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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 80 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 80/ मन्त्र 10
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    इन्द्रो॑ वृ॒त्रस्य॒ तवि॑षीं॒ निर॑ह॒न्त्सह॑सा॒ सहः॑। म॒हत्तद॑स्य॒ पौंस्यं॑ वृ॒त्रं ज॑घ॒न्वाँ अ॑सृज॒दर्च॒न्ननु॑ स्व॒राज्य॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रः॑ । वृ॒त्रस्य॑ । तवि॑षीम् । निः । अ॒ह॒न् । सह॑सा । सहः॑ । म॒हत् । तत् । अ॒स्य॒ । पौंस्य॑म् । वृ॒त्रम् । ज॒घ॒न्वा॒न् । अ॒सृ॒ज॒त् । अर्च॑न् । अनु॑ । स्व॒ऽराज्य॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रो वृत्रस्य तविषीं निरहन्त्सहसा सहः। महत्तदस्य पौंस्यं वृत्रं जघन्वाँ असृजदर्चन्ननु स्वराज्यम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रः। वृत्रस्य। तविषीम्। निः। अहन्। सहसा। सहः। महत्। तत्। अस्य। पौंस्यम्। वृत्रम्। जघन्वान्। असृजत्। अर्चन्। अनु। स्वऽराज्यम् ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 80; मन्त्र » 10
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 30; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तस्य गुणा उपदिश्यन्ते ॥

    अन्वयः

    य इन्द्रो वृत्रमिव शत्रुं जघन्वान् यः सहसा वृत्रस्य सूर्य्य इव शत्रोस्तविषीं निरहन्, स्वराज्यमन्वर्चन्, सुखमसृजत्, तदस्य महत्पौंस्यं सहोऽस्तीति विद्वान् विजानातु ॥ १० ॥

    पदार्थः

    (इन्द्रः) सूर्य इव पराक्रमी सभाध्यक्षः (वृत्रस्य) मेघस्य वा शत्रोः (तविषीम्) बलम् (निः) नितराम् (अहन्) हन्यात् (सहसा) बलेन (सहः) बलम् (महत्) (तत्) (अस्य) (पौंस्यम्) पुंसो भावः कर्म बलं वा। पौंस्यानीति बलनामसु पठितम्। (निघं०२.९) (वृत्रम्) (जघन्वान्) हतवान् (असृजत्) सृजति (अर्चन्) (अनु) (स्वराज्यम्) ॥ १० ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्यो महता बलेन तेजसा सर्वमाकृष्य प्रकाशते, तथैव सभाद्यध्यक्षादिभिर्महता बलेन शुभगुणानाकृष्य न्यायप्रकाशेन राज्यमनुशासनीयम् ॥ १० ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर भी पूर्वोक्त सभाध्यक्ष के गुणों का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    जो (इन्द्रः) सभाध्यक्ष विद्युत्स्वरूप सूर्य्य (वृत्रम्) मेघ को नष्ट करने के समान शत्रु को (जघन्वान्) मारता हुआ निरन्तर हनन करता है तथा जो (सहसा) बल से सूर्य जैसे (वृत्रस्य) मेघ के बल को वैसे शत्रु के (तविषीम्) बल को (निरहन्) निरन्तर हनन करता और (स्वराज्यम्) अपने राज्य का (अन्वर्चन्) सत्कार करता हुआ सुख को (असृजत्) उत्पन्न करता है (तत्) वही (अस्य) इस का (महत्) बड़ा (पौंस्यम्) पुरुषार्थरूप बल के (सहः) सहन का हेतु है ॥ १० ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य्य अत्यन्त बल और तेज से सबका आकर्षण और प्रकाश करता है, वैसे सभाध्यक्ष आदि को उचित है कि अपने अत्यन्त बल से शुभ गुणों के आकर्षण और न्याय के प्रकाश से राज्य की शिक्षा करें ॥ १० ॥

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    विषय

    वृत्र - तविषी - हनन

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार प्रभु की उपासना करनेवाला (इन्द्रः) = जितेन्द्रिय पुरुष (वृत्रस्य) = ज्ञान पर आवरण के रूप में आये हुए काम के (तविषीम्) = बल को (निरहन्) = निश्चय से नष्ट करता है । प्रभु की उपासना से वासना का बल अवश्य विनष्ट हो जाता है । पुराण की भाषा में महादेव के सामने कामदेव भस्म हो जाता है । २. यह प्रभु का उपासक इन्द्र (सहसा) = अपने उपासना - जनित बल से शत्रुओं का मर्षण करनेवाले (सहः) = काम के मर्षक बल को (निरहन्) = समाप्त कर देता है । ३. (अस्य) = इस इन्द्र का (तत्) = वह (पौंस्यम्) = पौरुष का कार्य (महत्) = अत्यन्त महनीय [आदर के योग्य] होता है कि यह (वृत्रं जघन्वान्) = ज्ञान की आवरणभूत वासना को नष्ट करके (असृजत्) = उत्कृष्ट शक्ति का निर्माण करता है । यह होता तभी है जब (अर्चन् अनु स्वराज्यम्) = यह आत्मशासन की भावना का आदर करता है, आत्मशासन का लक्ष्य करके प्रभु का आराधन करता है

