Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 82 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 82/ मन्त्र 5
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराडास्तारपङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    यु॒क्तस्ते॑ अस्तु॒ दक्षि॑ण उ॒त स॒व्यः श॑तक्रतो। तेन॑ जा॒यामुप॑ प्रि॒यां म॑न्दा॒नो या॒ह्यन्ध॑सो॒ योजा॒ न्वि॑न्द्र ते॒ हरी॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒क्तः । ते॒ । अ॒स्तु॒ । दक्षि॑णः । उ॒त । स॒व्यः । श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो । तेन॑ । जा॒याम् । उप॑ । प्रि॒याम् । म॒न्दा॒नः । या॒हि॒ । अन्ध॑सः । योज॑ । नु । इ॒न्द्र॒ । ते॒ । हरी॒ इति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युक्तस्ते अस्तु दक्षिण उत सव्यः शतक्रतो। तेन जायामुप प्रियां मन्दानो याह्यन्धसो योजा न्विन्द्र ते हरी ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    युक्तः। ते। अस्तु। दक्षिणः। उत। सव्यः। शतक्रतो इति शतऽक्रतो। तेन। जायाम्। उप। प्रियाम्। मन्दानः। याहि। अन्धसः। योज। नु। इन्द्र। ते। हरी इति ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 82; मन्त्र » 5
    अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 3; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कथं कुर्यादित्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे इन्द्र ! शतक्रतो तव यौ सुशिक्षितौ हरी स्त एतौ रथे त्वं नु योज, यस्य ते तव रथस्यैकोऽश्वो दक्षिणपार्श्वस्थः युक्त उतापि द्वितीयः सव्यो युक्तोऽस्तु तेन रथेनाऽरीन् जित्वा प्रियां जायां मन्दानस्त्वमन्धस उपयाहि प्राप्नुहि द्वौ मिलित्वा शत्रुविजयार्थं गच्छेताम् ॥ ५ ॥

    पदार्थः

    (युक्तः) कृतयोजनः (ते) तव (अस्तु) भवतु (दक्षिणः) एको दक्षिणपार्श्वस्थः (उत) अपि (सव्यः) द्वितीयो वामपार्श्वस्थः (शतक्रतो) शतधाक्रतुः प्रज्ञाकर्म वा यस्य तत्सम्बुद्धौ (तेन) रथेन (जायाम्) स्वस्त्रियम् (उप) समीपे (प्रियाम्) प्रीतिकारिणीम् (मन्दानः) आनन्दयन् (याहि) गच्छ प्राप्नुहि वा (अन्धसः) अन्नादेः (योज) (नु) शीघ्रम् (इन्द्र) (ते) (हरी) ॥ ५ ॥

    भावार्थः

    राज्ञा स्वपत्न्या सह सुशिक्षितैरश्वैर्युक्ते याने स्थित्वा युद्धे विजयो व्यवहारे आनन्दः प्राप्तव्यः। यत्र यत्र युद्धे क्वचिद् भ्रमणार्थं वा गच्छेत्, तत्र तत्र सुशिल्पिरचिते दृढे रथे स्त्रिया सहितः स्थित्वैव यायात् ॥ ५ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह कैसे करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) सबको सुख देनेहारे (शतक्रतो) असंख्य उद्यम बुद्धि और क्रियाओं से युक्त ! (ते) आपके जो सुशिक्षित (हरी) घोड़े हैं, उनको रथ में तू (नु योज) शीघ्र युक्त कर, जिस (ते) तेरे रथ के (एकः) एक घोड़ा (दक्षिणः) दाहिने (उत) और दूसरा (सव्यः) बाईं ओर (अस्तु) हो (तेन) उस रथ पर बैठ शत्रुओं को जीत के (प्रियाम्) अतिप्रिय (जायाम्) स्त्री को साथ बैठा (मन्दानः) आप प्रसन्न और उसको प्रसन्न करता हुआ (अन्धसः) अन्नादि सामग्री के (उप याहि) समीपस्थ होके तुम दोनों शत्रुओं को जीतने के अर्थ जाया करो ॥ ५ ॥

