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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 51 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 51/ मन्त्र 2
    ऋषिः - सव्य आङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    अ॒भीम॑वन्वन्त्स्वभि॒ष्टिमू॒तयो॑ऽन्तरिक्ष॒प्रां तवि॑षीभि॒रावृ॑तम्। इन्द्रं॒ दक्षा॑स ऋ॒भवो॑ मद॒च्युतं॑ श॒तक्र॑तुं॒ जव॑नी सू॒नृतारु॑हत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि । ई॒म् । अ॒व॒न्व॒न् । सु॒ऽअ॒भि॒ष्टिम् । ऊ॒तयः॑ । अ॒न्त॒रि॒क्ष॒ऽप्राम् । तवि॑षीभिः । आऽवृ॑तम् । इन्द्र॑म् । दक्षा॑सः । ऋ॒भवः॑ । म॒द॒ऽच्युत॑म् । श॒तऽक्र॑तुम् । जव॑नी । सू॒नृता॑ । आ । अ॒रु॒ह॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभीमवन्वन्त्स्वभिष्टिमूतयोऽन्तरिक्षप्रां तविषीभिरावृतम्। इन्द्रं दक्षास ऋभवो मदच्युतं शतक्रतुं जवनी सूनृतारुहत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभि। ईम्। अवन्वन्। सुऽअभिष्टिम्। ऊतयः। अन्तरिक्षऽप्राम्। तविषीभिः। आऽवृतम्। इन्द्रम्। दक्षासः। ऋभवः। मदऽच्युतम्। शतऽक्रतुम्। जवनी। सूनृता। आ। अरुहत् ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 51; मन्त्र » 2
    अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 9; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे सेनेश ! यस्य तवोतयः प्रजा रक्षन्ति दक्षास ऋभवो यं स्वभिष्टिमन्तरिक्षप्राम्मदच्युतं शतक्रतुं तविषीभिरावृतमिन्द्रं त्वामभ्यवन्वन्नभ्यवन्ति जवनी सूनृताऽरुहत्तं वयमपि सततं रक्षेम ॥ २ ॥

    पदार्थः

    (अभि) आभिमुख्ये (ईम्) जलमन्नं पृथिवीं वा। ईमित्युदकनामसु पठितम्। (निघं०१.१२) पदनामसु पठितम्। (निघं०४.२) (अवन्वन्) अवन्ति रक्षणादिकं कुर्वन्ति । अत्राऽव धातोः विकरणव्यत्ययेन श्नुः। (स्वभिष्टिम्) शोभना अभिष्टा इष्टयो यस्मात्तम्। अत्र व्यत्ययेन ह्रस्वः। (ऊतयः) रक्षादयः (अन्तरिक्षप्राम्) स्वतेजसान्तरिक्षं प्राप्य प्राति पिपर्ति ताम् (तविषीभिः) बलाकर्षणादिगुणाढ्याभिः सेनाभिः (आवृतम्) संयुक्तम् (इन्द्रम्) सुखानां बिभर्तारं सेनेशम् (दक्षासः) विज्ञानबलवृद्धाः शीघ्रकारिणः (ऋभवः) मेधाविनः (मदच्युतम्) मदा हर्षणादयश्च्युता यस्मात्तम् (शतक्रतुम्) अनेककर्मप्रज्ञायुक्तम् (जवनी) वेगशीला (सूनृता) अन्नादिसमूहकारी राजनीतिः। सूनृता इत्यन्ननामसु पठितम्। (निघं०२.७) (आ) समन्तात् (अरुहत्) रोहेत् ॥ २ ॥