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु का उपासक वृत्र के बल का विनाश करके उत्कृष्ट शक्ति का निर्माण करता है ।

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    विषय

    पक्षान्तर में ईश्वरोपासना और परमेश्वर के स्वराट् रूप की अर्चना ।

    भावार्थ

    ( इन्द्रः ) विद्युत् या वायु सूर्य के समान तेजस्वी राजा ( वृत्रस्य ) मेघ के समान उमड़ते हुए शत्रु की ( तविषीम् ) बलवती सेना को और उस के ( सहः ) सामर्थ्य को ( सहसा ) अपने बल पराक्रम से ( निर् अहन् ) सब प्रकार से नाश करे । जो वह ( वृत्रं जघन्वान् ) बढ़ते हुए या विरुद्धाचरण करते हुए शत्रु को नाश कर ( असृजत् ) जलधाराओं के समान प्रजाओं को आनन्द से युक्त सुखी कर देता है ( तत् ) वह ही ( अस्य ) उस का ( महत् ) बड़ा भारी (पौंस्यम्) पौरुष है । वह ही ( स्वराज्यम् अनु अर्चन् ) अपनी राज्यशक्ति को नित्य बढ़ाता रहे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोतमो राहूगण ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः—१, ११ निचृदास्तारपंक्तिः । ५, ६, ९, १०, १३, १४ विराट् पंक्तिः । २—४, ७,१२, १५ भुरिग् बृहती । ८, १६ बृहती ॥ षोडशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    विषय (भाषा)- फिर भी पूर्वोक्त सभाध्यक्ष के गुणों का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- यः इन्द्रः वृत्रम् इव शत्रुं जघन्वान् यः सहसा वृत्रस्य सूर्य्य इव शत्रोः तविषीं निः अहन् स्वराज्यम् अनु अर्चन् सुखम् असृजत् तत् अस्य महत् पौंस्यं सहः अस्ति इति विद्वान् विजानातु ॥१०॥

    पदार्थ

    पदार्थः- (यः)=जो, (इन्द्रः) सूर्य इव पराक्रमी सभाध्यक्षः=सूर्य के समान पराक्रमी सभाध्यक्ष है, [उसने], (वृत्रम्)=बादल के, (इव)=समान, (शत्रुम्)= शत्रु को, (जघन्वान्) हतवान्=मार दिया, (यः)=जो, (सहसा) बलेन=बल से, (वृत्रस्य) मेघस्य वा शत्रोः= बादल या शत्रु को, सूर्य्यः)=सूर्य के, (इव) =समान, (शत्रोः)=शत्रु के, (तविषीम्) बलम्=बल को, (निः) नितराम्=अच्छे प्रकार से, (अहन्) हन्यात्= नष्ट कर दे, (स्वराज्यम्)=अपने राज्य की, (अनु)=भलाई के लिये, (अर्चन्)=उत्तम कार्य करता हुआ, (सुखम्)=सुख, (असृजत्) सृजति=उत्पन्न करता है, (अस्य)=इसके, (महत्)=बड़े, (पौंस्यम्) पुंसो भावः कर्म बलं वा=पौरुषत्व का भाव, कर्म या बल, (सहः) बलम्= बल, (अस्ति)=है, (इति)=ऐसा, (विद्वान्)= विद्वान्, (विजानातु)=जानो ॥१०॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य अत्यन्त बल और तेज से सबको आकर्षित करके प्रकाश करता है, वैसे ही सभाध्यक्ष आदि के द्वारा बड़े बल से शुभ गुणों को आकर्षित करके न्याय के प्रकाश से राज्य का अनुशासन करना चाहिए ॥१०॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- (यः) जो (इन्द्रः) सूर्य के समान पराक्रमी सभा का अध्यक्ष है, [जैसे सूर्य बादल को मारकर छिन्न-भिन्न करता है, उसने] (वृत्रम्) बादल के (इव) समान (शत्रुम्) शत्रु को (जघन्वान्) मारकर छिन्न-भिन्न दिया है। (यः) जो (सहसा) बल से (शत्रोः) शत्रु (वृत्रस्य) बादल या उसके (तविषीम्) बल को, (सूर्य्यः) सूर्य के (इव) समान (निः) अच्छे प्रकार से (अहन्) नष्ट कर देता है, [वह] (स्वराज्यम्) अपने राज्य की (अनु) भलाई के लिये (अर्चन्) उत्तम कार्य करता हुआ (सुखम्) सुख (असृजत्) उत्पन्न करता है। (अस्य) इसका (महत्) बड़े (पौंस्यम्) पौरुषत्व का भाव, कर्म या (सहः) बल (अस्ति) है। [हे] (विद्वान्) विद्वान्! (इति) ऐसा (विजानातु) तुम जानो ॥१०॥