    भावार्थ

    राजा को योग्य है कि अपनी राणी के साथ अच्छे सुशिक्षित घोड़ों से युक्त रथ में बैठ के युद्ध में विजय और व्यवहार में आनन्द को प्राप्त होवें। जहाँ-जहाँ युद्ध में वा भ्रमण के लिये जावें, वहाँ-वहाँ उत्तम कारीगरों से बनाये सुन्दर रथ में स्त्री के सहित स्थित हो के ही जावें ॥ ५ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    दक्षिण व सव्य अश्व [जाया = उपयान]

    पदार्थ

    १. हे (शतक्रतो) = अनन्त प्रज्ञा व कर्मोंवाले प्रभो ! (ते) = आपका (दक्षिणः) = दाहिने पार्श्व में जुतनेवाला (अश्व युक्तः अस्तु) = इस रथ में जुता हुआ हो । 'दक्षिण' शब्द चतुर, कुशल, समझदार, ज्ञानी की भावना को देता हुआ ज्ञानेन्द्रियरूप अश्व का संकेत दे रहा है । २. हे शतक्रतो ! (उत) = और (सव्यः) वाम पार्श्व में जुतनेवाला घोड़ा भी युक्त हो । 'पू' धातु से निष्पन्न यह सव्य शब्द उत्पादन व निर्माण का संकेत करता है, एवं, यह कर्मेन्द्रियरूप अश्व का बोधक है । ज्ञानेन्द्रियरूप अश्व 'दक्षिण' है, कर्मेन्द्रियरूप अश्व 'सव्य' है । ३. (तेन) = इस प्रकार दक्षिण व सव्य अश्व से युक्त उस रथ से (प्रियां जायाम्) = प्रीणित करनेवाली वेदवाणीरूप जाया [पत्नी] के (उपयाहि) = समीप प्राप्त हो । वेदवाणी पत्नी हो, तू उसका पति हो । वेदवाणी से ही तेरा परिणय हो जाए । इसी उद्देश्य से तू (अन्धसा) = सोम के द्वारा (मन्दानः) = हर्ष का अनुभव करनेवाला हो । वस्तुतः अध्ययन की वृत्ति हमें वासनाओं से ऊपर उठाती है और सोमरक्षण के योग्य बनाती है । ४. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! आप (ते हरी) = अपने इन दक्षिण व सव्य अश्वों को (योजा नु) = हमारे शरीर = रथ में अवश्य जोतिए ही । इनके द्वारा ही हमारी यात्रा पूर्ण होती है ।

    भावार्थ

    भावार्थ = हमारा शरीर = रथ ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप अश्वों से युक्त हो । वेदवाणी हमारी जाया हो, हम उसके पति बनें । सोमरक्षण से हम आनन्द का अनुभव करें ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    वीर पुरुष ।

    भावार्थ

    हे ( शतक्रतो ) सैकड़ों प्रकार के कर्म, सामर्थ्य और प्रज्ञानों के जानने हारे ! विद्वन् ! ( ते ) तू अपने (हरी) दोनों अश्वों को (योज नु) रथ में जोड़ । ( ते ) तेरे ( दक्षिणः ) दायें पार्श्व का ( उत ) और ( सव्यः ) बायें पार्श्व का अश्व भी ( युक्तः अस्तु ) अच्छी प्रकार से जुड़े । (तेन) उस रथ से ( प्रियां जायां मन्दानः ) पुत्रों की उत्पादक प्रिय स्त्री को और ऐश्वर्यों की उत्पादक प्रिय भूमि को ( मन्दानः ) अति हर्षित करता हुआ (अन्धसः उप याहि) ऐश्वर्यों को प्राप्त कर । अथवा ( अन्धसः प्रियां मन्दानः रथेन उपयाहि) अन्न आदि भोग्य पदार्थों से प्रिय पत्नी को प्रसन्न करता हुआ रथ से देश देशान्तर को प्राप्त हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोतमो राहूगण ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १, ४ निचृदास्तारपंक्तिः । २, ३, ५ विराडास्तारपंक्तिः । ६ विराड् जगती ॥ षङृर्चं सूक्तम् ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    विषय (भाषा)- फिर वह राजा कैसे करे, इस विषय को इस मन्त्र में कहा है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे इन्द्र ! शतक्रतो तव यौ सुशिक्षितौ हरी स्तः एतौ रथे त्वं नु योज, यस्य ते तव रथस्य एकः अश्वः दक्षिणपार्श्वस्थः युक्त उत अपि द्वितीयः सव्यः युक्तःअस्तु तेन रथेन अरीन् जित्वा प्रियां जायां मन्दानः त्वम् अन्धसः उप याहि प्राप्नुहि द्वौ मिलित्वा शत्रुविजयार्थं गच्छेताम् ॥५॥

