे प्रकार शरीर और आत्मा के बल पराक्रम (अग्निः) विद्युत् के सदृश (कण्वाय) उसी बुद्धिमान् के लिये (सौभगम्) अच्छे ऐश्वर्य्य को (वव्ने) किसी ने याचित किया हुआ देता है (अग्निः) पावक के तुल्य (मित्रा) मित्रों को (आवत्) पालन करता (उत) और (अग्निः) जाठराग्निवत् (उपस्तुतम्) शुभ गुणों से स्तुति करने योग्य (मेध्यातिथिम्) कारीगर विद्वान् को सेवे वही पुरुष राजा होने को योग्य होता है ॥१७॥

    भावार्थ

    इस मंत्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे यह भौतिक अग्नि विद्वानों का ग्रहण किया हुआ उनके लिये बल पराक्रम और सौभाग्य को देकर शिल्पविद्या में प्रवीण और उसके मित्रों की सदा रक्षा करता है वैसे ही प्रजा और सेना के भद्रपुरुषों से प्रार्थना किया हुआ यह सभाध्यक्ष राजा उनके लिये बल पराक्रम उत्साह और ऐश्वर्य्य का सामर्थ्य देकर युद्ध विद्या में प्रवीण और उनके मित्रों को सब प्रकार पाले ॥१७॥

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    विषय

    फिर भी इन सभाध्यक्षादि राजपुरुषों के गुण अग्नि के दृष्टान्त से इस मन्त्र में कहे हैं।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    यः विद्वान् राजा अग्निः इव सातौ संग्रामे उपस्तुतं सुवीर्यम् अग्निः इव कण्वाय सौभगं वव्ने अग्निः इव मित्राः सुहृदः प्रावत् अग्निः इव उत अग्निः इव मेध्यातिथिं च सेवेत स एव राजा भवितुम् अर्हेत् ॥१७॥ 

