ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 74/ मन्त्र 2
यः स्नीहि॑तीषु पू॒र्व्यः सं॑जग्मा॒नासु॑ कृ॒ष्टिषु॑। अर॑क्षद्दा॒शुषे॒ गय॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठयः । स्नीहि॑तीषु । पू॒र्व्यः । स॒म्ऽज॒ग्मा॒नासु॑ । कृ॒ष्टिषु॑ । अर॑क्षत् । दा॒शुषे॑ । गय॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
यः स्नीहितीषु पूर्व्यः संजग्मानासु कृष्टिषु। अरक्षद्दाशुषे गयम् ॥
स्वर रहित पद पाठयः। स्नीहितीषु। पूर्व्यः। सम्ऽजग्मानासु। कृष्टिषु। अरक्षत्। दाशुषे। गयम् ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 74; मन्त्र » 2
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 21; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 21; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यः पूर्व्यो जगदीश्वरः संजग्मानासु स्नीहितीषु कृष्टिषु दाशुषे गयमरक्षत् तस्मा अग्नयेऽध्वरं मन्त्रं यथा वयं वोचेम तथा यूयमपि वदत ॥ २ ॥
पदार्थः
(यः) जगदीश्वरः (स्नीहितीषु) स्नेहकारिणीषु। अत्रान्येषामपि दृश्यत इति दीर्घः। (पूर्व्यः) पूर्वैः साक्षात्कृतः (संजग्मानासु) सङ्गच्छन्तीषु (कृष्टिषु) मनुष्यादिप्रजासु (अरक्षत्) रक्षति (दाशुषे) विद्यादिशुभगुणानां दात्रे (गयम्) धनम्। गयमिति धननामसु पठितम्। (निघं०२.१०) ॥ २ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। पुरस्तात् (अग्नये) (अध्वरम्) (मन्त्रम्) (वोचेम) इति पदचतुष्टयमत्रानुवर्त्तते, नहि कस्यापि प्रजास्थस्य जीवस्य परमेश्वरेण विना यथावद्रक्षणं सुखं च जायते तस्मादयं सर्वैस्सदा सेवनीयः ॥ २ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह परमेश्वर कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जो (पूर्व्यः) पूर्वज विद्वान् लोगों से साक्षात्कार किया हुआ जगदीश्वर (संजग्मानासु) एक-दूसरे के सङ्ग चलती हुई (स्नीहितीषु) स्नेह करनेवाली (कृष्टिषु) मनुष्य आदि प्रजा में (दाशुषे) विद्यादि शुभ गुण देनेवाले के लिये (गयम्) धन की (अरक्षत्) रक्षा करता है, उस (अग्नये) ईश्वर के लिये (अध्वरम्) हिंसारहित (मन्त्रम्) विचार को हम लोग (वोचेम) कहें, वैसे तुम भी कहा करो ॥ २ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। पूर्व मन्त्र से (अग्नये) (अध्वरम्) (मन्त्रम्) (वोचेम) इन चार पदों की अनुवृत्ति आती है। प्रजा में रहनेवाले किसी जीव का परमेश्वर के विना रक्षण और सुख नहीं हो सकता, इससे सब मनुष्यों को उचित है कि इसका सेवन सर्वदा करें ॥ २ ॥
विषय
दाश्वान् को गय की प्राप्ति
पदार्थ
१. (यः) = वह प्रभु (स्नीहितीषु) = [स्नेहयति वधकर्मा] काम - क्रोधादि का वध करनेवाली (संजगमानासु) = परस्पर प्रेम से संगत होनेवाली (कृष्टिषु) = प्रजाओं में (पूर्व्यः) = पूरण करनेवाला है । प्रभु उन लोगों का पूरण करते हैं जो [क] काम - क्रोधादि के संहार के लिए प्रयत्नशील हों, [ख] परस्पर प्रेम व मेल से चलें, [ग] कृष्टिरूप श्रमवाले कार्यों को करनेवाले हों । २. ये प्रभु (दाशुषे) = दाश्वान् के लिए - अपना समर्पण करनेवाले के लिए (गयम्) = धन को [नि० २/१०] (अरक्षत्) = रक्षित करते हैं । प्रभुकृपा से दाश्वान् को जीवन - यात्रा के लिए पर्याप्त धन मिलता है । धन के अभाव के कारण उसके कार्य रुके नहीं रह जाते ।
भावार्थ
भावार्थ - हम कामादि शत्रुओं का संहार करें, परस्पर प्रेमवाले हों, श्रमशील हों, प्रभु के प्रति अर्पण करनेवाले बनें, प्रभु हमें पर्याप्त धन देंगे ही ।
