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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 118 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 118/ मन्त्र 8
    ऋषिः - उरुक्षय आमहीयवः देवता - अग्नी रक्षोहा छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः

    स त्वम॑ग्ने॒ प्रती॑केन॒ प्रत्यो॑ष यातुधा॒न्य॑: । उ॒रु॒क्षये॑षु॒ दीद्य॑त् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । त्वम् । अ॒ग्ने॒ । प्रती॑केन । प्रति॑ । ओ॒ष॒ । या॒तु॒ऽधा॒न्यः॑ । उ॒रु॒ऽक्षये॑षु । दीद्य॑त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स त्वमग्ने प्रतीकेन प्रत्योष यातुधान्य: । उरुक्षयेषु दीद्यत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः । त्वम् । अग्ने । प्रतीकेन । प्रति । ओष । यातुऽधान्यः । उरुऽक्षयेषु । दीद्यत् ॥ १०.११८.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 118; मन्त्र » 8
    अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 25; मन्त्र » 3
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अग्ने) हे अग्रणेता परमात्मन् ! या भौतिक अग्नि ! (सः-त्वम्) वह तू (यातुधान्यः) यातना धारण करानेवाली-देनेवाली-प्राणिजातियों को या रोगजातियों को (प्रतीकेन) प्रत्यक्त-प्रभावकारी प्रताप से लगनेवाले तेज से (प्रति-ओष) दग्ध कर (उरुक्षयेषु) बहुत स्थानों-मनुष्यों के हृदयों में या घरों में (दीद्यत्) प्रकाशमान होता हुआ ॥८॥

    भावार्थ

    अग्रणेता परमात्मा दुःख देनेवाली प्राणिजातियों को अपने प्रताप से नष्ट करता है मनुष्यों के हृदय में प्रकाशित होकर, या अग्नि दुःख देनेवाली रोगजातियों को होमयज्ञों में ज्वलित हुआ जलता हुआ अपनी लपट से नष्ट करता है ॥८॥

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    विषय

    यातुधानों का ओषण

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (स त्वम्) = वे आप (प्रतीकेन) = अपने अंगभूत तेज से (यातुधान्य:) = पीड़ा का आदान करनेवाली आसुरीवृत्तियों को (प्रत्योष) = एक-एक करके जला दीजिये। उपासक जब प्रभु के तेज से तेजस्वी बनता है तो ये सब अशुभवृत्तियाँ उस तेज में भस्म हो जाती हैं । [२] सब अशुभवत्तियों के नष्ट हो जाने पर हे प्रभो ! आप (उरुक्षयेषु) = इन विशाल हृदय रूप निवास-स्थानों में दीद्यत् दीप्यमान होइये । वासनाएँ ही हृदय को संकुचित बनाती हैं। वासनाओं का विनाश होने पर हृदय विशाल हो जाता है और प्रभु का निवास-स्थान बनता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु के तेजसे मेरी वासनाएँ दग्ध हो जाएँ और मेरे विशाल हृदय में प्रभु की दीप्ति दीप्त हो उठे ।

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    विषय

    पीड़ादायक विपत्तियों वा व्यक्तियों को दूर करे।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) तेजस्विन् ! (सः त्वम्) वह तू (प्रतीकेन) प्रतिकार करने, वा उपाय से (यातु-धान्यः) पीड़ा देने वाली दुष्ट शक्तियों, स्त्रियों वा विपत्तियों को (प्रति ओष) नष्ट कर। और तू (उरु-क्षयेषु दीद्यत्) बड़े २ गृहों वा ऐश्वर्यों में चमकता रहे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिरुरुक्षय आमहीयवः॥ देवता—अग्नी रोहा॥ छन्दः—१ पिपीलिकामध्या गायत्री। २, ५ निचृद्गायत्री। ३, ८ विराड् गायत्री। ६, ७ पादनिचृद्गायत्री। ४, ९ गायत्री॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अग्ने) हे अग्रणेतः ! परमात्मन् ! भौतिकाग्ने ! वा (सः-त्वम्) स त्वं (यातुधान्यः) यातनां धारयन्तीः प्राणिजातीः-रोगजातीर्वा (प्रतीकेन प्रति-ओष) प्रत्यक्तेन प्रतापेन संलग्नतेजसा वा प्रति दह “उष दाहे” [भ्वादि०] (उरुक्षयेषु दीद्यत्) बहुनिवासस्थानेषु जनानां हृदयेषु गृहेषु वा साक्षात्प्रकाशमानः ॥८॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, with your heat and light rays bum and destroy all forces of germs, viruses, insects and impurities that damage life, shine as you do in vast vedis of scientific programmes of yajna.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    अग्रनेता परमात्मा दु:ख देणाऱ्या प्राण्यांना आपल्या प्रतापाने नष्ट करतो. माणसांच्या हृदयात प्रकाशित होतो. अग्नीही दु:ख देणाऱ्या रोगांना होमयज्ञाच्या ज्वालांनी नष्ट करतो. ॥८॥

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