    संस्कृत भाग

    इन्द्रः॑ । वृ॒त्रस्य॑ । तवि॑षीम् । निः । अ॒ह॒न् । सह॑सा । सहः॑ । म॒हत् । तत् । अ॒स्य॒ । पौंस्य॑म् । वृ॒त्रम् । ज॒घ॒न्वा॒न् । अ॒सृ॒ज॒त् । अर्च॑न् । अनु॑ । ऽराज्य॑म् ॥ विषयः- पुनस्तस्य गुणा उपदिश्यन्ते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्यो महता बलेन तेजसा सर्वमाकृष्य प्रकाशते, तथैव सभाद्यध्यक्षादिभिर्महता बलेन शुभगुणानाकृष्य न्यायप्रकाशेन राज्यमनुशासनीयम् ॥१०॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा सूर्य अत्यंत बल व तेजाने सर्वांचे आकर्षण करून प्रकाशही देतो तसे सभाध्यक्ष इत्यादींनीही आपल्या अत्यंत बलाने शुभगुणाच्या आकर्षणाने व न्यायाच्या प्रकाशाने राज्याचे प्रशासन चालवावे. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Indra, lord mighty as the force of lightning, with his courage and valour breaks down and eliminates the force and power of Vrtra, demon of ignorance, injustice and poverty. Great is that manliness and virility of his. Destroyer of the forces of darkness and slavery, he releases the spirit of freshness and the waters of new life in dedication and reverence to freedom and sovereignty of the grand world order of humanity.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of Indra (President or king) are taught further in the tenth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    That this mighty President or King strikes down and shatters the power of his foe as the sun does of the cloud and that even as the sun diffuses his pleasant light welcoming his sovereign authority imparts happiness to his friends and subjects, as the result of his great power and endurance.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (इन्द्र) विद्युत् इव पराक्रमी सभाध्यक्ष: = President who is mighty like the lightning or electricity. (तविषीम् ) बलम् = Strength. (तविषीति बलनाम निघ० २.६ ) (पौंस्यम्) पुंसोभाव: कर्म बलवान पौस्यानीति बलनाम (निघ० २.६ ) = Virility, vitality, force.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the sun shines by attracting all with his great power and splendour, in the same manner, the President and others should govern the State with great might and with the light of justice attracting good virtues.

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    Subject of the mantra

    Even then, the qualities of the aforesaid President of the Assembly have been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (yaḥ) =who (indraḥ)= is the President of the Assembly as mighty as the Sun, [jaise sūrya bādala ko mārakara chinna-bhinna karatā hai, usane]= Just as the sun disintegrates a cloud, he, (vṛtram) =of cloud, (iva) =like, (śatrum) =to enemy, (jaghanvān)=has killed and disintegrated, (yaḥ) =who, (sahasā) =by force, (śatroḥ) =enemy, (vṛtrasya) =of cloud or his, (taviṣīm) =to force, (sūryyaḥ) =of Sun, (iva) =like, (niḥ) =in a good manner, (ahan) =destroys, [vaha]=he, (svarājyam) =of own kingdom, (anu) =for welfare, (arcan) =by doing good work, (sukham) =happiness, (asṛjat) =attains, (asya) =its, (mahat)= great, (pauṃsyam)= feeling of masculinity, =deed or, (sahaḥ)= strength, (asti) =is, [he]=O! (vidvān) =scholar, (iti) =such, (vijānātu) =you know.

    English Translation (K.K.V.)

    He who is the President of the Assembly as mighty as the Sun, just as the Sun kills and disintegrates the clouds, like a cloud has killed and disintegrated the enemy. He who by force destroys the enemy cloud or its force in a good manner, like the Sun, he attains happiness by doing good work for the welfare of his kingdom. It has a feeling of great masculinity, action or strength. O scholar! You know this.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is simile as a figurative in this mantra. Just as the Sun attracts everyone with great force and brightness and illuminates it, in the same way, the state should be disciplined with the light of justice by attracting auspicious qualities with great force by the President of the Assembly et cetera.

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