    भावार्थः

    धार्मिका मेधाविनो यस्याश्रयं कुर्य्युस्तस्यैवाश्रयं सर्वे मनुष्या गृह्णीयुः ॥ २ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे सेनापते ! जिस आपकी (ऊतयः) रक्षा प्रजा का पालन करती हैं (दक्षासः) विज्ञानवृद्ध शीघ्र कार्य को सिद्ध करनेवाले (ऋभवः) मेधावी विद्वान् लोग जिस (स्वभिष्टिम्) उत्तम इष्टियुक्त (अन्तरिक्षप्राम्) अपने तेज से अन्तरिक्ष अर्थात् अवकाश में सबको सुख से पूर्ण करने (मदच्युतम्) हर्षादि को देनेवाले (शतक्रतुम्) अनेक कर्मों के कर्ता (तविषीभिः) बल आकर्षण आदि गुणों से युक्त सेना से (आवृतम्) संयुक्त (इन्द्रम्) बिजुली के सदृश वर्त्तमान आपको (अभ्यवन्वन्) कार्यों को करने के लिये सब प्रकार से वृद्धियुक्त करते हैं जिस को (जवनी) वेगयुक्त (सूनृता) अन्नादि पदार्थों को सिद्ध करने हारी राजनीति (आरुहत्) बढ़ के प्राप्त होवे, उस आपकी रक्षा हम किया करें ॥ २ ॥

    भावार्थ

    धर्मात्मा बुद्धिमान् लोग जिस का आश्रय करें, उसी का शरण ग्रहण सब मनुष्य करें ॥ २ ॥

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    विषय

    मदच्युत् - शतक्रतु

    पदार्थ

    १. (ऊतयः) = मन को वासनाओं के आक्रमण से बचानेवाले, अर्थात् मन को निर्मल बनानेवाले, (दक्षासः) = बल के बढ़ानेवाले, अङ्ग - प्रत्यङ्ग की शक्ति का वर्धन करनेवाले (ऋभवः) = [उरु भान्ति] मस्तिष्क को दीप्त करनेवाले मरुत, अर्थात् प्राण इन्द्रं अभि ईम् अवन्वन् - वासनाओं वृत्रों से युद्ध करनेवाले जीव को निश्चयपूर्वक आभिमुख्येन सेवित करते हैं, अर्थात् वासना - संग्राम में प्राण जीव के सहायक होते हैं । प्राणसाधना से ही तो वासनाओं का क्षय होता है योगाङ्गानुष्ठानादशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिराविवेकख्यातेः । [यो० सूत्र] - वासना - क्षय होकर ज्ञान की दीप्ति होती है और मनुष्य विवेकशील होता है । २. कैसे इन्द्र को‌ ? (स्वभिष्टिम्) = [शोभनाभ्येषणवन्तम् - सा०] उत्तमता से वासनाओं पर आक्रमण करनेवाले को, (अन्तरिक्षप्राम्) = [अन्तरा क्षि, प्रा पूरणे] सदा मध्यमार्ग में चलने के द्वारा अपना पूरण करनेवाले को, अपनी न्यूनताओं को दूर करनेवाले को, (तविषीभिः) = बलों से आवृत्त को, अङ्ग - प्रत्यङ्ग में शक्ति - सम्पन्न को, इतना होने पर भी (मदच्युतम्) = गर्व को अपने से दूर रखनेवाले को और अन्त में (शतक्रतुम्) = सौ - के - सौ वर्ष यज्ञमय जीवन बितानेवाले को, सदा कर्मशील को । वस्तुतः यहाँ 'स्वभिष्टि' आदि शब्दों में सर्वत्र प्राणसाधना करनेवाले लोगों का सङ्केत है । प्राणसाधना से ही जीव इस स्थिति को प्राप्त हो सकता है । ३. सबसे बढ़कर बात यह है कि इस प्राणसाधना को (जवनी) = सदा उत्तम प्रेरणा देनेवाली, उत्तम कार्यों में प्रेरित करनेवाली (सूनृता) = प्रिय, सत्यात्मिका वाणी (आरुहत्) = आरूढ़ होती है, प्राप्त होती है । यह प्रिय सत्य वाणी ही बोलता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम मन के दृष्टिकोण से 'ऊतय', शरीर के दृष्टिकोण से 'दक्षासः' तथा मस्तिष्क के दृष्टिकोण से 'ऋभवः' हों । सदा उत्तम प्रेरणा देनेवाली सत्य वाणी ही बोलें । 'स्वभिष्टि, अन्तरिक्ष - प्रा, तविषीभिरावृत, मदच्युत व शतक्रतु' बनें ।

