ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 66/ मन्त्र 7
सेने॑व सृ॒ष्टामं॑ दधा॒त्यस्तु॒र्न दि॒द्युत्त्वे॒षप्र॑तीका ॥
स्वर सहित पद पाठसेना॑ऽइव । सृ॒ष्टा । अम॑म् । द॒धा॒ति॒ । अस्तुः॑ । न । दि॒द्युत् । त्वे॒षऽप्र॑तीका ॥
स्वर रहित मन्त्र
सेनेव सृष्टामं दधात्यस्तुर्न दिद्युत्त्वेषप्रतीका ॥
स्वर रहित पद पाठसेनाऽइव। सृष्टा। अमम्। दधाति। अस्तुः। न। दिद्युत्। त्वेषऽप्रतीका ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 66; मन्त्र » 7
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 10; मन्त्र » 7
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अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 10; मन्त्र » 7
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यूयं योऽयं सेनेशो जातो यमो जनित्वं कनीनां जार इव जनीनां पतिश्चाऽस्ति, स सृष्टा सेनेवास्तुस्त्वेषप्रतीका दिद्युन्नेवादधाति तं भजत ॥ ३ ॥
पदार्थः
(सेनेव) यथा (सुशिक्षिता) वीरपुरुषाणां विजयकर्त्री सेनास्ति तथाभूतः (सृष्टा) युद्धाय प्रेरिता (अमम्) अपरिपक्वविज्ञानं जनम् (दधाति) धरति (अस्तुः) शत्रूणां विजेतुः प्रक्षेप्तुः (न) इव (दिद्युत्) विच्छेदिका (यमः) नियन्ता (ह) किल (जातः) प्रकटत्वं गतः (यमः) सर्वोपरतः (जनित्वम्) जन्मादिकारणम् (जारः) हन्ता सूर्य्यः (कनीनाम्) कन्येव वर्त्तमानानां रात्रीणां सूर्य्यादीनां वा (पतिः) पालयिता (जनीनाम्) जनानां प्रजानाम् ॥ ४ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्विद्यया सम्यक् प्रयत्नेन यथा सुशिक्षिता सेना शत्रून् विजित्य विजयं करोति। यथा च धनुर्वेदविदः शत्रूणामुपरि शस्त्रास्त्राणि प्रक्षिप्यैतान् विच्छिद्य प्रलयं गमयन्ति, तथैवोत्तमः सेनाऽधिपतिः सर्वदुःखानि नाशयतीति बोद्धव्यम् ॥ ४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! तुम लोग जो सेनापति (यमः) नियम करनेवाला (जातः) प्रकट (यमः) सर्वथा नियमकर्त्ता (जनित्वम्) जन्मादि कारणयुक्त (कनीनाम्) कन्यावत् वर्त्तमान रात्रियों के (जारः) आयु का हननकर्त्ता सूर्य के समान (जननीनाम्) उत्पन्न हुई प्रजाओं का (पतिः) पालनकर्त्ता (सृष्टा) प्रेरित (सेनेव) अच्छी शिक्षा को प्राप्त हुई वीर पुरुषों की विजय करनेवाली सेना के समान (अस्तुः) शत्रुओं के ऊपर अस्त्र-शस्त्र चलानेवाले (त्वेषप्रतीका) दीप्तियों के प्रतीति करनेवाले (दिद्युन्न) बिजुली के समान (अमम्) अपरिपक्व विज्ञानयुक्त जन को (दधाति) धारण करता है, उसका सेवन करो ॥ ४ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि विद्या से अच्छे प्रयत्न द्वारा जैसे की हुई उत्तम शिक्षा से सिद्ध की हुई सेना शत्रुओं को जीत कर विजय करती है, जैसे धनुर्वेद के जाननेवाले विद्वान् लोग शत्रुओं के ऊपर शस्त्र-अस्त्रों को छोड़ उनका छेदन करके भगा देते हैं, वैसे उत्तम सेनापति सब दुःखों का नाश करता है, ऐसा तुम जानो ॥ ४ ॥
विषय
कनीनां जारः
पदार्थ
१. वे प्रभु अपने भक्त के अन्तः करण में (अमं दधाति) = शक्ति को उसी प्रकार धारण करते हैं (इव) = जिस प्रकार (सृष्टा सेना) = प्रेरित की हुई सेना बल को धारण करती है । २. प्रभु की उपासना से उपासक की शक्ति (अस्तुः) = अस्त्र फेंकनेवाले की (त्वेषप्रतीका) = दीप्त मुखवाली (विद्यत् न) = वज्र के समान होती है । जैसे वज्र शत्रुओं का संहार करता है, वैसे ही उपासक की शक्ति वासनारूप शत्रुओं का संहार करती है । ३. उपासक के लिए (यमः) = सर्वनियन्ता प्रभु (ह) = निश्चय से (जातः) = प्रादुर्भूत हुए हैं । (यमः) = वह नियन्ता प्रभु ही (जनित्वम्) = उपासक की शक्तियों के विकास के कारण हैं । वे प्रभु (कनीनां जारः) = [कनयति - to lessen] न्यूनताओं को जीर्ण करनेवाले हैं तथा (जनीनाम्) = विकासों के (पतिः) = रक्षक हैं, अर्थात् वे प्रभु न्यूनताओं को दूर करके हमारे विकास का कारण बनते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - उपासना से शक्ति प्राप्त होती है, जीवन का विकास होता है, न्यूनताएँ दूर होती हैं तथा विकास की वृद्धि व रक्षण होता है ।