    पदार्थ

     (यः)= जो, (विद्वान्)=विद्वान्,  (अग्निः) विद्युदिव सभाध्यक्षो राजा=विद्युत्  के समान सभाध्यक्ष राजा है,  (सातौ) संभजन्ते धनानि यस्मिन्नयुद्धे शिल्पकर्मणि वा तस्मिन्=जिस युद्ध में धनों या शिल्पकर्म से सेवा करते हैं,  (संग्रामे)=उस  युद्ध में, (उपस्तुतम्) य उपगतैर्गुणैः स्तूयते तम्=जो उस के गुणों को प्राप्त करके स्तुति करता है, (सुवीर्यम्) शोभनं शरीरात्मपराक्रमलक्षणं बलम्=सुन्दर शारीरिक आत्मा और पराक्रम के लक्षणवाला बल,  (अग्निः) उत्तमैश्वर्यप्रदः=उत्तम ऐश्वर्य प्रदान करने वाले के, (इव)=समान, (कण्वाय) धर्मात्मने मेधाविने शिल्पिने=धर्मात्मा, मेधावी और शिल्पी में, (सौभगम्) शोभना भगा ऐश्वर्य योगा यस्य तस्य भावस्तम्=जिसका सुन्दर ऐश्वर्य का योग है, उससे, (वव्ने) याचते=याचना करते हैं, (अग्निः) सर्वमित्रः=वह सर्व मित्र के, (इव)=समान, (मित्राः)=मित्र है, (सुहृदः)=सुहृद है, (प्र) प्रकृष्टार्थे=प्रकृष्ट रूप से, (आवत्) रक्षति प्रीणाति=रक्षा करता है, इसलिये (अग्निः) सर्वाभिरक्षकः=सर्व रक्षक कहलाने के, (इव)=समान, (उत) अपि=भी है, (अग्निः) विद्युदिव सभाध्यक्षो राजा=वह विद्युत् के समान सभाध्यक्ष राजा है, (मेध्यातिथिम्) मेध्याः संगमनीयाः पवित्रा अतिथयो यस्य तम्=मेधा के द्वारा संगमनीयाः पवित्रा अतिथयो यस्य तम्=जिसका मेधा के द्वारा पहुंचने योग्य पवित्र अतिथि है, (च)=और, (सेवेत)=उसकी सेवा करनी चाहिये। (सः)=वह, (एव)=ही, (राजा)=राजा, (भवितुम्)=होने के, (अर्हेत्)=सम्मान के योग्य है ॥१७॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मंत्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे यह भौतिक अग्नि विद्वानों के द्वारा परिश्रमपूर्वक सेवा किया हुआ है, उनके लिये बल पराक्रम और सौभाग्य को देकर शिल्पविद्या में प्रवीण और उनके मित्रों की सदा रक्षा करता है। वैसे ही प्रजा और सेना के भद्रपुरुषों से प्रार्थना किया हुआ, यह सभाध्यक्ष राजा उनके लिये बल, पराक्रम उत्साह और ऐश्वर्य्य की शक्ति देकर युद्ध विद्या में प्रवीण उनके मित्रों को सब प्रकार पाले ॥१७॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (यः) जो (विद्वान्) विद्वान्  (अग्निः) विद्युत्  के समान सभाध्यक्ष राजा है।  (सातौ) जिस युद्ध में धनों के द्वारा या शिल्पकर्म से सेवा करते हैं,  (संग्रामे) उस  युद्ध में (उपस्तुतम्) जो उस के गुणों को प्राप्त करके स्तुति करता है। (सुवीर्यम्) सुन्दर शारीरिक आत्मा और पराक्रम के लक्षणवाला बल [और]   (अग्निः) उत्तम ऐश्वर्य प्रदान करने वाले के (इव) समान और (कण्वाय) धर्मात्मा, मेधावी व शिल्पी में, (सौभगम्) जिसका सुन्दर ऐश्वर्य का योग है, उससे (वव्ने) याचना करते हैं। (अग्निः) वह सर्व मित्र के (इव) समान और (सुहृदः) सुहृद है। (प्र) प्रकृष्ट रूप से (आवत्) रक्षा करता है, इसलिये (अग्निः) सर्व रक्षक कहलाने के (इव) समान (उत) भी है। (अग्निः) वह विद्युत् के समान सभाध्यक्ष राजा है। (मेध्यातिथिम्) जिसका मेधा के द्वारा पहुंचने योग्य पवित्र अतिथि है (च) और (सेवेत) उसकी सेवा करनी चाहिये। (सः) वह (एव) ही (राजा) राजा (भवितुम्) होने के (अर्हेत्) सम्मान के योग्य है ॥१७॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (अग्निः) विद्युदिव सभाध्यक्षो राजा (वव्ने) याचते। वनु याचन इत्यस्माल्लडर्थे लिट् वन सम्भक्तावित्यस्माद्वा छन्दसो वर्णलोपो वा इत्यनेनोपधालोपः। (सुवीर्यम्) शोभनं शरीरात्मपराक्रमलक्षणं बलम् (अग्निः) उत्तमैश्वर्यप्रदः (कण्वाय) धर्मात्मने मेधाविने शिल्पिने (सौभगम्) शोभना भगा ऐश्वर्य योगा यस्य तस्य भावस्तम् (अग्निः) सर्वमित्रः (प्र) प्रकृष्टार्थे (आवत्) रक्षति प्रीणाति (मित्रा) मित्राणि। अत्र शेर्लोपः। (उत) अपि (मेध्यातिथिम्) मेध्याः संगमनीयाः पवित्रा अतिथयो यस्य तम् (अग्निः) सर्वाभिरक्षकः (सातौ) संभजन्ते धनानि यस्मिन्नयुद्धे शिल्पकर्मणि वा तस्मिन् (उपस्तुतम्) य उपगतैर्गुणैः स्तूयते तम् ॥१७॥ 
    विषयः- पुनस्तेषां गुणा अग्नि दृष्टान्तेनोपदिश्यंते।

    अन्वयः- यो विद्वान् राजाग्निरिव सातौ संग्रामे उपस्तुतं सुवीर्यमग्निरिव कण्वाय सौभगं वव्नेग्निरिव मित्राः सुहृदः प्रावदग्निरिवोताग्निरिव मेध्यातिथिं च सेवेत स एव राजा भवितुमर्हेत् ॥१७॥ 

