ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 50/ मन्त्र 7
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः
देवता - सूर्यः
छन्दः - विराड्गायत्री
स्वरः - षड्जः
वि द्यामे॑षि॒ रज॑स्पृ॒थ्वहा॒ मिमा॑नो अ॒क्तुभिः॑ । पश्य॒ञ्जन्मा॑नि सूर्य ॥
स्वर सहित पद पाठवि । द्याम् । ए॒षि॒ । रजः॑ । पृ॒थु । अहा॑ । मिमा॑नः । अ॒क्तुऽभिः॑ । पश्य॑न् । जन्मा॑नि । सू॒र्य॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वि द्यामेषि रजस्पृथ्वहा मिमानो अक्तुभिः । पश्यञ्जन्मानि सूर्य ॥
स्वर रहित पद पाठवि । द्याम् । एषि । रजः । पृथु । अहा । मिमानः । अक्तुभिः । पश्यन् । जन्मानि । सूर्य॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 50; मन्त्र » 7
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 8; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 8; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(वि) विशेषार्थे (द्याम्) प्रकाशम् (एषि) (रजः) लोकसमूहम् (पृथु) विस्तीर्णम् (अहा) अहानि दिनानि (मिमानः) प्रक्षिपन् विभजन् (अक्तुभिः) रात्रिभिः (पश्यन्) समीक्षमाणः (जन्मानि) पूर्वापरवर्त्तमानानि (सूर्य्य) चराऽचरात्मन् ॥७॥
अन्वयः
पुनः स किं करोतीत्युपदिश्यते।
पदार्थः
हे सूर्य्य जगदीश्वर ! त्वं यथा सविताऽक्तुभिः पृथुरजोऽहा मिमानः सन् पृथुरजः प्राप्य व्यवस्थापयति तथा सर्वतः पश्यन् सर्वेषां जन्मानि व्येषि ॥७॥
भावार्थः
येन सूर्यादि जगद्रच्यते सर्वेषां जीवानां पापपुण्यानि कर्म्माणि दृष्ट्वा यथायोग्यं तत्फलानि प्रदीयन्ते स एव सर्वेषां सत्यो न्यायधीशो राजास्तीति सर्वैर्मनुष्यैर्मन्तव्यम् ॥७॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह क्या करता है, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।
पदार्थ
हे (सूर्य्य) चराचराऽत्मन् परमेश्वर ! आप, जैसे सूर्य्य लोक (अक्तुभिः) प्रसिद्ध रात्रियों से (पृथु) विस्तारयुक्त (रजः) लोकसमूह और (अहा) दिनों को (विमानः) निर्माण करता हुआ (पृथु) बड़े-२ (रजः) लोकों को प्राप्त होके नियम व्यवस्था करता है वैसे हम लोगों के (जन्मानि) पहिले पिछले और वर्त्तमान जन्मों को (पश्यन्) देखते हुए (व्येषि) अनेक प्रकार से जानने और प्राप्त होनेवाले हो ॥७॥
भावार्थ
जिसने सूर्य्य आदि लोक बनाये और सब जीवों के पाप-पुण्य को देख के ठीक-२ उनके सुख-दुःख रूप फलों को देता है वही सबका सत्य-२ न्यायाकारी राजा हैं ऐसा सब मनुष्य जानें ॥७॥
विषय
दिन - रात्रि का निर्माण
पदार्थ
१. हे (सूर्य) = आकाश में निरन्तर सरण करनेवाले आदित्य ! तू (द्याम्) = इस विस्तृत द्युलोक में (वि एषि) = विशेष रूप से प्राप्त होता है । द्युलोक में सूर्य का उदय होता है और वह सूर्य इस द्युलोक में आकर (पृथु रजः) = इस विस्तृत अन्तरिक्षलोक में आगे - और - आगे बढ़ता है । २. इस गति के द्वारा (अक्तुभिः) = रात्रियों के साथ (अहा) = दिनों को (मिमानः) = यह निर्मित करता है । ३. इस प्रकार दिन व रात्रि के निर्माण से यह सूर्य (जन्मानि) = सब जन्म लेनेवाले प्राणियों को (पश्यन्) = देखता है, अर्थात् सब प्राणियों का पालन करता है । यदि केवल दिन - ही - दिन होता तो मनुष्य कार्य करते - करते श्रान्त होकर समाप्त हो जाता और रात्रि - ही - रात्रि होती तो मनुष्य को आराम करते - करते जंग ही खा जाता । एवं, यह दिन - रात्रि का चक्र मनुष्य का सुन्दरता से पालन कर रहा है । इस क्रम के द्वारा सूर्य सब प्राणियों का ध्यान [रक्षण] करता है ।
भावार्थ
