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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 54 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 54/ मन्त्र 4
    ऋषिः - सव्य आङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    त्वं दि॒वो बृ॑ह॒तः सानु॑ कोप॒योऽव॒ त्मना॑ धृष॒ता शम्ब॑रं भिनत्। यन्मा॒यिनो॑ व्र॒न्दिनो॑ म॒न्दिना॑ धृ॒षच्छि॒तां गभ॑स्तिम॒शनिं॑ पृत॒न्यसि॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । दि॒वः । बृ॒ह॒तः । सानु॑ । को॒प॒यः॒ । अव॑ । त्मना॑ । धृ॒ष॒ता । शम्ब॑रम् । भि॒न॒त् । यत् । मा॒यिनः॑ । व्र॒न्दिनः॑ । म॒न्दिना॑ । धृ॒षत् । शि॒ताम् । गभ॑स्तिम् । अ॒शनि॑म् । पृ॒त॒न्यसि॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं दिवो बृहतः सानु कोपयोऽव त्मना धृषता शम्बरं भिनत्। यन्मायिनो व्रन्दिनो मन्दिना धृषच्छितां गभस्तिमशनिं पृतन्यसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। दिवः। बृहतः। सानु। कोपयः। अव। त्मना। धृषता। शम्बरम्। भिनत्। यत्। मायिनः। व्रन्दिनः। मन्दिना। धृषत्। शिताम्। गभस्तिम्। अशनिम्। पृतन्यसि ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 54; मन्त्र » 4
    अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 17; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे सभाध्यक्ष ! यः शत्रून् धृषत्त्वं यथा सूर्य्यो बृहतो दिवः सानु शितामशनिं गभस्तिं वज्राख्यं किरणं प्रहृत्य शम्बरं मेघं भिनत्तथा शस्त्रास्त्राणि प्रक्षिप्य त्मना दुष्टजनानवकोपयो व्रन्दिनो मायिनो विदृणासि तन्निवारणाय पृतन्यसि स त्वं राज्यमर्हसि ॥ ४ ॥

    पदार्थः

    (त्वम्) सभाध्यक्षः (दिवः) प्रकाशमयान्न्यायात् (बृहतः) महतः सत्यशुभगुणयुक्तात् (सानु) सनन्ति सम्भजन्ति येन कर्मणा तत्। अत्र दृसनिजनि० (उणा०१.३) इति ञुण् प्रत्ययः। (कोपयः) कोपयसि (अव) निरोधे (त्मना) आत्मना (धृषता) दृढकर्मकारिणा (शम्बरम्) शं सुखं वृणोति येन तं मेघमिव शत्रुम् (भिनत्) विदृणाति (यत्) यः (मायिनः) कपटादिदोषयुक्ताँश्छत्रून् (व्रन्दिनः) निन्दिता व्रन्दा मनुष्यादिसमूहा विद्यन्ते येषां तान् (मन्दिना) हर्षकारेण बलिना (धृषत्) शत्रुधर्षणं कुर्वन् (शिताम्) तीक्ष्णधाराम् (गभस्तिम्) रश्मिम् (अशनिम्) छेदनभेदनेन वज्रस्वरूपाम् (पृतन्यसि) आत्मनः पृतनां सेनामिच्छसि ॥ ४ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा जगदीश्वरः पापकर्मकारिभ्यः स्वस्वपापानुसारेण दुःखफलानि दत्वा यथायोग्यं पीडयत्येवं सभाध्यक्षः शस्त्रास्त्रशिक्षया धार्मिकशूरवीरसेनां सम्पाद्य दुष्टकर्मकारिणो निवार्य्य धार्मिकीं प्रजां सततं पालयेत् ॥ ४ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह सभाध्यक्ष कैसा होवे, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे सभाध्यक्ष ! जो (धृषत्) शत्रुओं का धर्षण करता (त्वम्) आप जैसे सूर्य्य (बृहतः) महासत्य शुभगुणयुक्त (दिवः) प्रकाश से (सानु) सेवने योग्य मेघ के शिखरों पर (शिताम्) अति तीक्ष्ण (अशनिम्) छेदन-भेदन करने से वज्रस्वरूप बिजुली और (गभस्तिम्) वज्ररूप किरणों का प्रहार कर (शम्बरम्) मेघ को (भिनत्) काट के भूमि में गिरा देता है, वैसे शस्त्र और अस्त्रों को चला के अपने (त्मना) आत्मा से दुष्ट मनुष्यों को (अवकोपयः) कोप कराते (व्रन्दिनः) निन्दित मनुष्यादि समूहोंवाले (मायिनः) कपटादि दोषयुक्त शत्रुओं को विदीर्ण करते और उनके निवारण के लिये (पृतन्यसि) अपने न्यायादि गुणों की प्रकाश करनेवाली विद्या वा वीर पुरुषों से युक्त सेना की इच्छा करते हो, सो आप राज्य के योग्य होते हो ॥ ४ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे जगदीश्वर पापकर्म करनेवाले मनुष्यों के लिये अपने-अपने पाप के अनुसार दुःख के फलों को देकर यथायोग्य पीड़ा देता है, इसी प्रकार सभाध्यक्ष को चाहिये कि शस्त्रों और अस्त्रों की शिक्षा से धार्मिक शूरवीर पुरुषों की सेना को सिद्ध और दुष्ट कर्म करनेवाले मनुष्यों का निवारण करके धर्मयुक्त प्रजा का निरन्तर पालन करे ॥ ४ ॥

