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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 104 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 104/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अष्टको वैश्वामित्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒प्सु धू॒तस्य॑ हरिव॒: पिबे॒ह नृभि॑: सु॒तस्य॑ ज॒ठरं॑ पृणस्व । मि॒मि॒क्षुर्यमद्र॑य इन्द्र॒ तुभ्यं॒ तेभि॑र्वर्धस्व॒ मद॑मुक्थवाहः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒प्ऽसु । धू॒तस्य॑ । ह॒रि॒ऽवः॒ । पिब॑ । इ॒ह । नृऽभिः॑ । सु॒तस्य॑ । ज॒ठर॑म् । पृ॒ण॒स्व॒ । मि॒मि॒क्षुः । यम् । अद्र॑यः । इ॒न्द्र॒ । तुभ्य॑म् । तेभिः॑ । व॒र्ध॒स्व॒ । मद॑म् । उ॒क्थ॒ऽवा॒हः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अप्सु धूतस्य हरिव: पिबेह नृभि: सुतस्य जठरं पृणस्व । मिमिक्षुर्यमद्रय इन्द्र तुभ्यं तेभिर्वर्धस्व मदमुक्थवाहः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अप्ऽसु । धूतस्य । हरिऽवः । पिब । इह । नृऽभिः । सुतस्य । जठरम् । पृणस्व । मिमिक्षुः । यम् । अद्रयः । इन्द्र । तुभ्यम् । तेभिः । वर्धस्व । मदम् । उक्थऽवाहः ॥ १०.१०४.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 104; मन्त्र » 2
    अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (हरिवः) हे दुःखहारक गुणवाले (इन्द्र) परमात्मन् ! (अप्सु) प्राणों में-प्राणायामों को करके (धूतस्य) प्रेरित (नृभिः) मुमुक्षुओं द्वारा (सुतस्य) सम्पादित उपासनारस को (इह पिब) इस अध्यात्मयज्ञ में पान कर-स्वीकार कर (जठरम्) हमारे मध्य अन्तःस्थल अन्तःकरण को (पृणस्व) तृप्त कर (अद्रयः) स्तुति करनेवाले (तुभ्यम्) तेरे लिये (यम्) जिस उपासनारस को (मिमिक्षुः) सींचते हैं (उक्थवाहः) स्तुतिवचन को वहन करनेवाले-स्वीकार करनेवाले परमात्मन् ! (तेभिः) उनके लिये (मदम्) हर्ष को (वर्धस्व) बढ़ा ॥२॥

    भावार्थ

    प्राणायामों के द्वारा प्रेरित मुमुक्षुजनों के द्वारा सम्पादित उपासनारस को परमात्मा स्वीकार करता है और अन्तःकरण को तृप्त करता है तथा स्तुति करनेवाले उपासनारस को परमात्मा में सींचते हैं तो परमात्मा उनके लिये आनन्द को बढ़ाता है ॥२॥

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    विषय

    क्रियामय स्तुतिशील जीवन

    पदार्थ

    [१] हे (हरिवः) = हे प्रशस्त इन्द्रियाश्वों को प्राप्त करानेवाले प्रभो ! (इह) = इस हमारे जीवन-यज्ञ में (नृभिः) = उन्नति-पथ पर चलनेवाले मनुष्यों से (सुतस्य) = उत्पन्न किये गये, (अप्सु धूतस्य) = कर्मों में पवित्र किये गये [धू - shake off कम्पने - कम्पित करके जिससे मल को दूर कर दिया गया है], कर्मों में लगे रहने से वासनाओं का आक्रमण नहीं होता और इस प्रकार सोम पवित्र बना रहता है, इस पवित्र सोम का (पिब) = पान कर। (जठरं पृणस्व) = इस सोम के द्वारा हमारे आभ्यन्तर को पूरित कर। हमारा शरीर सोम से व्याप्त हो । [२] हे (इन्द्र) = परमात्मन् ! (यम्) = जिस सोमकणों को (अद्रयः) = [अद्रयः आदरणीया: - those who adore] उपासक लोग (तुभ्यम्) = आपकी प्राप्ति के लिए अपने जठर में (मिमिक्षुः) = सिक्त करते हैं, (तेभिः) = उनके द्वारा (उक्थवाहः) = स्तोत्रों के धारण करनेवाले के (मदम्) = हर्ष को (वर्धस्व) = आप बढ़ाइये। इस सोमरक्षण से सब अंगों की शक्ति का वर्धन होता है और परिणामतः पूर्ण स्वास्थ्य के आनन्द की प्राप्ति होती है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोमरक्षण के लिए आवश्यक है कि हम कर्मों में लगे रहें [ अप्सु धूतस्य] प्रभु के उपासक बनें [अद्रयः] उक्थों व स्तोत्रों के धारण करनेवाले हों [उक्थवाहः ] ।