विषय
राजा और विद्वान् के कर्तव्योपदेश ।
भावार्थ
(यः) जो ईश्वर (स्नीहितीषु) स्नेह करने वाली ( संजग्मानासु ) अतएव परस्पर प्रेमभाव से सत्संग करनेवाली (कृष्टिषु) प्रजाओं में (पूर्व्यः) सदा पूर्व उत्पन्न शिक्षित विद्वानों द्वारा अपने से आगे आनेवालों के प्रति साक्षात् उपदेश करने योग्य है । और जो ( दाशुषे ) अन्यों को विद्या आदि का दान करने वाले तथा अपने आपको ईश्वर के प्रति समर्पण करने वाले उपासक के ( गयम् ) धनैश्वर्य और प्राण जीवन की भी ( अरक्षत्) रक्षा करता है। राजा के पक्ष में—जो स्नेह से परस्पर संघटित प्रजाओं के बीच (पूर्व्यः) सबसे मुख्यपद के योग्य है, वह दानशील, धनाढ्य और ज्ञानवान् पुरुष के ( गयम् ) धन और प्राण की रक्षा करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोतमो राहूगण ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१ निचृत्पंक्तिः । २ निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ५ विराट् त्रिष्टुप् ॥
विषय
विषय (भाषा)- फिर वह परमेश्वर कैसा है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे मनुष्याः ! यः पूर्व्यः जगदीश्वरः संजग्मानासु स्नीहितीषु कृष्टिषु दाशुषे गयम् अरक्षत् तस्मा अग्नये अध्वरं मन्त्रं यथा वयं वोचेम तथा यूयम् अपि वदत ॥२॥
पदार्थ
पदार्थः- हे (मनुष्याः)= मनुष्यों ! (यः) जगदीश्वरः=परमेश्वर, (पूर्व्यः) पूर्वैः साक्षात्कृतः=पहले जिसका साक्षात्कार किया है, ऐसा, (जगदीश्वरः)= परमेश्वर, (संजग्मानासु) सङ्गच्छन्तीषु=संगति किये हुओं में, (स्नीहितीषु) स्नेहकारिणीषु=स्नेह करनेवालों में, (कृष्टिषु) मनुष्यादिप्रजासु=मनुष्य आदि सन्तानों में, (दाशुषे) विद्यादिशुभगुणानां दात्रे= विद्या आदि शुभ गुणों के देनेवाले, (गयम्) धनम्= धन की, (अरक्षत्) रक्षति=रक्षा करता है, (तस्मा)=उस, (अग्नये)=परमेश्वर के लिये, (अध्वरम्)=अहिंसक, (मन्त्रम्) विचारम्= विचार का, (यथा)=जैसे, (वयम्)=हम, (वोचेम) उच्याम=उच्चारण करते हैं, (तथा)=वैसे ही, (यूयम्)=तुम सब, (अपि)=भी, (वदत) बोलिये, अर्थात् उच्चारण कीजिये ॥२॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। इस मन्त्र में पहले मन्त्र से ‘अग्नये’, ‘अध्वरम्’, ‘मन्त्रम्,’ और ‘वोचेम’ इन चार पदों की अनुवृत्ति आती है। सन्तानों में स्थित किसी जीव का परमेश्वर के विना ठीक-ठीक रक्षण और सुख नहीं हो सकता है, इसलिये वह परमेश्वर सब मनुष्यों के द्वारा पूजनीय है ॥२॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (मनुष्याः) मनुष्यों ! (यः) जिस परमेश्वर का (पूर्व्यः) पहले जिसका साक्षात्कार किया है, ऐसा (जगदीश्वरः)= परमेश्वर (संजग्मानासु) संगति किये हुओं में (स्नीहितीषु) स्नेह करनेवालों में, (कृष्टिषु) मनुष्य आदि सन्तानों में, (दाशुषे) विद्या आदि शुभ गुणों के देनेवाले (गयम्) धन की (अरक्षत्) रक्षा करता है। (तस्मा) उस (अग्नये) परमेश्वर के लिये (अध्वरम्) अहिंसक (मन्त्रम्) विचार का (यथा)=जैसे, (वयम्) हम (वोचेम) उच्चारण करते हैं, (तथा) वैसे ही (यूयम्) तुम सब (अपि) भी (वदत) बोलिये, अर्थात् उच्चारण कीजिये ॥२॥
संस्कृत भाग
