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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 132 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 132/ मन्त्र 3
    ऋषिः - शकपूतो नार्मेधः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    अधा॑ चि॒न्नु यद्दिधि॑षामहे वाम॒भि प्रि॒यं रेक्ण॒: पत्य॑मानाः । द॒द्वाँ वा॒ यत्पुष्य॑ति॒ रेक्ण॒: सम्वा॑र॒न्नकि॑रस्य म॒घानि॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अध॑ । चि॒त् । नु । यत् । दधि॑षामहे । वा॒म् । अ॒भि । प्रि॒यम् । रेक्णः॑ । पत्य॑मानाः । द॒द्वान् । वा॒ । यत् । पुष्य॑ति । रेक्णः॑ । सम् । ऊँ॒ इति॑ । आ॒र॒न् । नकिः॑ । अ॒स्य॒ । म॒घानि॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अधा चिन्नु यद्दिधिषामहे वामभि प्रियं रेक्ण: पत्यमानाः । दद्वाँ वा यत्पुष्यति रेक्ण: सम्वारन्नकिरस्य मघानि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अध । चित् । नु । यत् । दधिषामहे । वाम् । अभि । प्रियम् । रेक्णः । पत्यमानाः । दद्वान् । वा । यत् । पुष्यति । रेक्णः । सम् । ऊँ इति । आरन् । नकिः । अस्य । मघानि ॥ १०.१३२.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 132; मन्त्र » 3
    अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 20; मन्त्र » 3
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (पत्यमानाः) ऐश्वर्य करते हुए (वाम्) तुम दोनों के (यत् प्रियं रेक्णः) जो प्रिय धन ज्ञानधन या जीवनधन (अभि दिधिषामहे) हम धारण करते हैं (अधः-चित्-उ) वह अनन्तर ही (यत्-वा रेक्णः-दद्वान्) तुम्हारे लिए उपहारधन या आहारधन श्रोता या आत्मा देता है (अस्य) इसका (मघानि) धन (नकिः-उ) न कभी भी (समारन्) समाप्त होते हैं ॥३॥

    भावार्थ

    मनुष्य धनादि वस्तुओं के स्वामी होते हुए अध्यापक उपदेशकों के ज्ञानधन को प्राप्त करते हैं, साथ ही उन्हें उपहारधन देना चाहिए, इस प्रकार देने से धन समाप्त नहीं होता है एवं प्राण और अपानों से जो जीवनधन मिलता है, उनके लिए आहार देना चाहिए, इससे वह समाप्त नहीं होता है ॥३॥

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    विषय

    दान व ऐश्वर्य वृद्धि

    पदार्थ

    [१] हे (मित्रा) = वरुणौ ! (अधा) = अब (चित् नु) = निश्चय से (यत्) = जब (वाम्) = आपका (दिधिषामहे) = धारण करते हैं व स्तवन करते हैं तो हम (प्रियं रेक्णः) = प्रिय ऐश्वर्य को (अभि-पत्यमानाः) = उभयतः प्राप्त करते हुए होते हैं । इस लोक के ऐश्वर्य 'अभ्युदय' को हम प्राप्त करते हैं तो परलोक के निःश्रेयस को भी प्राप्त करनेवाले होते हैं। 'मित्र' की आराधना हमें नीरोग बनाकर अभ्युदय की प्राप्ति के योग्य बनाती है और 'वरुण' की आराधना निष्पाप बनाकर निःश्रेयस को देनेवाली होती है । [२] (च) = और (दद्वान्) = दानशील पुरुष (यत्) = जिस (रेक्णः) = धन का (पुष्यति) = पोषण करता है, (अस्य मघानि) = इसके धन (नकि) = सभी (रन्) = अपगत नहीं होते । दान से धन बढ़ता ही है, दान से धन कम नहीं होता। दानशील पुरुष इस लोक में अभ्युदय की वृद्धि को करता हुआ परलोक में निःश्रेयस को प्राप्त करता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम मित्र - वरुण की आराधना से अभ्युदय व निः श्रेयस को प्राप्त करें । सदा दानशील बनें, जिससे धन हमारे से अपगत न हों ।

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    विषय

    वे उसकी सदा वृद्धि करें। उत्तम स्त्री पुरुषों के कर्त्तव्य। वे ऐश्वर्य की खूब वृद्धि करें।

    भावार्थ

    हम (पत्यमानाः) ऐश्वर्यवान् होते हुए (वाम्) आप दोनों के (यत् प्रियम्) जिस प्रिय, प्रीतिकारक (रेक्णः) धन को (अभि दिधिषामहे) धारण करते हैं (यत् वा रेक्णः) और जिस धन को (दद्वान्) दानशील पुरुष (पुष्यति) बढाता है (अस्य) इसके (मघानि) नाना उत्तम धनों को (नकिः सम् उ आरन्) कोई भी प्राप्त नहीं कर सकते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः शकपूतो नार्मेधः॥ देवता—१ लिङ्गोक्ताः। २—७ मित्रावरुणौ। छन्दः- १ बृहती। २, ४ पादनिचृत् पंक्तिः। ३ पंक्तिः। ५,६ विराट् पंक्तिः ७ महासतो बृहती ॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (पत्यमानाः) ऐश्वर्यं कुर्वाणाः “पत्यते ऐश्वर्यकर्मा” [निघ० २।२१] (वाम्) युवयोः (यत् प्रियं रेक्णः-अभि दिधिषामहे) यत् प्रियं ज्ञानधनं यद्वा जीवनधनम् “रेक्णो धननाम” [नि० २।१०] वयं भूमिं धारयामः (अध चित्-उ) अनन्तरमपि हि (यत् वा रेक्णः-दद्वान्) यच्चोपहारधनम्-आहारधनं वा युवभ्यां श्रोता, आत्मा वा दत्तवान् (अस्य मघानि नकिः-उ सम् आरन्) अस्य श्रोतुरात्मनो वा धनानि नहि समाप्तिं गच्छन्ति ॥३॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    And when we bear and bring liberal gifts of homage to you, ourselves being masters of our favourite wealth and property, or when the generous giver of gifts and homage augments his wealth, then the wealth, power and glory of such a person never diminishes, never exhausts, in fact it increases manifold.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसे धन इत्यादी वस्तूंचे स्वामी असून, अध्यापक उपदेशकांच्या ज्ञानधनाला प्राप्त करतात. त्याबरोबरच त्यांना उपहार धन दिले पाहिजे. या प्रकारे देण्याने धन समाप्त होत नाही व प्राण आणि अपानाद्वारे जे जीवनधन मिळते त्यांच्यासाठी आहार दिला पाहिजे. त्यामुळे ते समाप्त होत नाही. ॥३॥

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