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथायं भौतिकोग्निर्विद्वद्भिः सुसेवितः सन् तेभ्यो बलपराक्रमान् सौभाग्यं च प्रदाय शिल्पविद्याप्रवीणं तन्मित्राणि च सर्वदा रक्षति। तथैव प्रजा सेनास्थैर्भद्रपुरुषैर्याचितोयं सभाध्यक्षो राजा तेभ्यो बलपराक्रमोत्साहानैश्वर्य्यशक्तिं च दत्वा युद्धं विद्याप्रवीणान् तन्मित्राणि च सर्वथा पालयेत् ॥१७॥

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    विषय

    सुवीर्य - सौभग - सुरक्षण

    पदार्थ

    १. (अग्निः) - वह अग्नणी प्रभु (सुवीर्य वव्ने) - उत्तम शक्ति के लिए याचना किया जाता है, अर्थात् उस प्रभु से उत्तम शक्ति की याचना करते हैं । शक्ति ही तो नीरोगता, निर्मलता व अन्य सद्गुणों की आधार है । 
    २. (अग्निः) - वह अग्नणी प्रभु ही (कण्वाय) - मेधावी पुरुष के लिए (सौभगम्) - सौभाग्य को (वव्ने) - देता है । सब सौभाग्य ज्ञानमूलक हैं । हम ज्ञानपूर्वक कार्य करते हैं तो वे हमारे सौभाग्य के बढ़ानेवाले होते हैं । नासमझी से किये गये कार्य ही दौर्भाग्य को पैदा किया करते हैं । 
    ३. (अग्निः) - वे अग्रणी प्रभु (मित्रा) - परस्पर स्नेह से रहनेवालों का (प्रावत्) - रक्षण करते हैं । इसके विपरीत 'मिथो विघ्नाना उप यन्तु मृत्युम्' परस्पर द्वेष करनेवाले मरा ही करते हैं, अर्थात् प्रभु की रक्षा का पात्र वह होता है जो निरन्तर पवित्र कर्मों की ओर चलता है । 
    ४. (अग्निः) - वह अग्रणी प्रभु (उपस्तुतम्) - [उपगतैः गुणैः स्तूयते, दया०] प्राप्त गुणों के कारण प्रशंसित व्यक्ति को (सातौ) - धनादि की प्राप्ति में (प्रावत्) - रक्षित करता है, अर्थात् उपस्तुत को ही धन - प्राप्ति के योग्य बनाता है । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु - कृपा से हमें 'सुवीर्य - सौभग व सुरक्षण' प्राप्त हो । हम 'कण्व - मित्र मेध्यातिथि व उपस्तुत' बनें । 
     

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    विषय

    प्रजाभक्षकों का दमन ।

    भावार्थ

    (अग्निः) अग्रणी राजा (कण्वाय) विद्वान् जन को (सुवीर्यम्) उत्तम बल और (सौभगम्) उत्तम ऐश्वर्य (वव्ने) प्रदान करे। (अग्निः) ज्ञानवान् तेजस्वी राजा(मित्रा) मित्र जनों को, (उत) और (मेध्यातिथिम् ) पूज्य अतिथि को और (उपस्तुतम्) गुणों से प्रशंसित, विद्वान् पुरुष को (साता) युद्ध शिल्प आदि कार्य के अवसर पर (प्र अवत्) उनकी रक्षा करे और उनके पास जाकर उनका सत्संग करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    घौर ऋषिः । अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१, १२ भुरिगनुष्टुप् । २ निचृत्सतः पंक्तिः। ४ निचृत्पंक्तिः । १०, १४ निचृद्विष्टारपंक्तिः । १८ विष्टारपंक्तिः । २० सतः पंक्तिः। ३, ११ निचृत्पथ्या बृहती । ५, १६ निचृदबृहती। ६ भुरिग् बृहती । ७ बृहती । ८ स्वराड् बृहती । ९ निचृदुपरिष्टाद्वृहती। १३ उपरिष्टाद्बृहती । १५ विराट् पथ्याबृहती । १७ विराडुपरिष्टाद्बृहती। १९ पथ्या बृहती ॥ विंशत्पृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा हा भौतिक अग्नी विद्वानांनी ग्रहण केलेला असतो व त्यांच्यासाठी बल, पराक्रम व सौभाग्य देणारा असतो व शिल्पविद्येत प्रवीण असलेल्या त्याच्या मित्रांचे सदैव रक्षण करतो, तसेच प्रजा व सेनेच्या सज्जन माणसांनी प्रार्थित केलेल्या या सभाध्यक्ष राजाने त्यांच्यासाठी बल, पराक्रम, उत्साह व ऐश्वर्याचे सामर्थ्य द्यावे आणि युद्धविद्येत प्रवीण होऊन त्यांच्या मित्रांचे सर्व प्रकारे पालन करावे. ॥ १७ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Agni is mighty power for one who cares and prays for it. It is great good fortune for the man of knowledge. It is a great friend and protector in battle, and provides all help and encouragement to the man who is loved and admired by his colleagues and disciples.