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    विषय

    प्रभु का सृष्टिजनक कर्म।

    भावार्थ

    हे (हरिवः) समस्त मनुष्यों, प्राणियों और शक्तिशाली समस्त लोकों के स्वामिन् ! (अप्सु धूतस्य) जलों के सदृश सरल एवं देह में व्यापक रक्त, रसों वा प्राणों के आश्रय पर संचालित और (नृभिः सुतस्य) नरों, पुरुषों द्वारा गर्भ में निषिक्त वा उत्पन्न जीव के (जठरम्) गर्भ वा उदर को (इह) इस लोक में (पृणस्व) पालन और पूर्ण करता है। तू ही उसकी रक्षा कर। हे (इन्द्र) सूर्यवत् जल अन्न के देने हारे ! (यम्) यम्) जिस (मदम्) तृप्तिकारक, सुखप्रद जल वा अन्न को (अद्रयः) मेघगण (मिमिक्षुः) पृथ्वी पर बरसाते हैं, वह भी (तुभ्यम्) तेरा ही है, वा हे (इन्द्र) जीव ! वह तेरे लिये ही है। और हे (उक्थ-वाहः) उत्तम ज्ञान-वचन, वेद को धारण करने वाले ! (तेभिः वर्धस्व) उनसे तू बढ़। उनके कारण तू महान् है, तू उन सबको बढ़ा।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिरष्टको वैश्वामित्रः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १, २, ७, ८, ११ त्रिष्टुप्। ३, ४ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ६, १० निचृत् त्रिष्टुप्। ९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (हरिवः-इन्द्र) हे दुःखहारक गुणवन् ! परमात्मन् ! (अप्सु धूतस्य) प्राणेषु “प्राणा वा आपः” [तै० ९।९।४] प्राणायामान् कृत्वा प्रेरितम् “द्वितीयास्थाने षष्ठी व्यत्ययेन” (नृभिः सुतस्य) अस्माभिर्मुमुक्षुभिः “नरो ह वै देवविशः [जै० १।८९] सम्पादितम् उपासनारसम् (इह पिब) अस्मिन्-अध्यात्मयज्ञे पिब-स्वीकुरु (जठरं पृणस्व) अस्माकं मध्यमन्तःस्थलमन्तःकरणम् “मध्यं वै जठरम्” [श० ७।१।१।२२] तर्पय (अद्रयः) श्लोककर्त्तारः स्तुतिकर्त्तारः “अद्रिरसि श्लोककृत्” [काठ० १।५] (तुभ्यं यं मिमिक्षुः) तुभ्यं त्वयि यमुपासनारसं सिञ्चन्ति (उक्थवाहः) स्तुतिवचनस्य वहनकर्तः स्वीकर्तः परमात्मन् ! (तेभिः-मदं वर्धस्व) तेभ्यः “व्यत्ययेन चतुर्थीस्थाने तृतीया” स्तोतृभ्यः-हर्षं वर्धय ॥२॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, lord omnipotent, Hariva, saviour from suffering and commander of nature’s forces, drink of the ecstatic soma created and seasoned in the joyous currents of our karma at heart in the soul by enlightened sages. Pray accept, protect and promote this soma of joy showered by clouds and seasoned by sages for you, and feel exalted with them all to your full satisfaction and ever increase the joy.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    प्राणायामाद्वारे प्रेरित मुमुक्षुजनांद्वारे संपादित उपासना रसाला परमात्मा स्वीकार करतो, व अंत:करण तृप्त करतो व स्तुती करणारे (उपासक) उपासना रसाचे परमात्म्यात सिंचन करतात तेव्हा परमात्मा त्यांचा आनंद वाढवितो. ॥२॥

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