ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 96/ मन्त्र 7
ऋषिः - कुत्सः आङ्गिरसः
देवता - द्रविणोदा अग्निः शुद्धोऽग्निर्वा
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
नू च॑ पु॒रा च॒ सद॑नं रयी॒णां जा॒तस्य॑ च॒ जाय॑मानस्य च॒ क्षाम्। स॒तश्च॑ गो॒पां भव॑तश्च॒ भूरे॑र्दे॒वा अ॒ग्निं धा॑रयन्द्रविणो॒दाम् ॥
स्वर सहित पद पाठनु । च॒ । पु॒रा । च॒ । सद॑नम् । र॒यी॒णाम् । जा॒तस्य॑ । च॒ । जाय॑मानस्य । च॒ । क्षाम् । स॒तः । च॒ । गो॒पाम् । भव॑तः । च॒ । भूरेः॑ । दे॒वाः । अ॒ग्निम् । धा॒र॒य॒न् । द्र॒वि॒णः॒ऽदाम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
नू च पुरा च सदनं रयीणां जातस्य च जायमानस्य च क्षाम्। सतश्च गोपां भवतश्च भूरेर्देवा अग्निं धारयन्द्रविणोदाम् ॥
स्वर रहित पद पाठनु। च। पुरा। च। सदनम्। रयीणाम्। जातस्य। च। जायमानस्य। च। क्षाम्। सतः। च। गोपाम्। भवतः। च। भूरेः। देवाः। अग्निम्। धारयन्। द्रविणःऽदाम् ॥ १.९६.७
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 96; मन्त्र » 7
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 4; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 4; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ।
अन्वयः
हे मनुष्या यं देवा विद्वांसो नु च पुरा च रयीणां सदनं जातस्य जायमानस्य च क्षां भूरेः सतश्च भवतश्च गोपां द्रविणोदामग्निं परमेश्वरं धारयंस्तमेवैकं सर्वशक्तिमन्तं यूयं धरध्वं धारयत वा ॥ ७ ॥
पदार्थः
(नु) शीघ्रम्। ऋचितुनु०। इति दीर्घः। (च) विलम्बेन (पुरा) कार्यात्प्राक्काले (च) वर्त्तमाने (सदनम्) उत्पत्तिस्थितिभङ्गस्य निमित्तकारणम् (रयीणाम्) वर्त्तमानानां पृथिव्यादिकार्य्यद्रव्याणाम् (जातस्य) उत्पन्नस्य कार्य्यस्य (च) प्रलयस्य (जायमानस्य) कल्पान्ते पुनरुत्पद्यमानस्य कार्यस्य जगतः (च) पुनर्वर्त्तमानप्रलययोः समुच्चये (क्षाम्) व्यापकत्वान्निवासहेतुम् (सतः) अनादिवर्त्तमानस्य विनाशरहितस्य कारणस्य (च) कार्यस्य (गोपाम्) रक्षकम् (भवतः) वर्त्तमानस्य (च) भूतभविष्यतोः (भूरेः) व्यापकस्य (देवाः) (अग्निम्०) इति पूर्ववत् ॥ ७ ॥
भावार्थः
भूतभविष्यद्वर्त्तमानानां त्रयाणां कालानामीश्वराद्विना वेत्ता प्रभुः कार्यकारणयोः पापपुण्यात्मककर्मणां व्यवस्थापकोऽन्यः कश्चिदर्थो नास्तीति सदा सर्वैर्जनैर्मन्तव्यम् ॥ ७ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जिसको (देवाः) विद्वान् जन (नु) शीघ्र और (च) विलम्ब से वा (पुरा) कार्य्य से पहिले (च) और बीच में (रयीणाम्) वर्त्तमान पृथिवी आदि कार्य्य द्रव्यों के (सदनम्) उत्पत्ति, स्थिति और विनाश के निमित्त वा (जातस्य) उत्पन्न कार्यजगत् के (च) नाश होने तथा (जायमानस्य) कल्प के अन्त में फिर उत्पन्न होनेवाले कार्यरूप जगत् के (च) फिर इसी प्रकार जगत् के उत्पन्न और विनाश होने में (क्षाम्) अपनी व्याप्ति से निवास के हेतु वा (भूरेः) व्यापक (सतः) अनादिवर्त्तमान विनाशरहित कारणरूप तथा (च) कार्यरूप (भवतः) वर्त्तमान (च) भूत और भविष्यत् उक्त जगत् के (गोपाम्) रक्षक और (द्रविणोदाम्) धन आदि पदार्थों को देनेवाले (अग्निम्) जगदीश्वर को (धारयन्) धारण करते वा कराते हैं, उसी एक सर्वशक्तिमान् जगदीश्वर को धारण करो वा कराओ ॥ ७ ॥
भावार्थ
भूत, भविष्यत् और वर्त्तमान इन तीन कालों का ईश्वर से विना जाननेवाला प्रभु, कार्य कारण वा पापी और पुण्यात्मा जनों के कामों की व्यवस्था करनेवाला अन्य कोई पदार्थ नहीं है, सब यह मनुष्यों को मानना चाहिये ॥ ७ ॥
विषय
धनों का सदन
पदार्थ
१. वे प्रभु (नू च) = [नू - now] अब भी (पुरा च) = पहले भी (रयीणाम्) = सब धनों के (सदनम्) = घर व भण्डार हैं व थे । विष्णु ही लक्ष्मीपति हैं । लक्ष्मी विष्णु के ही गृह की शोभा है । वे प्रभु ही अपने उपासकों को आवश्यक धन दिया करते हैं । (जातस्य) = जो भी लोक लोकान्तर उत्पन्न हुए हैं (च) = और (जायमानस्य) = उन लोकों में उत्पन्न होनेवाले सब प्राणियों को (क्षाम्) = [क्षि - निवास] निवास देनेवाले वे प्रभु ही हैं । प्रभु इसीलिए वसु कहलाते हैं । सबमें प्रभु बसते हैं और सबको अपने - आपमें बसाते हैं ।