भावार्थ - सूर्य उदित होकर अन्तरिक्ष में आगे बढ़ता हुआ दिन - रात्रि के निर्माण द्वारा हमारा पालन करता है ।
विषय
स्वयंवरण, सर्वप्रकाशक परमेश्वर की उपासना ।
भावार्थ
हे (सूर्य) तेजोमय ! सबके उत्पादक सञ्चालक ! परमेश्वर ! जिस प्रकार सूर्य (अक्तुभिः सह अहा ) रात्रियों के साथ साथ दिनों को भी उत्पन्न करता है और (पृथुरजः ) बड़े पृथ्वी लोक और ( द्याम् ) अन्तरिक्ष को व्याप्त होता है और (जन्मानि पश्यन्) समस्त जन्तुओं को देखता जाता है उसी प्रकार हे परमेश्वर ! तू भी (पृथुरजः) विशाल लोकों और ( द्याम् ) आकाश को ( वि एषि ) व्याप्त हो । और ( जन्मानि ) समस्त जन्मों को ( पश्यन् ) देखता है और सर्वत्र व्यापक है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१–१३ प्रस्कण्वः काण्व ऋषिः । सूर्यो देवता ॥ छन्दः—१, ६ निचृद्गायत्री । २, ४, ८,९ पिपीलिकामध्या निचृद्गायत्री । ३ गायत्री । ५ यवमध्या विराङ्गायत्री । विराङ्गायत्री । १०, ११ निचृदनुष्टुप् । १२,१३ अनुष्टुप् ।
विषय
फिर वह परमेश्वर क्या करता है, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे सूर्य्य जगदीश्वर ! त्वं यथा सविता अक्तुभिः पृथुरजः अहा मिमानः सन् पृथुरजः प्राप्य व्यवस्थापयति तथा सर्वतः पश्यन् सर्वेषां जन्मानि वि एषि ॥७॥
पदार्थ
हे (सूर्य्य) चराऽचरात्मन्=चर और अचर के स्वामी (जगदीश्वरः)=परमेश्नर! (त्वम्)=तुम, (यथा)=जैसे, (सविता) =सूर्य, (अक्तुभिः) रात्रिभिः=रात्रि के द्वारा, (पृथु) विस्तीर्णम्=विस्तार में, [द्यु लोक में] (रजः) लोकसमूहम्= लोकों के समूह के, (अहा) अहानि दिनानि=दिनों, (मिमानः) प्रक्षिपन् विभजन्= विभाग, (सन्)=करते हुए, (पृथु) विस्तीर्णम् = विस्तृत, (रजः) लोकसमूहम्= लोकों के समूह को, (प्राप्य)=प्राप्त करके, (व्यवस्थापयति)= पुनर्निर्माण करते हो, (तथा)=वैसे ही, (सर्वतः)=हर ओर से, (पश्यन्) समीक्षमाणः= समीक्षा करते हुए, (सर्वेषाम्)=सबके, (जन्मानि) पूर्वापरवर्त्तमानानि= पूर्व, अगले और वर्त्तमान जन्मों को, (वि) विशेषार्थे=विशेष रूप से, (एषि) प्राप्नोषि=प्राप्त कराते हो ॥७॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
जिसने सूर्य्य आदि लोक बनाये और सब जीवों के पाप-पुण्य को देख करके उनके उचित रूप से विशेष रूप से फलों को देता है, वही सबका सत्य न्यायाकारी और राजा है, ऐसा सब मनुष्यों को जानना चाहिए ॥७॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (सूर्य्य) चर और अचर के स्वामी (जगदीश्वरः) परमेश्नर! (यथा) जैसे (त्वम्) तुम (सविता) सूर्य (अक्तुभिः) रात्रि के द्वारा (पृथु) विस्तृत (रजः) लोकों के समूह को, (अहा) दिनों में (मिमानः) विभाजित (सन्) करते हुए (पृथु) विस्तृत [द्युलोक में] (रजः) लोकों के समूह को (प्राप्य) प्राप्त करके (व्यवस्थापयति) पुनर्निर्माण करते हो, (तथा) वैसे ही (सर्वतः) हर ओर से (पश्यन्) समीक्षा करते हुए, (सर्वेषाम्) सबके (जन्मानि) पूर्व, अगले और वर्त्तमान जन्मों को, (वि) विशेष रूप से (एषि) प्राप्त कराते हो ॥७॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (वि) विशेषार्थे (द्याम्) प्रकाशम् (एषि) (रजः) लोकसमूहम् (पृथु) विस्तीर्णम् (अहा) अहानि दिनानि (मिमानः) प्रक्षिपन् विभजन् (अक्तुभिः) रात्रिभिः (पश्यन्) समीक्षमाणः (जन्मानि) पूर्वापरवर्त्तमानानि (सूर्य्य) चराऽचरात्मन् ॥७॥ विषयः- पुनः स किं करोतीत्युपदिश्यते। अन्वयः- हे सूर्य्य जगदीश्वर ! त्वं यथा सविताऽक्तुभिः पृथुरजोऽहा मिमानः सन् पृथुरजः प्राप्य व्यवस्थापयति तथा सर्वतः पश्यन् सर्वेषां जन्मानि व्येषि ॥७॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- येन सूर्यादि जगद्रच्यते सर्वेषां जीवानां पापपुण्यानि कर्म्माणि दृष्ट्वा यथायोग्यं तत्फलानि प्रदीयन्ते स एव सर्वेषां सत्यो न्यायधीशो राजास्तीति सर्वैर्मनुष्यैर्मन्तव्यम् ॥७॥