    पदार्थ

    पदार्थः- हे (इन्द्र) परमैश्वर्य्यप्रापक=परम ऐश्वर्य्य प्राप्त करानेवाले ईश्वर ! (शतक्रतो) शतधाक्रतुः प्रज्ञाकर्म वा यस्य तत्सम्बुद्धौ=असंख्य कर्म और प्रज्ञावाले, (तव)=तुम्हारे, (यौ)=जो, (सुशिक्षितौ)=प्रशिक्षण प्राप्त किये हुए, (हरी)=दो अश्व, (स्तः)=हैं, (एतौ)=इन दोनों को, (रथे)=रथ में, (त्वम्)=तुम, (नु) शीघ्रम्=शीघ्र, (योज)=जोड़ दो, (यस्य)=इस, (ते) तव=तुम्हारे, (रथस्य)=रथ के, (एकः)=एक, (अश्वः)= अश्व को, (दक्षिणः) एको दक्षिणपार्श्वस्थः=दाहिने बगल में, (युक्तः) कृतयोजनः=जोड़ने के बाद, (उत) अपि=भी, (द्वितीयः)=दूसरे को, (सव्यः) द्वितीयो वामपार्श्वस्थः=दूसरे बांये बगल में, (युक्तः+अस्तु) कृतयोजनः भवतु =जोड़ने के बाद [सज्ज हो जाओ]। (तेन) रथेन =उन रथों से, (अरीन्)=शत्रुओं पर, (जित्वा)=विजयी होकर, (प्रियाम्) प्रीतिकारिणीम्=प्रेम करनेवाली, (जायाम्) स्वस्त्रियम्=अपनी पत्नी को, (मन्दानः) आनन्दयन्=आनन्दित करते हुए, (त्वम्)=तुम, (अन्धसः) अन्नादेः=अन्न आदि के, (उप) समीपे=समीप में, (याहि) गच्छ प्राप्नुहि वा=पहुँचो। (द्वौ)=दोनों अश्वों को, (मिलित्वा)= मिलाकर, (शत्रुविजयार्थम्)= शत्रु पर विजय के लिये, (गच्छेताम्)=जाओ ॥५॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- राजा को अपनी पत्नी के साथ प्रशिक्षित घोड़ों से युक्त रथ में बैठ करके युद्ध में विजय प्राप्त करने के कार्य में आनन्द प्राप्त करना चाहिए। जहाँ-जहाँ युद्ध में या भ्रमण के लिये कहीं जायें, वहाँ-वहाँ उत्तम कारीगरों से बनाये हुए दृढ रथ में पत्नी के साथ बैठ करके आवागमन करें।

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (इन्द्र) परम ऐश्वर्य्य प्राप्त करानेवाले ईश्वर ! (शतक्रतो) असंख्य कर्म और प्रज्ञावाले (तव) तुम्हारे, (यौ) जो (सुशिक्षितौ) प्रशिक्षित किये हुए (हरी) दो अश्व (स्तः) हैं, (एतौ) इन दोनों को (त्वम्) तुम (रथे) रथ में (नु) शीघ्र (योज) जोड़ दो। (ते) तुम्हारे (यस्य) इस (रथस्य) रथ के, (एकः) एक, (अश्वः) अश्व को (दक्षिणः) दाहिने बगल में (युक्तः) जोड़ने के बाद (उत) भी (द्वितीयः) दूसरे को (सव्यः) बांये बगल में (युक्तः+अस्तु) जोड़ने के बाद [सज्ज हो जाओ]। (द्वौ) दोनों अश्वों को (मिलित्वा) मिलाकर के (शत्रुविजयार्थम्) शत्रु पर विजय के लिये (गच्छेताम्) जाओ। (तेन) उन रथों से (अरीन्) शत्रुओं पर (जित्वा) विजयी होकर (प्रियाम्) प्रेम करनेवाली (जायाम्) अपनी पत्नी को (मन्दानः) आनन्दित करते हुए (त्वम्) तुम (अन्धसः) अन्न आदि के (उप) समीप में, [भोजन के लिये] (याहि) पहुँचो ॥५॥