२. उस (सतः च) = सदा विद्यमानस्वभाव कारणरूप प्रकृति के (च) = तथा (भवतः) = समय - समय पर उस प्रकृति से उत्पन्न होते हुए (भूरेः) = [भृ धारणपोषणयोः] भरण - पोषण करनेवाले पदार्थों के (गोपाम्) = रक्षक (अग्निम्) = अग्रणी (द्रविणोदाम्) = सब द्रव्यों को देनेवाले प्रभु को (देवाः) = देवलोग (धारयन्) = धारण करते हैं । कार्य - कारणजगत् के पोषक परमात्मा ही हैं । इस कार्यजगत् का प्रत्येक पदार्थ भूरि - भरण व पोषण करनेवाला है । प्रभु का बनाया कोई भी पदार्थ दुःख व अकल्याण के लिए नहीं है । इस प्रभु को ही हमें धारण करना चाहिए । तभी हम प्रकृति के बने इन पदार्थों का ठीक उपयोग करेंगे और इनसे कल्याण सिद्ध करनेवाले होंगे ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु सब धनों के सदन हैं । सबको निवास देनेवाले हैं । सबके रक्षक हैं । उन्हें धारण करनेवाले ही देव बनते हैं ।
विषय
विद्वानों का नायक के प्रति और उसका प्रजाजनों के प्रति कर्तव्य ।
भावार्थ
( नू च ) अब और ( पुरा च) पहले भी ( रयीणां ) समस्त ऐश्वर्यों का ( सदनम् ) एकमात्र आश्रय, ( जातस्य च ) उत्पन्न हुए कार्य-जगत् के और ( जायमानस्य च ) पुनः २ उत्पन्न होने वाले संसार के ( क्षाम् ) एकमात्र आश्रय, ( सतः च ) अनादि काल से वर्तमान अविनाशी कारण और ( भवतः च ) वर्तमान में विकार को प्राप्त होने वाले और ( भूरेः ) व्यापक तथा (च) अन्यान्य बहुत से असंख्य पदार्थों के ( गोपाम् ) रक्षक, धारण करने वाले ( द्रविणोदाम् अग्निम् ) ऐश्वर्यप्रद, जीवनप्रद, सबसे पूर्व विद्यमान परमेश्वर को (देवाः धारयन्) समस्त विद्वान् गण और दिव्य शक्तियां धारण करती हैं। वह उन में व्यापक है । (२) उसी प्रकार नायक पुरुष भी ऐश्वर्यों का आश्रय, वर्त्तमान में उत्पन्न और आगे होने वाले प्राणियों और अब, विद्यमान और आगे प्राप्त होने वाले सब पदार्थों के रक्षक पुरुष को देव, विद्वान् जन मुख्य पद पर स्थापित करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुत्स आङ्गिरस ऋषिः॥ द्रविणोदा अग्निः शुद्धोग्निर्वा देवता ॥ त्रिष्टुप् छन्दः ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
भूत, भविष्य व वर्तमान या तिन्ही काळांचा ईश्वराशिवाय मोठा जाणकार, कार्यकारण, पापी व पुण्यात्मा लोकांच्या कामाची व्यवस्था करणारा दुसरा कोणता पदार्थ नाही, हे सर्व माणसांनी मानले पाहिजे. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni is the new as well as the old and eternal cause and the haven and home of all the material wealth of the created universe already born and what is continuously being bom. It is the holder, sustainer and protector of the constant and the mutable forms of the vast creation. The devas, divinities of nature and humanity, hold on to Agni in faith and maintain the fire of yajna from generation to generation, giver of universal wealth as It is.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is Agni (God) is taught in the seventh Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Men, you should always meditate upon that One Almighty God whom learned persons regard as the efficient cause of the creation, sustenance and dissolution of the earth and other objects, support of all that has been, dissolution and the universe that comes into being after Pralaya, Abode of the material cause and effect, Preserver of all that exists, that has existed and be in future.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(सदनम्) उत्पत्तिस्थितिभंगस्यनिमित्तकारणम् = Efficient course of the creation, sustenance and dissolution of the universe. (रयीणाम्) वर्तमानानां पृथिव्यादिकार्यद्रव्याणाम् = Of the present earth and other produced objects. (क्षाम्) व्यापकत्वान्निवासहेतुम् = The support or sustainer owing to His pervasion.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There is none except God Who is the Knower of the past, present and future and the Director of the cause and effect and the Giver of the fruit of good or bad actions. This is what all should know well.
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