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    विषय

    इन्द्र, राजा और परमेश्वर का भेद और सूर्य के दृष्टान्त से वर्णन, सेनापति की प्रतिष्ठा ।

    भावार्थ

    ( ऊतयः) उत्तम रक्षा करने हारे, एवं ज्ञानवान् (दक्षासः) शीघ्र कार्य करने में कुशल विद्वान् (ऋभवः) तेजस्वी अति ऐश्वर्यवान्, सत्यज्ञानी, पुरुष (तवीषीभिः) बलशालिनी शक्तियों और सेनाओं से ( आवृतम्) घिरे हुए (अन्तरिक्ष प्राम्) सूर्य या मेघ जिस प्रकार अन्तरिक्ष को अपने तेज और अपने विस्तृत फैलाव से पूर्ण कर देता है उसी प्रकार अपने और पराये राष्ट्र के बीच में विद्यमान देश को भी अपने प्रभाव से और युद्ध समय में शर वर्षा से अन्तरिक्ष को पूरने वाले, (सु-अभिष्टिम् ) उत्तम इच्छा कर्म सामर्थ्य वाले, उत्तम आशा और अधिकार को प्राप्त, (इन्द्रम्) शत्रु हनन करने वाले, ऐश्वर्यवान्, (मदच्युतम्) अपनी सेनाओं को हर्पित करने और शत्रुओं के गर्व के तोड़ने हारे, ( शतक्रतुम् ) अनेक कार्य सामर्थ्य और प्रज्ञाओं से युक्त, वीर सेनापति को ही ( जवनी ) वेगयुक्त, बलवती ( सूनृता ) वाणी तथा आज्ञा प्रदान करने का अधिकार तथा ( सूनृता ) बलप्रद अन्नादि देने वाली राजनीति (आ अरुहत् ) प्राप्त हो । और ( ऋभवः ) विद्वान् पुरुष, उत्तम कर्म साधक शिल्पी जन ( ईम् अभि ) उसको (अवन्वन्) प्राप्त हों, और तेजस्वी पुरुष उस की रक्षा करें। परमेश्वर पक्ष में—( ऊतयः ) समस्त ज्ञान उस उत्तम कामना से युक्त परमेश्वर को प्राप्त हैं। समस्त आकाश में व्यापक ( तविषीभिः ) बढ़ी शक्तियों से युक्त परमेश्वर को ही (दक्षासः) सत्यज्ञानी, कुशल, अज्ञानान्धकार के नाशकारी योगी जन भजन करते हैं और उसी को ( जवनी सुनृता) वेगवती, आवेश से उठी हुई स्तुति प्राप्त होती है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सव्य आङ्गिरस ऋषिः । इन्द्रो देवता ॥ छन्दः— १, ९, १० जगती २, ५, ८ विराड् जगती । ११–१३ निचृज्जगती ३, ४ भुरिक् त्रिष्टुप् । ६,७ त्रिष्टुप् ॥ पंचदशर्चं सूक्तम् ।

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    विषय

    फिर वह सेनापति कैसा है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे सेनेश ! यस्य तव ऊतयः प्रजा रक्षन्ति दक्षासः ऋभवः यं स्वभिष्टिम् अन्तरिक्षप्राम् मदच्युतं शतक्रतुं तविषीभिः आवृतम् इन्द्रं त्वाम् अभि अवन्वन् अभ्यवन्ति जवनी सूनृता अरुहत्तं वयम् अपि सततं रक्षेम ॥ २ ॥