मराठी (1)
भावार्थ
ज्याने सूर्य इत्यादी गोल निर्माण केलेले आहेत व जीवांच्या पापपुण्याप्रमाणे यथायोग्य सुखदुःखरूपी फळ देतो तोच सर्वांचा खराखुरा न्यायी राजा आहे, हे माणसांनी जाणावे. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O sun, watching the species of various forms and traversing and measuring the wide worlds of existence by days and nights, you move to the regions of light and heaven. So may the Lord of Light Supreme, we pray, watch us, guard us and sustain in measure our life and actions through successive lives and births.
Subject of the mantra
Then what does that God do, this topic has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (sūryya) =Lord of movable and immovable world, (jagadīśvaraḥ)=God! (tvam) =you, (yathā) =like, (savitā) =Sun, (aktubhiḥ) =by the night, (pṛthu) =extensive, (rajaḥ) =to the group of worlds, (ahā) =in days, (mimānaḥ) =devision, (san) =do, (pṛthu) =extensive, [dyuloka meṃ] = heavenly world, (rajaḥ) =to the group of worlds, (prāpya)=attain, (vyavasthāpayati) =reconstruct, (tathā) =in the same way, (sarvataḥ) =from all sides, (paśyan)=while reviewing, (sarveṣām) =of all, (janmāni)=to past, present and future births, (vi) =especially (eṣi) =get obtained.
English Translation (K.K.V.)
O Lord of movable and immovable world God! As the Sun divides the worlds into days by night and receives and reconstructs the worlds in the vast sky, similarly, reviewing from all sides, You, especially get obtained all previous, next and present births.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
The one who created the Sun and other worlds and after seeing the merits and demerits of all the living beings gives their rewards appropriately, He is the true judge and king of all, this should be known by all human beings.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What does He (God) do is taught in the seventh Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O God Divine Sun the Universal Spirit pervading all, Thou illuminest the heaven and the middle region and the earth dividing days and nights like the sun. Thou seest the actions of all creatures and fully knowest about their births as Thou art Omniscient.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(रजः) लोकसमूहम् = Worlds. लोका रजांस्युच्यन्ते (निरुक्ते ४.३.१९) (सूर्य) चराचरात्मन् = The Universal Spirit pervading all. ( ममान:) प्रक्षिपन्-विभजन् = Throwing or dividing. ( मिञ्-प्रक्षेपणे स्वा० )
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
All men should know and believe that God who creates the sun and other objects of the world, is the proper giver of the fruits of the meritorious or sinful actions of all souls having seen them thoroughly and is the True and just Sovereign of all.
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