विषय
विषय (भाषा)- फिर वह सेनापति कैसा है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे मनुष्या ! यूयं यः अयं सेनेशः {यमः} {ह} जातः यमः जनित्वं कनीनां जार इव जनीनां पतिः च अस्ति, स सृष्टा {अमम्} सेनेव {सुशिक्षिता} अस्तुः त्वेषप्रतीका दिद्युत् न इव आ दधाति तं भजत ॥४॥
पदार्थ
पदार्थः- हे (मनुष्याः)= मनुष्यों! (यूयम्)=तुम सब, (यः)=जो, (अयम्)=इस, (सेनेशः)=सेनापति को, {यमः} सर्वोपरतः=सबसे उपर से, {ह} किल= निश्चित रूप से ही, (जातः) प्रकटत्वं गतः=प्रकट करने के लिये, (यमः) नियन्ता= नियंत्रक, (जनित्वम्) जन्मादिकारणम्= जन्म आदि के कारण, (कनीनाम्) कन्येव वर्त्तमानानां रात्रीणां सूर्य्यादीनां वा=कन्या के समान वर्त्तमान रात्रि या सूर्य आदि के, (जारः) हन्ता सूर्य्यः=नष्ट कर देनेवाले सूर्य के, (इव)=समान, (जनीनाम्) जनानां प्रजानाम्=प्रजाओं के, (पतिः) पालयिता=रक्षक, (च)=भी, (अस्ति)=है, (सः)=वह, (सृष्टा) युद्धाय प्रेरिता=युद्ध के लिये प्रेरित करनेवाला, {अमम्} अपरिपक्वविज्ञानं जनम्= विकासोन्मुख विशेष ज्ञान को उत्पन्न करनेवाला. (सेनेव) यथा=जैसे, {सुशिक्षिता} वीरपुरुषाणां विजयकर्त्री सेनास्ति तथाभूतः=वीर पुरुषों की विजय प्राप्त करनेवाली सेना के समान, (अस्तुः) शत्रूणां विजेतुः प्रक्षेप्तुः=शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने के लिये, (त्वेषप्रतीका)=तेज के प्रतीक, (दिद्युत्) विच्छेदिका=चीर देनेवाली के, (न) इव =समान, (आ)=हर ओर से, (दधाति) धरति=धारण करता है, (तम्)=उसका, (भजत)= सेवन करो ॥४॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। विद्या के उचित प्रयत्न द्वारा जैसे उत्तम शिक्षा प्राप्त की हुई सेना शत्रुओं को जीत कर विजय प्राप्त करती है और जैसे धनुर्वेद के जाननेवाले विशेषज्ञ शत्रुओं के ऊपर शस्त्र-अस्त्रों को फेंक कर उनका विघटन कर देते हैं, वैसे उत्तम सेनापति सब दुःखों का नाश करता है, ऐसा मनुष्यों के द्वारा जानना चाहिए ॥४॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (मनुष्याः) मनुष्यों! (यूयम्) तुम सब, (यः) जो (अयम्) इस (सेनेशः) सेनापति को {यमः} सबसे उपर रखते हो, {ह} निश्चित रूप से ही (जातः) प्रकट करने के लिये (यमः) नियंत्रक हो। (जनित्वम्) जन्म आदि की निमित्त (कनीनाम्) कन्या के समान और वर्त्तमान रात्रि के (जारः) नष्ट कर देनेवाले सूर्य के (इव) समान और (जनीनाम्) प्रजाओं का (पतिः) रक्षक (च) भी (अस्ति) है। (सः) वह (सृष्टा) युद्ध के लिये प्रेरित करनेवाला, {अमम्} विकासोन्मुख विशेष ज्ञान को उत्पन्न करनेवाला (सेनेव) जैसे, {सुशिक्षिता} वीर पुरुषों की विजय प्राप्त करनेवाली सेना के समान (अस्तुः) शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने के लिये (त्वेषप्रतीका) तेज के प्रतीक से (दिद्युत्) विच्छेदक के (न) समान (आ) हर ओर से (दधाति) धारण करता है। (तम्) उसका (भजत) तुम सेवन करो ॥४॥
संस्कृत भाग
स्वर सहित पद पाठ सेना॑ऽइव । सृ॒ष्टा । अम॑म् । द॒धा॒ति॒ । अस्तुः॑ । न । दि॒द्युत् । त्वे॒षऽप्र॑तीका ॥य॒मः । ह॒ । जा॒तः । य॒मः । जनि॑ऽत्वम् । जा॒रः । क॒नीना॑म् । पतिः॑ । जनी॑नाम् ॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्विद्यया सम्यक् प्रयत्नेन यथा सुशिक्षिता सेना शत्रून् विजित्य विजयं करोति। यथा च धनुर्वेदविदः शत्रूणामुपरि शस्त्रास्त्राणि प्रक्षिप्यैतान् विच्छिद्य प्रलयं गमयन्ति, तथैवोत्तमः सेनाऽधिपतिः सर्वदुःखानि नाशयतीति बोद्धव्यम् ॥४॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Like an army sent up to advance in battle, it wields power and force. Like an electric missile of fire it is blazing and voracious, a symbol of light and fire. It is the guide, controller, and destiny of all that is born, and the guide, controller and destiny of all that is on way to life. It is the paramour of maidens and the protector of wives.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is he (a great leader) is taught further in the seventh Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men, you should admire that Agni (commander of the Army) who terrifies his enemies like a powerful army sent, who is like the bright pointed shaft of an archer against an army, who is controller of all that are born and will be born and free from passions. He is like the sun dispeller of the darkness of the nights and protector of all people.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(कनीनांजार:) कन्येव वर्तमानानां रात्रीणां हन्ता सूर्यः =The sun who dispels the darkness of the nights which are like his daughters. (पतिर्जनीनाम्) पालयिता जनानां प्रजानाम् । =Protector of all people. (यमः) नियन्ता
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There is Upamalankara in the Mantra as several similes have been used. Men should know that a good commander of an army destroys all miseries as a well-trained army conquers the enemies and as the knowers of the science of archery destroy their adversaries by throwing upon them powerful arms.
Subject of the mantra
Then, how should that commander be?This subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O!(manuṣyāḥ)= humans! (yūyam) =all of you, (yaḥ) =those, (ayam) =this, (seneśaḥ) =commader, {yamaḥ} =keep at the top, {ha} =definitely, (jātaḥ)=to manifest, (yamaḥ) =are controller, (janitvam)= medium of birth etc. (kanīnām) =like a girl and of the present night, (jāraḥ) =of the destroying Sun, (iva) =like and, (janīnām) =of people, (patiḥ) =protector, (ca) =also, (asti) =is, (saḥ) =that, (sṛṣṭā) =instigator of war, {amam} =creator of nascent specialized knowledge, (seneva)=like, {suśikṣitā}= like a conquering army of brave men, (astuḥ) =to conquer enemies, (tveṣapratīkā)=by symbol of brilliance, (didyut) =of cutter, (na) =like, (ā) =fom all sides, (dadhāti)=holds, (tam) =his, (bhajata) =you serve,
English Translation (K.K.V.)
O humans! All of you, who keep this commander at the top, are definitely the controllers to manifest. He is like a girl as the medium of birth etc. and is like the Sun that destroys the present night and is also the protector of the people. He is the one who inspires for war, the one who generates nascent special knowledge, like the victorious army of brave men and holds it on all sides like a cutter as a symbol of brilliance to conquer the enemies. You conserve that.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is simile as a figurative in this mantra. Just as a well-trained army conquers its enemies by the proper effort of knowledge and just as an expert in archery destroys the enemies by throwing their weapons, similarly a good commander destroys all sorrows. This should be known by humans.
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