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    विषय

    'गभस्ति - अशनि'

    पदार्थ

    १. हे प्रभो ! (त्वम्) = आप (दिवः) = ज्ञान के प्रकाश के द्वारा (बृहतः) = उपभोग के द्वारा शान्त होने की अपेक्षा और अधिक बढ़ते चले जानेवाले कामरूप पर्वत के (सानु) = शिखर को (कोपयः) = [अकम्पयः] कम्पित करते हो, अर्थात् ज्ञानाग्नि में इस काम को आप भस्म करनेवाले हो । २. (धृषता) = शत्रुओं का धर्षण करनेवाली शक्ति से (शम्बरम्) = शान्ति को आवृत्त करनेवाले इस ईर्ष्यारूप शत्रु को (त्मना) = आप स्वयं (अवभिनत्) = विदीर्ण करते हो । हम प्रभु का स्मरण करते हैं और प्रभु - कृपा से हमारा हृदय ईर्ष्या - द्वेष व क्रोधादि की उन भावनाओं से ऊपर उठ जाता है जो हमारे हृदय की शान्ति को भंग करनेवाली हैं । ३. इस वृत्र [काम] व शम्बर का विदारण आप तब करते हो (यत्) = जबकि (मायिनः) = इस मायावाले छल - कपट से युक्त (वन्दिनः) = समूह में रहनेवाले, अर्थात् समुदायरूप से आक्रमण करनेवाले असुरों के प्रति (मन्दिनः) = आनन्दयुक्त (भूषत्) = [धृषता] शत्रुओं का धर्षण करनेवाले हृदय से (शिताम्) = अत्यन्त तीन (गभस्तिम्) = ज्ञान की रश्मियों से युक्त (अशनिम्) = वज्र को [अश् व्याप्तौ] , कर्मों में व्याप्तिरूप अस्त्र को (पृतन्यसि) = शत्रुसैन्य को जीतने की इच्छा से प्रेरित करते हो । वस्तुतः आसुर भावनाएँ मायायुक्त हैं, मन को आकृष्ट करनेवाली हैं, समुदाय में आक्रमण करती हैं, अर्थात् एक के साथ दूसरी, दूसरी के साथ तीसरी, इस रूप में ये जुड़ी हुई हैं । इनको जीतने के लिए मन में उत्साह होना आवश्यक है, उत्साह के साथ बल का होना भी अनिवार्य है, तभी तो हम इनका धर्षण कर सकेंगे । इनके धर्षण के लिए 'गभस्ति व अशनि' नामक अस्त्र हैं । 'गभस्ति' ज्ञानरश्मियों का नाम है और 'अशनि' कर्मों में व्याप्तिरूप वन है जोकि इन्द्र का प्रधान अस्त्र हैं । इस प्रकार स्पष्ट है कि ज्ञान व कर्म के द्वारा ही इन शत्रुओं का संहार होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु - कृपा से हम मन में प्रसन्न व शत्रुधर्षक बल से सम्पन्न हों । ज्ञानपूर्वक कर्मों में व्यापृति के द्वारा सब शत्रुओं को दूर भगा दें ।