    पदार्थ

    हे (सेनेश)=सेनापति ! (यस्य)=जिस, (तव)=तुम्हारी, (ऊतयः) रक्षादयः=रक्षा आदि, (प्रजा) = प्रजा, (रक्षन्ति)=रक्षा करती है, (दक्षासः) विज्ञानबलवृद्धाः शीघ्रकारिणः=विज्ञान के बल में ज्ञानी शीघ्रता से कार्य करनेवाले, (ऋभवः) मेधाविनः=मेधावी, (यम्)=जिस, (स्वभिष्टिम्) शोभना अभिष्टा इष्टयो यस्मात्तम्=उत्तम कामनाओंवाले, (अन्तरिक्षप्राम्) स्वतेजसान्तरिक्षं प्राप्य प्राति पिपर्ति ताम्=अपने तेज से अन्तरिक्ष में पहुँच कर पोषण करनेवाले, (मदच्युतम्) मदा हर्षणादयश्च्युता यस्मात्तम्=हर्ष से रहित करनेवाले, (शतक्रतुम्) अनेककर्मप्रज्ञायुक्तम्= अनेक कर्म और प्रज्ञाओं वाले, (तविषीभिः) बलाकर्षणादिगुणाढ्याभिः सेनाभिः=बल से आकर्षित करने आदि के गुणों से युक्त, (आवृतम्) संयुक्तम्=एक साथ, (इन्द्रम्) सुखानां बिभर्तारं सेनेशम्=सुखों को बनाये रखनेवाले सेनापति, (त्वाम्)=तुमको, (अभि) आभिमुख्ये=सामने से, (अवन्वन्) अवन्ति रक्षणादिकं कुर्वन्ति=रक्षा आदि करते हैं, (जवनी) वेगशीला=वेग के स्वभाववाली, (सूनृता) अन्नादिसमूहकारी राजनीतिः=अन्न आदि से सम्बन्धित सामान्य मामलों में, (अरुहत्) रोहेत्=बढ़नेवाले, (वयम्)= हम, (अपि)=भी, (सततम्)=निरन्तर, (रक्षेम)=रक्षा करें ॥ २ ॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    धर्मात्मा बुद्धिमान् लोग जिस का आश्रय करें, उसी की शरण सब मनुष्यों को ग्रहण करनी चाहिए ॥२॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (सेनेश) सेनापति ! (यस्य) जिस (तव) आपकी (ऊतयः) रक्षा आदि (प्रजा) प्रजा (रक्षन्ति) करती हैं। [हे] (दक्षासः) विज्ञान के बल से ज्ञानी व शीघ्रता से कार्य करनेवाले, (ऋभवः) मेधावी, (यम्) जिस (स्वभिष्टिम्) उत्तम कामनाओंवाले, (अन्तरिक्षप्राम्) अपने तेज से अन्तरिक्ष में पहुँच कर पोषण करनेवाले (मदच्युतम्) हर्ष से रहित करनेवाले [और] (शतक्रतुम्) अनेक कर्म और प्रज्ञाओं वाले, (तविषीभिः) बल से आकर्षित करने आदि के गुणों से युक्त (आवृतम्) एक साथ (इन्द्रम्) सुखों को बनाये रखनेवाले सेनापति (त्वाम्) आपकी (अभि) सामने से (अवन्वन्) रक्षा आदि करते हैं। (जवनी) वेग से कार्य करने के स्वभाववाले, (सूनृता) अन्न आदि से सम्बन्धित सामान्य मामलों में (अरुहत्) प्रगति करनेवाले [और] (वयम्) हम (अपि) भी (सततम्) निरन्तर (रक्षेम) रक्षा करें ॥२॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (अभि) आभिमुख्ये (ईम्) जलमन्नं पृथिवीं वा। ईमित्युदकनामसु पठितम्। (निघं०१.१२) पदनामसु पठितम्। (निघं०४.२) (अवन्वन्) अवन्ति रक्षणादिकं कुर्वन्ति । अत्राऽव धातोः विकरणव्यत्ययेन श्नुः। (स्वभिष्टिम्) शोभना अभिष्टा इष्टयो यस्मात्तम्। अत्र व्यत्ययेन ह्रस्वः। (ऊतयः) रक्षादयः (अन्तरिक्षप्राम्) स्वतेजसान्तरिक्षं प्राप्य प्राति पिपर्ति ताम् (तविषीभिः) बलाकर्षणादिगुणाढ्याभिः सेनाभिः (आवृतम्) संयुक्तम् (इन्द्रम्) सुखानां बिभर्तारं सेनेशम् (दक्षासः) विज्ञानबलवृद्धाः शीघ्रकारिणः (ऋभवः) मेधाविनः (मदच्युतम्) मदा हर्षणादयश्च्युता यस्मात्तम् (शतक्रतुम्) अनेककर्मप्रज्ञायुक्तम् (जवनी) वेगशीला (सूनृता) अन्नादिसमूहकारी राजनीतिः। सूनृता इत्यन्ननामसु पठितम्। (निघं०२.७) (आ) समन्तात् (अरुहत्) रोहेत् ॥ २ ॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे सेनेश ! यस्य तवोतयः प्रजा रक्षन्ति दक्षास ऋभवो यं स्वभिष्टिमन्तरिक्षप्राम्मदच्युतं शतक्रतुं तविषीभिरावृतमिन्द्रं त्वामभ्यवन्वन्नभ्यवन्ति जवनी सूनृताऽरुहत्तं वयमपि सततं रक्षेम ॥ २ ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- धार्मिका मेधाविनो यस्याश्रयं कुर्य्युस्तस्यैवाश्रयं सर्वे मनुष्या गृह्णीयुः ॥२॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    धर्मात्मा बुद्धिमान लोक ज्याचा आश्रय घेतात त्यालाच शरण जाऊन सर्व माणसांनी त्याचा अंगीकार करावा. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Powers of protection, expertise and excellence shower love and honour on Indra, lord of power and glory, giver of desire, pervasive and blazing in the skies, clad in his own might and splendour, giver of showers of joy and hero of a hundred noble acts of creation. And may the youthful and inspiring voice of Eternal Truth see him rise to the heights.