यः । स्नीहि॑तीषु । पू॒र्व्यः । स॒म्ऽज॒ग्मा॒नासु॑ । कृ॒ष्टिषु॑ । अर॑क्षत् । दा॒शुषे॑ । गय॑म् ॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। पुरस्तात् (अग्नये) (अध्वरम्) (मन्त्रम्) (वोचेम) इति पदचतुष्टयमत्रानुवर्त्तते, नहि कस्यापि प्रजास्थस्य जीवस्य परमेश्वरेण विना यथावद्रक्षणं सुखं च जायते तस्मादयं सर्वैस्सदा सेवनीयः ॥२॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. पूर्वीच्या मंत्रातील (अग्नये) (अध्वरम्) (मन्त्रम्) (वोचेम) या चार पदांची अनुवृत्ती होते. परमेश्वराशिवाय प्रजेमधील कोणत्याही जीवाचे रक्षण होऊ शकत नाही व सुखही प्राप्त होऊ शकत नाही. त्यासाठी सर्व माणसांनी त्याचे सदैव ग्रहण करावे. ॥ २ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Agni is the eternal lord of yajna who, in gatherings of people meeting for the purpose of fellowship and yajna of love, protects and promotes the wealth of the generous yajamana.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is He (God) is taught in the 2nd Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! As we chant our non-violent loving Mantra. to God who is the First and the Best, ever to be worshipped, present among the people who go forwardly, harmoniously loving one another, so you should also do. He preserves His wealth for those who give themselves up to Him and are engaged in giving the wealth of knowledge and other virtues.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(कृष्टिषु) मनुष्यादिप्रजासु = Men and other subjects. कृष्टय इति मनुष्यनाम (निघ० २.१० ) (गयम्) धनम् गयमिति धननाम (निघ० २.१०)
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
It is not possible for any soul to have protection and happiness without God. Therefore He should be ever worshipped by all.
Subject of the mantra
Then what kind of that God is?This subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (manuṣyāḥ) =humans, (yaḥ) =of which God, (pūrvyaḥ) have encountered earlier, such, (jagadīśvaraḥ) =God, (saṃjagmānāsu) = among those who have accompanied, (snīhitīṣu) =among those who love, (kṛṣṭiṣu) =among the descendants of humans, (dāśuṣe)= giver of auspicious qualities like knowledge etc., (gayam) =of wealth, (arakṣat) =protects, (tasmā) =that, (agnaye) =for God, (adhvaram) =no-violent, (mantram) =of thought, (yathā) =like, (vayam) =we, (vocema) =pronounce, (tathā) =similarly, (yūyam) =all of you, (api) =also, (vadata)= speak, that is, pronounce.
English Translation (K.K.V.)
O humans! The God whom we have encountered earlier, such a God protects those who have company, those who love him, humans etc. in their children, the wealth that bestows good qualities like knowledge etc. Just as we pronounce non-violent thoughts for God, all of you should also speak, that is, pronounce.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. In this mantra, from the first mantra these four terms- ‘agnaye’, ‘adhvaram’, ‘mantram,’ and ‘vocema’ are in continuance. No living being among the children can have proper protection and happiness without God, that is why that God is reverend by all human beings.
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