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    विषय

    परमेश्वर, राजा, सभा और सेना के अध्यक्षों के कर्तव्यों और सामथ्यर्थों का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( यत् ) जो तू ( धृषत् ) शत्रुओं का पराजय करने और दबाने में समर्थ होकर (व्रन्दिनः) समूह बना कर रहने वाले, (मायिनः) मायावी पुरुषों को ( मन्दिना ) अति हृष्ट, प्रसन्नचित से ( पृतन्यसि ) सेना द्वारा उन को पराजित करना चाहता या स्वयं अपने अधीन सेना रखना चाहता है, तब तू (गभस्तिम्) जिस प्रकार सूर्य मेघ पर अपनी किरण या दीप्ति को फेंकता है उसी प्रकार जो ( शितां ) अतितीक्ष्ण ( गभस्तिम् ) अपने हाथों से काबू करके चलाने योग्य ( अशनिम् ) विद्युत् के बने सर्वसंहारक अस्त्र को छोड़ । और ( बृहतः दिवः ) बड़े भारी आकाश और सूर्य के प्रकाश को (सानु ) रोक लेने वाले ( शंबरं ) मेघ को ( घृषता ) घर्षण या परभव करनेवाले (त्मना) अपने तेज से सूर्य या वायु जिस प्रकार छिन्न भिन्न करता या विजुली जिस प्रकार अपने तीव्र सामर्थ्य से ही ( शंवरं अव कोपयः ) जल को नीचे गिरा देता है उसी प्रकार ( बृहतः दिवः ) बड़े भारी ज्ञानी, या तेजस्वी राजा के ऐश्वर्यं को भोगने वाले ( शंबरम् ) शान्ति के नाशकारी दुष्ट पुरुष को (अव कोपयः) क्रोध और आवेश से हीन, गर्वरहित, निर्वीर्य कर और ( अव भिनत् ) नीचे तोड़ गिरावे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सव्य आङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ४, १० विराड्जगती । २, ३, ५ निचृज्जगती । ७ जगती । ६ विरात्रिष्टुप् । ८,९, ११ निचृत् त्रिष्टुप् । एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    फिर वह सभाध्यक्ष कैसा होवे, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे सभाध्यक्ष ! यः शत्रून् धृषत् त्वं यथा सूर्य्यः बृहतः दिवः सानु शिताम् अशनिं गभस्तिं वज्र आख्यं किरणं प्रहृत्य शम्बरं मेघं भिनत् तथा शस्त्रास्त्राणि प्रक्षिप्य त्मना{धृषता} दुष्टजनान् अव कोपयः व्रन्दिनः{मन्दिना} मायिनः विदृणासि तन् निवारणाय पृतन्यसि स त्वं राज्यम् अर्हसि ॥ ४ ॥

    पदार्थ

    हे (सभाध्यक्ष)= सभाध्यक्ष ! (यः)= जो, (शत्रून्)=शत्रुओं को, (धृषत्) शत्रुधर्षणं कुर्वन्=पराजित करते हुए, (त्वम्) सभाध्यक्षः= सभाध्यक्ष, (यथा)=जैसे, (सूर्य्यः)=सूर्य, (बृहतः) महतः सत्यशुभगुणयुक्तात्=बड़े सत्य और शुभ गुणों से युक्त, (दिवः) प्रकाशमयान्न्यायात्=प्रकाश से, (सानु) सनन्ति सम्भजन्ति येन कर्मणा तत्=जिस कर्म से बांटते हैं, (शिताम्) तीक्ष्णधाराम्=तीक्ष्ण धारा के, (अशनिम्) छेदनभेदनेन वज्रस्वरूपाम्= वज्र के स्वरूप की, (गभस्तिम्) रश्मिम्=किरणों को, (प्रहृत्य)= प्रहार करके, (शम्बरम्) शं सुखं वृणोति येन तं मेघमिव शत्रुम्= जिस से सुख का भोग होता है, ऐसे बादल के समान शत्रु को, (मेघम्)= बादल को, (भिनत्) विदृणाति= छिन्न-भिन्न करता है, (तथा)=वैसे ही, (शस्त्रास्त्राणि)=अशस्त्र-शस्त्रों को, (प्रक्षिप्य)=फेंक कर, (त्मना) आत्मना=अपने, {धृषता} दृढकर्मकारिणा= दृढ़ निश्चयी कार्य करनेवाले, (दुष्टजनान्)=दुष्ट लोगों के, (अव) निरोधे=विरोध में, (कोपयः) कोपयसि= क्रोध करते हो, (व्रन्दिनः) निन्दिता व्रन्दा मनुष्यादिसमूहा विद्यन्ते येषां तान्= निन्दित मनुष्यों के समूह के, {मन्दिना} हर्षकारेण बलिना=प्रसन्नता के बल से, (मायिनः) कपटादिदोषयुक्ताँश्छत्रून् =कपट आदि दोष वाले शत्रुओं को, (विदृणासि)= छिन्न-भिन्न करते हो, (तन्)=उसके, (निवारणाय)=दूर करने के लिये, (पृतन्यसि) आत्मनः पृतनां सेनामिच्छसि= अपनी सेना की इच्छा करते हो, (सः)=वह, (त्वम्) सभाध्यक्षः= सभाध्यक्ष, तुम (राज्यम्)= राज्य करने के, (अर्हसि)=योग्य हो ॥ ४ ॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे जगदीश्वर पापकर्म करनेवाले मनुष्यों के लिये अपने-अपने पाप के अनुसार दुःख के फलों को देकर यथा योग्य पीड़ा देता है, इसी प्रकार सभाध्यक्ष को चाहिये कि शस्त्रों और अस्त्रों की शिक्षा से धार्मिक शूरवीर पुरुषों की सेना को बनाकर दुष्ट कर्म करनेवाले मनुष्यों का निवारण करके, धर्मयुक्त प्रजा का निरन्तर पालन करे ॥४॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (सभाध्यक्ष) सभाध्यक्ष ! (यः) जो (शत्रून्) शत्रुओं को (धृषत्) पराजित करते हुए (त्वम्) सभाध्यक्ष (यथा) जैसे (सूर्य्यः) सूर्य, (बृहतः) बड़े सत्य और शुभ गुणों से युक्त (दिवः) प्रकाश से, (सानु) जिस कर्म से बांटते हैं, ऐसी (शिताम्) तीक्ष्ण धारा के (अशनिम्) वज्र के स्वरूप की (गभस्तिम्) किरणों से (प्रहृत्य) प्रहार करके, (शम्बरम्) जिस से सुख का भोग होता है, ऐसे शत्रु के समान बादल को (भिनत्) छिन्न-भिन्न करता है, (तथा) वैसे ही (शस्त्रास्त्राणि) अशस्त्र-शस्त्रों को (प्रक्षिप्य) फेंक कर (त्मना) अपने {धृषता} दृढ़ निश्चयी कार्य करनेवालों के द्वारा (दुष्टजनान्) दुष्ट लोगों के (अव) विरोध में (कोपयः) क्रोध करते हो। (व्रन्दिनः) निन्दित मनुष्यों के समूह को {मन्दिना} प्रसन्नता के बल से (मायिनः) कपट आदि दोष वाले शत्रुओं को (विदृणासि) छिन्न-भिन्न करते हो और (तन्) उसके (निवारणाय) दूर करने के लिये (पृतन्यसि) अपनी सेना की इच्छा करते हो, (सः) वह (त्वम्) सभाध्यक्ष तुम, (राज्यम्) राज्य करने के (अर्हसि) योग्य हो ॥ ४

