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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 106 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 106/ मन्त्र 3
    ऋषिः - भुतांशः काश्यपः देवता - अश्विनौ छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    सा॒कं॒युजा॑ शकु॒नस्ये॑व प॒क्षा प॒श्वेव॑ चि॒त्रा यजु॒रा ग॑मिष्टम् । अ॒ग्निरि॑व देव॒योर्दी॑दि॒वांसा॒ परि॑ज्मानेव यजथः पुरु॒त्रा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सा॒क॒म्ऽयुजा॑ । श॒कु॒नस्य॑ऽइव । प॒क्षा । प॒श्वाऽइ॑व । चि॒त्रा । यजुः॑ । आ । ग॒मि॒ष्ट॒म् । अ॒ग्निःऽइ॑व । दे॒व॒ऽयोः । दी॒दि॒ऽवांसा॑ । परि॑ज्मानाऽइव । य॒ज॒थः॒ । पु॒रु॒ऽत्रा ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    साकंयुजा शकुनस्येव पक्षा पश्वेव चित्रा यजुरा गमिष्टम् । अग्निरिव देवयोर्दीदिवांसा परिज्मानेव यजथः पुरुत्रा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    साकम्ऽयुजा । शकुनस्यऽइव । पक्षा । पश्वाऽइव । चित्रा । यजुः । आ । गमिष्टम् । अग्निःऽइव । देवऽयोः । दीदिऽवांसा । परिज्मानाऽइव । यजथः । पुरुऽत्रा ॥ १०.१०६.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 106; मन्त्र » 3
    अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 1; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (शकुनस्य) पक्षी के (पक्षा-इव) दो पंखों के समान (साकं युजा) सहयुक्त-सम्मिलित मनवाले तुम दोनों स्त्री-पुरुष होते हो (पश्वा-इव चित्रा) दर्शनीय दो गौ पशुओं की भाँति (यजुः-आगमिष्टम्) कृषिकर्म को जैसे प्राप्त होते हैं, वैसे तुम यज्ञरूप श्रेष्ठ कर्म को प्राप्त होवो (देवयोः) देव को चाहनेवाले यजमान की (अग्निः-इव) अग्नि की भाँति (दीदिवांसा) अपने गुणों से देदीप्यमान-प्रकाशमान तुम होवो (परिज्माना-इव) सर्वत्र गति करते हुए दो वायु-उत्तर दक्षिण वायु के समान तुम दोनों स्त्री-पुरुष (पुरुत्रा यजथः) बहुत स्थानों में संगति से कार्य करते हो ॥३॥

    भावार्थ

    गृहस्थ में सुशिक्षित स्त्री-पुरुष एक मनवाले यज्ञकर्म का आचरण करनेवाले मिलकर गृहस्थकार्य सञ्चालन करनेवाले होवें ॥३॥

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    विषय

    साकं युजा

    पदार्थ

    [१] (शकुनस्य पक्षा इव) = पक्षी के दोनों पंखों की तरह आप (साकं युजा) = साथ-साथ मिलकर होनेवाले हो । पक्षी के दाएँ और बाएँ पंख अलग-अलग होते हुए भी मिलकर कार्य करते हैं। इसी प्रकार पति-पत्नी अलग-अलग होते हुए भी मिलकर गृहस्थ में उन्नत होते हैं। एक पंख से आकाश में उड़ने का सम्भव नहीं, इसी प्रकार अकेले के लिए गृहस्थ को उन्नत करने का सम्भव नहीं । [२] (चित्रा पश्वा इव) = चायनीय, ज्ञानयुक्त प्राणियों की तरह (यजुः) = यज्ञ को (आगमिष्टम्) = प्राप्त होवो। जैसे दो पशु मिलकर गाड़ी को खैंचते हुए गन्तव्य देश के प्रति जाते हैं इसी प्रकार पति-पत्नी ज्ञानयुक्त पशुओं की तरह होते हुए यज्ञादि कर्मों के प्रति आनेवाले हों। [३] (देवयोः) = दिव्यगुणों को अपनाने की इच्छावाले यजमान की (अग्निः इव) = अग्नि के समान (दीदिवांसा) = ये पति-पत्नी चमकनेवाले हों। जैसे अग्नि चमकती है, इस प्रकार पति-पत्नी भी तेजस्वी हों। इसके लिए 'देवयोः' शब्द सुन्दर संकेत कर रहा है कि वे दिव्य गुणों को अपनाने की कामनावाले बनें। [४] (परिज्माना इव) = [परित: अजतः] सब कर्त्तव्य कर्मों की ओर जानेवाले ये पति-पत्नी (पुरुत्रा यजथः) = शतशः स्थानों में मिलकर यज्ञात्मक कर्मों को करनेवाले होते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- पति-पत्नी मिलकर यज्ञात्मक कार्यों को करते हुए तेजस्विता को प्राप्त करें ।