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    Subject of the mantra

    Then how is that commander, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O!(seneśa) =commander, ! (yasya) =which, (tava) =your,(ūtayaḥ) =protection etc. (prajā) =public, (rakṣanti) =do, [he]=O! (dakṣāsaḥ)=knowledgeable and quick to work with the power of science, (ṛbhavaḥ) =brilliant, (yam) =which, (svabhiṣṭim) =having good desires,, (antarikṣaprām)=nurturing by reaching into the space with own glory, (madacyutam) =making joyless, [aura]=and, (śatakratum)= having many deeds and intelligence, (taviṣībhiḥ) =having power of attraction of force etc. qualities, (āvṛtam) =together, (indram) commnder who maintains happiness, (tvām) =your, (abhi) =from front, (avanvan) =do the work of protection etc., (javanī) =having habit of working speedily, (sūnṛtā)= in general matters relating to food etc., (aruhat)=progressives, [aura]=and, (vayam) =we, (api) =also, (satatam) = continuously, (rakṣema) =protect.

    English Translation (K.K.V.)

    O commander! Whom, your subjects et cetera protect you. O knowledgeable and quick-working by the power of science, intelligent, having the best wishes, reaching the space with your brightness and nourishing, giving joy and having many deeds and wisdom, together with the qualities of attracting by force et cetera, the commander who maintains happiness! Those who have the nature to work fast and make progress in general matters related to food etc., may we also protect them continuously.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    All human beings should take refuge in the one who is sheltered by pious and intelligent people.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is that Indra is further taught in the 2nd Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Commander of the army, we should also constantly protect thee whose protective powers preserve and safeguard the subjects, whom wise men great in wisdom and strength and prompt in action, protect, who fulfils all our noble desires who radiates the firmament by his splendor, imbued with vigor who gives delight to all righteous persons, the humiliator of the enemies, surrounded by strong and powerful armies, conferrer of happiness, endowed with much wisdom and power of action, whose policy is productive of much corn and other food materials.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    ( इन्द्रम् ) सुखानां भर्तारं सेनेशम् = The Commander of the army who gives happiness. ( सूनृता) अन्नादिसमूहकरी राजनीतिः सूनृता इत्यन्ननामसु । ( निघ० २.७ ) = Policy which produces much food-material.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    All should take shelter in à virtuous person who is admired and advised by highly intelligent righteous people.

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