    संस्कृत भाग

    यु॒क्तः । ते॒ । अ॒स्तु॒ । दक्षि॑णः । उ॒त । स॒व्यः । श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो । तेन॑ । जा॒याम् । उप॑ । प्रि॒याम् । म॒न्दा॒नः । या॒हि॒ । अन्ध॑सः । योज॑ । नु । इ॒न्द्र॒ । ते॒ । हरी॒ इति॑ ॥ विषयः- पुनः स कथं कुर्यादित्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- राज्ञा स्वपत्न्या सह सुशिक्षितैरश्वैर्युक्ते याने स्थित्वा युद्धे विजयो व्यवहारे आनन्दः प्राप्तव्यः। यत्र यत्र युद्धे क्वचिद् भ्रमणार्थं वा गच्छेत्, तत्र तत्र सुशिल्पिरचिते दृढे रथे स्त्रिया सहितः स्थित्वैव यायात्॥५॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    राजाने आपल्या राणीबरोबर चांगल्या प्रशिक्षित घोड्याच्या रथात बसून युद्धात विजय मिळवावा व व्यवहारात आनंद भोगावा. जेथे जेथे युद्धात किंवा भ्रमण करण्यासाठी जावयाचे असेल तेथे तेथे उत्तम कारागिरांनी बनविलेल्या सुंदर रथात बसून पत्नीसह भ्रमण करावे. ॥ ५ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Indra, hero of a hundred yajnic battles, let your horse power on the right, and your horse power on the left of the chariot be yoked, and, happy at heart, with presents of delicacies, go to meet your darling wife. Lord of love, power and victory, yoke your horses and proceed.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should Indra is taught further in the fifth mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Indra : President of the council of Ministers, Performer of many holy acts and lord of a hundred powers, combined with knowledge, it thy trained horses be harnessed on the right and the left in your chariot. Conquering your enemies, sitting in your chariot approach your beloved wife and gladden her, always taking nourishing good food with delight, along with your wife for getting victory over your adversaries.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (मन्दान:) आनन्दयन् = Gladdening. (अन्धसः) अन्नादे: = Of the food and other things. (मदी-हर्षे-मद-तृप्तियोगे) अन्ध इत्यत्रनाम (निघ० २,७)

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    A King (President of the council of ministers) should conquer his enemies and enjoy bliss while sitting in his chariot with his wife in which trained horses are yoked. Whenever he has to go anywhere for taking walk or in the battle field, he should go along with his wife sitting in a firm chariot constructed by good artists.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject of the mantra

    Then, how should that king act?This subject has been discussed in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (indra) =God who grants ultimate opulence, (śatakrato)=having innumerable deeds and intelligence, (tava)=your, (yau) =those, (suśikṣitau) =trained, (harī) =two horses, (staḥ) =are, (etau) =to both of these, (tvam) =you, (rathe) =in chariot, (nu) =quickly, (yoja) =attach, (te) =your, (yasya) =this, (rathasya) =of chariot,, (ekaḥ) =one, (aśvaḥ) =to horse, (dakṣiṇaḥ) =to left side, (yuktaḥ) =after attaching, (uta) =also, (dvitīyaḥ) =to the other one, (savyaḥ) =to left side, (yuktaḥ+astu) =after attaching, [sajja ho jāo]=be prepared, (dvau) =to both horses, (militvā)= combining, (śatruvijayārtham) =for victory over enemy, (gacchetām) =go, (tena) =with those chariots, (arīn) =over enemies, (jitvā) =having won, (priyām) =loving, (jāyām) =to own wife, (mandānaḥ) =making happy, (tvam) =you, (andhasaḥ) =of food grains etc., (upa) =near, [bhojana ke liye]=for food, (yāhi) = reach.

    English Translation (K.K.V.)

    O God who grants ultimate opulence! Quickly attach to the chariot these two horses of yours, which are trained, having innumerable deeds and intelligence. This chariot of yours, even after attaching one horse to the right side, get ready after attaching the other one to the left side. Combine both the horses and go to conquer the enemy. By conquering your enemies with those chariots and making your loving wife happy, you reach near the food grains etc. for food.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    The king should find joy in the act of winning the war by sitting in a chariot drawn by trained horses along with his wife. Wherever he goes in war or on tour, travel with your wife in a sturdy chariot made by skilled craftsmen.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top