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (त्वम्) सभाध्यक्षः (दिवः) प्रकाशमयान्न्यायात् (बृहतः) महतः सत्यशुभगुणयुक्तात् (सानु) सनन्ति सम्भजन्ति येन कर्मणा तत्। अत्र दृसनिजनि० (उणा०१.३) इति ञुण् प्रत्ययः। (कोपयः) कोपयसि (अव) निरोधे (त्मना) आत्मना (धृषता) दृढकर्मकारिणा (शम्बरम्) शं सुखं वृणोति येन तं मेघमिव शत्रुम् (भिनत्) विदृणाति (यत्) यः (मायिनः) कपटादिदोषयुक्ताँश्छत्रून् (व्रन्दिनः) निन्दिता व्रन्दा मनुष्यादिसमूहा विद्यन्ते येषां तान् (मन्दिना) हर्षकारेण बलिना (धृषत्) शत्रुधर्षणं कुर्वन् (शिताम्) तीक्ष्णधाराम् (गभस्तिम्) रश्मिम् (अशनिम्) छेदनभेदनेन वज्रस्वरूपाम् (पृतन्यसि) आत्मनः पृतनां सेनामिच्छसि ॥४॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे सभाध्यक्ष ! यः शत्रून् धृषत्त्वं यथा सूर्य्यो बृहतो दिवः सानु शितामशनिं गभस्तिं वज्राख्यं किरणं प्रहृत्य शम्बरं मेघं भिनत्तथा शस्त्रास्त्राणि प्रक्षिप्य त्मना दुष्टजनानवकोपयो व्रन्दिनो मायिनो विदृणासि तन्निवारणाय पृतन्यसि स त्वं राज्यमर्हसि ॥ ४ ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा जगदीश्वरः पापकर्मकारिभ्यः स्वस्वपापानुसारेण दुःखफलानि दत्वा यथायोग्यं पीडयत्येवं सभाध्यक्षः शस्त्रास्त्रशिक्षया धार्मिकशूरवीरसेनां सम्पाद्य दुष्टकर्मकारिणो निवार्य्य धार्मिकीं प्रजां सततं पालयेत् ॥४॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे जगदीश्वर पापकर्म करणाऱ्या माणसांसाठी त्यांच्या पापानुसार दुःखाचे फळ देऊन त्यांना त्रस्त करतो त्याचप्रकारे सभाध्यक्षाने शस्त्र व अस्त्रांच्या शिक्षणाने युक्त धार्मिक शूरवीर पुरुषांच्या सेनेला सिद्ध करून दुष्ट कर्म करणाऱ्या माणसांचे निवारण करावे व धर्मयुक्त प्रजेचे निरंतर पालन करावे. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    From the great regions of light, feeling passionate and indignant, you strike the top of the cloud and break it with the shattering thunderbolt of sun beams. Similarly, righteously and conscientiously feeling passionate and indignant, with your formidable actions, subduing the forces of the wicked and guileful powers, you raise an army to fight for light and justice.

