ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 1/ मन्त्र 6
स तु वस्त्रा॒ण्यध॒ पेश॑नानि॒ वसा॑नो अ॒ग्निर्नाभा॑ पृथि॒व्याः । अ॒रु॒षो जा॒तः प॒द इळा॑याः पु॒रोहि॑तो राजन्यक्षी॒ह दे॒वान् ॥
स्वर सहित पद पाठसः । तु । वस्त्रा॑णि । अध॑ । पेश॑नानि । वसा॑नः । अ॒ग्निः । नाभा॑ । पृ॒थि॒व्याः । अ॒रु॒षः । जा॒तः । प॒दे । इळा॑याः । पु॒रःऽहि॑तः । रा॒ज॒न् । य॒क्षि॒ । इ॒ह । दे॒वान् ॥
स्वर रहित मन्त्र
स तु वस्त्राण्यध पेशनानि वसानो अग्निर्नाभा पृथिव्याः । अरुषो जातः पद इळायाः पुरोहितो राजन्यक्षीह देवान् ॥
स्वर रहित पद पाठसः । तु । वस्त्राणि । अध । पेशनानि । वसानः । अग्निः । नाभा । पृथिव्याः । अरुषः । जातः । पदे । इळायाः । पुरःऽहितः । राजन् । यक्षि । इह । देवान् ॥ १०.१.६
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 1; मन्त्र » 6
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 29; मन्त्र » 6
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अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 29; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अध) और फिर (सः-तु-अग्निः) वह ही महान् अग्नि (पृथिव्याः-नाभा) अन्तरिक्ष के मध्य में (इळायाः पदे जातः-अरुषः) वृष्टि के प्राप्ति स्थान मेघ में विद्युद्रूप से प्रकट-रोचमान हुआ (पेशनानि वस्त्राणि वसानः) सुवर्णरूप-सुनहरी वस्त्रसदृश तिरछी साड़ी समान चमचमाती तरङ्ग को पहिनता हुआ (पुरः-हितः) सन्मुख-साक्षात् आकाश में रखा हुआ (राजन्) वर्षा की कामना का स्वामी तू (इह देवान् यक्षि) यहाँ मेघमण्डल में वायु आदि देवों को अपने में संयुक्त कर ॥६॥
भावार्थ
महान् अग्नि सूर्य आकाश में वर्षा के स्थान मेघ में विद्युद्रूप से प्रकट हो, चमचमाती तिरछी तरङ्गरूप साड़ी वस्त्र पहिना हुआ सा, वायु आदि देवों के सहयोग से वृष्टि का निमित्त बनता है। विद्यासूर्य विद्वान् विद्यालङ्कृत हुआ विद्या-स्थान में बैठकर प्रवचनामृत की वृष्टि करे ॥६॥
विषय
सुन्दर वस्त्र धारण
पदार्थ
जीवात्मा से प्रभु कहते हैं कि, (सः) = वह तू (तु) = तो (अध) = अब (पेशनानि) = सुन्दर (वस्त्राणि) = वस्त्रों को (वसानः) = धारण के स्वभाव वाला है। ये 'स्थूल सूक्ष्म व कारण शरीर जीव के वस्त्र के समान हैं। गीता के 'वांसासि जीर्णानि० ' इस प्रसिद्ध श्लोक में शरीरों को वस्त्रों से ही उपमित किया है । 'वसिष्याहि मिमेध्य वस्त्राण्यूर्जगम्यते' इस मन्त्र में भी शरीर ग्रहण को वस्त्र धारण ही कहा गया है । प्रगतिशील जीव का यह कर्त्तव्य है कि इन वस्त्रों को सुन्दर बनाये रखे, इन्हें विकृत न होने दे। यह इन वस्त्रों की अविकृति ही आरोग्य है और यह आरोग्य ही सब पुरुषार्थों की नींव होता हुआ सर्वमहान् धर्म है। इस प्रकार शरीर वस्त्रों को शुद्ध रखता हुआ तू (अग्निः) = आगे बढ़नेवाला होता है। इसने सब उन्नतियों के मूल आरोग्य को अपनाया है। यह (अध पृथिव्याः नाभा) = पृथिवी की नाभि में (वसानः) [वसन्] = निवास करता है। 'अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः ' इस मन्त्र में यज्ञ को ही पृथिवी की नाभि कहा गया है। इस यज्ञ में ही सब लोक प्रतिष्ठित हैं। यज्ञ के अभाव में न इस लोक का कल्याण है, न परलोक का । 'नायं लोकोऽस्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम' [गीता] नाभि में जैसे सब नाड़ियाँ बद्ध होती हैं [नह् बन्धने] इसी प्रकार यज्ञ में सब लोक बद्ध हैं। यज्ञ ही इन सब भुवनों का केन्द्र हैं। यह 'अग्नि' प्रयत्न करता है कि उसका जीवन यज्ञमय बना रहे । 'पुरुषो भव यज्ञः ' इस उपनिषद् वाक्य को वह भूलता नहीं। 