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    Subject of the mantra

    Nevertheless, the virtues of these chairmen of the assembly have been elucidated in this mantra by the example of fire.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (yaḥ)=That, (vidvān)=scholar, (agniḥ)= like thunder, the chairman is the king, (sātau)= In the war in which they serve by money or by craftsmanship, (saṃgrāme)= In that war, (upastutam)= One who praises him by acquiring his qualities, (suvīryam)=a graceful physical soul and a force characterized by might, [aur]=and, (agniḥ)= provider of excellent majesty, (iva)=like, (kaṇvāya)= In virtuous, meritorious and crafty, (saubhagam)=who has consequence of beautiful majesty, (vavne)=crave, (agniḥ)= bestower of excellent majesty,(iva)=like, [aura]=and, (suhṛdaḥ)= is cordial, (pra)= as distinguished, (āvat)= protects, [isaliye]= therefore, (agniḥ)= to be called all protector, (iva)=like, (uta)=also, (agniḥ)= He is the chairman and king like Vidyut (thunder), (medhyātithim)= One whose holy guest is accessible by intellect, (ca)=and, (seveta)= He should be served, [usakī]=his, (saḥ)=He, (eva)=only, (rājā)=king, (bhavitum)= to be, (arhet)= deserves the honour.

    English Translation (K.K.V.)

    The scholar, who is like the thunder, is the king of the council. In the war in which they serve by money or by craftsmanship, in the war who praises him by attaining his merits, graceful bodily spirit and a force characterized by might and as the one who bestows best majesties and in virtuous, meritorious and craftsman, who has the combination of beautiful majesties, they pray to him. He is like friend of all and cordial. Protects in distinguished way, therefore is also equal to being called protector of all. He is the chairman and king like Vidyut (Thunder). He is one whose holy guest is accessible by intellect and he should be served. He deserves the honour of being the king.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is vocal latent simile as a figurative in this mantra. As this material fire has been served diligently by the scholars, by giving strength, might and good fortune for them, he is proficient in craftsmanship and always protects his friends. In the same way, praying to the people and the gentlemen of the army, this president, by giving them the power of strength, mighty enthusiasm and opulence, must nurture their friends proficient in warfare in all respects.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued-

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    That learned man who is like electricity in the battle, who prays for the admirable strength of the body and the soul and who gives prosperity to a highly intelligent righteous artist, who protects his friends and who like the fire serves the host of the holy guests (Sanyasis etc. ) deserves to be a King.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    ( अग्नि: ) विद्युदिव सभाध्यक्षो राजा = King as President of the Assembly who is full of splendor like electricity. ( वच्ने) याचते वनु याचने इत्यस्मात् लडर्थे लिट् वन संभक्तौ इत्यस्माद् छान्दसो वर्णलोपो वेत्यनेनोपधालोपः ।। = Begs or requests. ( सातो) संभजन्ते धनानि यस्मिन् युद्धे शिल्पकर्मणि वा = In the battle or industrial or artistic work.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As this material fire when properly utilized by the learned, gives them strength and prosperity and protects an expert artist and his friends; in the same manner, the President of the Assembly, when requested by the men of army and others gives them strength and encouragement and wealth should preserve experts in the science of war and their friends.

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