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    विषय

    नाना दृष्टान्तों से उनको परस्पर सहयोगी, स्नेही, यज्ञवान्, सुसंगत रहने का उपदेश।

    भावार्थ

    आप दोनों (शकुनस्य-इव पक्षा) पक्षी के दो पांखों के समान (शकुनस्य) आप दोनों को ऊपर, उन्नत मार्ग में उठा लेने में समर्थ प्रभु के (पक्षा) ग्रहण करने वाले होकर (साकं-युजा) सदा साथ मिलकर रहने वाले होओ और (चित्रा पश्वा इव) पूज्य होकर दो पशुओं के तुल्य एक साथ मिलकर वा ज्ञानदर्शी (यजुः आ गभिष्टम्) यज्ञ को प्राप्त होओ। (देवयोः) विद्वानों और देवों, शुभ गुणों की कामना करने वाले यज्ञशील स्त्री पुरुषों के (अग्निः इव) अग्नि के समान (देवयोः) एक दूसरे को चाहने वाले आप दोनों में से प्रत्येक (अग्निः इव) अग्निवत् तेजस्वी होकर (दीदिवांसा) चमकते हुए (परि-ज्माना इव) चारों ओर जाने वाले दो ग्रहों वा सूर्य चन्द्र के तुल्य, (पुरु-त्रा) अनेक स्थानों और कालों में (यजथः) परस्पर संगत होकर रहो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषि र्भूतांशः काश्यपः॥ अश्विनो देवते॥ छन्द:–१– ३, ७ त्रिष्टुप्। २, ४, ८–११ निचृत त्रिष्टुप्। ५, ६ विराट् त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (शकुनस्य पक्षा-इव साकं युजा) पक्षिणः पक्षाविव सह युक्तौ सम्मिलितावेकमनस्कौ युवां भवथः (पश्वा-इव चित्रा यजुः-आगमिष्टम्) चायनीयौ गोपशू इव कृषिकर्म प्रति समन्तात् प्राप्तौ भवतस्तद्वत् युवां यजनं श्रेष्ठकर्म प्रति समन्तात् प्राप्तौ भवथः (देवयोः-अग्निः-इव दीदिवांसा) देवं कामयमानस्य यजमानस्याग्निरिव स्वगुणैर्देदीप्यमानौ युवां भवथः (परिज्माना-इव पुरुत्रा यजथः) परितौ गच्छन्तौ वायू-उत्तरदक्षिणवायू इव युवां बहुत्र सङ्गत्या कार्यं कुरुथः ॥३॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Team of simultaneous workers like wings of a bird, wondrous as visionaries, lovers of divinity bright as fire, come and join our yajna together and, like the winds blowing all time and seasons over spaces, continue the programme abundantly.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    गृहस्थाश्रमात सुशिक्षित स्त्री-पुरुषांनी एका मनाने राहून यज्ञकर्माचे आचरण करून दोघांनी मिळून गृहस्थाश्रमाच्या कार्याचे संचालन करावे. ॥३॥

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