'इस यज्ञ से ही मैं यज्ञरूप प्रभु की उपासना करता हूँ' [यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः] यह बात वह सदा स्मरण रखता है । यज्ञमय जीवनवाला होकर यह (अरुषः) = [आरोचमान: नि०] ज्ञान से सर्वतः देदीप्यमान होता है, और (जात:) = अपनी शक्तियों का प्रादुर्भाव व विकास करता है । यह (इडायाः पदे) = वेदवाणी के मार्ग में, अर्थात् ज्ञान प्राप्ति के मार्ग में (पुरोहितः) = सब से आगे निहित होता है, अर्थात् ऊँचे से ऊँचा ज्ञान प्राप्त करता है अथवा जीवन को अधिकाधिक वेदानुकूल बनाता है। इसे प्रभु कहते हैं कि (राजन्) = यह ज्ञान से दीप्त होनेवाले अग्ने! अथवा जीवन को नियमित [Regulated] करनेवाले 'त्रित' तू (इह) = इस मानव जीवन में (देवान्) = दिव्य वृत्ति वाले विद्वानों को (यक्षि) = अपने साथ संगत कर । अर्थात् तेरा उठना-बैठना देववृत्ति वाले ज्ञानियों के साथ ही हो। इस संग ने ही तो तुझे 'सुमनाः' बनाना है 'यथा नः सर्व सज्जनः संगत्या सुमना असत्' । इन ज्ञानियों के सम्पर्क में रहता हुआ तू देवान् दिव्यगुणों को यक्षि-अपने साथ संगत कर । अर्थात् तेरा जीवन दैवी सम्पत्ति को लिये हुए हो। साथ ही तू शरीर में चक्षु आदि के रूप से रहनेवाले इन सूर्यादि देवों को अपने साथ मेल वाला बना । इनके साथ तेरी अनुकूलता है। इन 'जल, वायु' आदि देवों की प्रतिकूलता में ही अस्वास्थ्य होता है। इन की अनुकूलता में तू स्वस्थ होगा, तेरे ये शरीर रूप वस्त्र निर्मल बने रहेंगे।
भावार्थ
भावार्थ- हमारे शरीर रूप वस्त्र स्वास्थ्य के सौन्दर्य वाले हों, हमारा जीवन यज्ञमय हो । हम ज्ञानदीप्त व विकसित शक्ति होकर वेदमार्ग पर आवेगें । देवों से हमारा मेल हो ।
विषय
तेजस्वी राजा का अग्निवत् होकर भी सत्संग करना।
भावार्थ
(अध) और (सः तु) वह तू (पेशनानि वस्त्राणि वसानः) उत्तम २ वस्त्रों को धारण करके (अग्निः) अग्नि के समान तेजस्वी होकर (पृथिव्याः नाभा) भूमि के मध्य सब को बांधने या प्रबंध करने योग्य केन्द्र स्थान में स्थित होकर (अरुषः) तेजस्वी, रोषरहित, (इडायाः-पदे जातः) भूमि के प्राप्त करने के निमित्त सामर्थ्यवान् होकर हे राजन् ! तू (पुरः-हितः) सबके समक्ष स्थित होकर (देवान् यक्षि) तेजस्वी पुरुषों की संगति कर, मिल और उनका आदर सत्कार कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
त्रित ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:-१, ६ पादनिचृत्त्रिष्टुप्। २, ३ विराट् त्रिष्टुप्। ४, ५ निचृत्त्रिष्टुप्। ७ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अध) अथापि (सः-तु-अग्निः) स एव बृहन्-अग्निः सूर्यः (पृथिव्याः-नाभा) अन्तरिक्षस्य मध्ये “पृथिवी-अन्तरिक्षनाम” [निघ० १।३] “सुपां सुलुक् पूर्वसवर्णाच्छे”० [अष्टा० ७।१।३९] आकारादेशः “मध्यं वै नाभिः [श० १।१।२।२] (इळायाः पदे जातः-अरुषः) वृष्ट्याः पदे मेघे “वृष्टिर्वा इळा” [तै०सं० १।७।२।५] विद्युद्रूपेण जातो रोचमानः सन् (पेशनानि वस्त्राणि वसानः) हिरण्यानि सुवर्णरूपाणि “पेशः-हिरण्यनाम” [निघ० १।२] वस्त्राणि-वस्त्राणीव तरङ्गात्मकानि शाटीसदृशानि तिरश्चीनि परिदधानः (पुरः-हितः) साक्षात् खल्वाकाशे धृतः सन् (राजन्) त्वं वर्षाकामनायाः स्वामिन् ! (इह देवान् यक्षि) अस्मिन्मेघमण्डले वायुप्रभृतीन् देवान् स्वस्मिन् योजय वृष्टिनिपातनाय ॥६॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, wearing different manifestations, assuming different modes of form and function, holding on at the centre hold of the earth, burning in the vedi, arising on top of the world, bright and beautiful, at the heart of clouds flashing with lights of thunder, present in advance of evolution, present all time upfront, high priest of cosmic yajna, ruling supreme, pray join all divinities of nature and humanity, bring them here and bless us.
मराठी (1)
भावार्थ
महान अग्नी सूर्य आकाशात वृष्टीचे स्थान असलेल्या मेघात विद्युत्रूपाने प्रकट होऊन, चमकणारी, तिरकी तरंगरूपी साडी नेसल्याप्रमाणे, वायू इत्यादी देवांच्या सहयोगाने वृष्टीचे निमित्त बनतो. विद्यासूर्य विद्वानाने विद्यालंकृत होऊन विद्या स्थानी बसून प्रवचनामृताची वृष्टी करावी. ॥६॥
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