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    Subject of the mantra

    Then what kind of Chairman of the Assembly should he be, this matter has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (sabhādhyakṣa)= Chairman of the Assembly, (yaḥ) =that, (śatrūn) =to the enemies, (dhṛṣat)=defeating (tvam) =Chairman of the Assembly, (yathā) =like, (sūryyaḥ) =Sun, (bṛhataḥ)= full of great truth and good qualities, (divaḥ) =by light, (sānu)=the karma with which we distribute is like this, (śitām) =of strong current, (aśanim) =shaped like a thunderbolt, (gabhastim) by rays, (prahṛtya) =by striking, (śambaram)=the one who enjoys happiness, the cloud is like an enemy, (bhinat) =disintegrates, (tathā) =in the same way, (śastrāstrāṇi) =by unarmed and weapons, (prakṣipya) =by throwing, (tmanā) =own, {dhṛṣatā}= by determined workers, (duṣṭajanān) =of evil people, (ava)=In protest, (kopayaḥ) =get angry, (vrandinaḥ) =to a group of condemned men, {mandinā} =by the power of happiness, (māyinaḥ) =to enemies guilty of deceit etc., (vidṛṇāsi) chinna-bhinna karate ho aura (tan) usake (nivāraṇāya) =to remove, (pṛtanyasi)=desire your army, (saḥ) =that, (tvam) =Chairman of the Assembly, you (rājyam) =to rule, (arhasi) =are worthy.

    English Translation (K.K.V.)

    O Chairman of the Assembly! Who defeats the enemies, like the Sun, who distributes the light filled with great truth and auspicious qualities, by striking with the thunderbolt-like rays of such a sharp stream, which brings happiness, that enemy is just as it disintegrates the clouds, in the same way, by throwing away your weapons, you become angry against the evil people through your determined actions. With the power of happiness, you disintegrate the enemies of the group of condemned people, who are guilty of deceit etc. and you wish to use your army to remove them, you, the Chairman of the Assembly, are worthy of ruling.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. Just as god gives appropriate pain to the people who commit sinful acts by giving them the awards of sorrow according to their sins, in the same way, the Chairman of the assembly should create an army of righteous brave men by training them in arms and weapons and prevent the people doing evil deeds. Always follow the righteous people.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is Indra is taught further in the fourth mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Indra (President of the Assembly) Thou shakest like the sun (or literally makest angry) all deceitful band of enemies that veils happiness of the people like the cloud with thy resolute Power. Thou hurlest with exulting and determined mind the sharp and bright-rayed thunderbolt or other powerful weapons against assembled wicked enemies as the Sun scatters all clouds with his powerful and bright rays. Thou usest thy army for the annihilation of thy enemies as the sun scatters all clouds with his powerful and bright rays. Thou usest thy army for the annihilation of thy enemies, therefore thou deservest rulership.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (दिव:) प्रकाशमयात् न्यायात् = From shining justice. ( शम्बरम् ) शं सुखं वृणोति येन तं भूमेघमिव शत्रुम् = An enemy like the cloud veiling the happiness of the people.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As God punishes and causes suffering to the wicked according to their sins, in the same manner, the President of the Assembly or King should train his army by giving proper training in arms and weapons and by restraining the wicked, should protect and preserve righteous subjects.

    Translator's Notes

    It is wrong on the part of Sayanacharya to take the word शम्बर (Shambara) used in the Mantra as एतत् संज्ञम् असुरम् or the name of a particular demon, as it is not only against the fundamental principle of the Vedic terminology as pointed out before, but clearly against the Vedic lexicon Nighantu which clearly says in 1.10 शम्बर इति मेघनाम ( निघ० १.१० ) i. e. Shambara means cloud. Here an enemy veiling the happiness and peace of the people like the cloud is meant as explained by Rishi Dayananda. Prof. Wilson, Griffith and others have committed the same mistake by indiscreetly following Sayanacharya.

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