Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 15 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 15/ मन्त्र 11
    ऋषिः - शङ्खो यामायनः देवता - पितरः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    अग्नि॑ष्वात्ताः पितर॒ एह ग॑च्छत॒ सद॑:सदः सदत सुप्रणीतयः । अ॒त्ता ह॒वींषि॒ प्रय॑तानि ब॒र्हिष्यथा॑ र॒यिं सर्व॑वीरं दधातन ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्नि॑ऽस्वात्ताः । पि॒त॒रः॒ । आ । इ॒ह । ग॒च्छ॒त॒ । सदः॑ऽसदः । स॒द॒त॒ । सु॒ऽप्र॒नी॒त॒यः॒ । अ॒त्त । ह॒वींषि॑ । प्रऽय॑तानि । ब॒र्हिषि॑ । अथ॑ । र॒यिम् । सर्व॑ऽवीरम् । द॒धा॒त॒न॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निष्वात्ताः पितर एह गच्छत सद:सदः सदत सुप्रणीतयः । अत्ता हवींषि प्रयतानि बर्हिष्यथा रयिं सर्ववीरं दधातन ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निऽस्वात्ताः । पितरः । आ । इह । गच्छत । सदःऽसदः । सदत । सुऽप्रनीतयः । अत्त । हवींषि । प्रऽयतानि । बर्हिषि । अथ । रयिम् । सर्वऽवीरम् । दधातन ॥ १०.१५.११

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 15; मन्त्र » 11
    अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 19; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अग्निष्वात्ताः पितरः-इह आगच्छत सुप्रणीतयः सदःसदः सदत) यज्ञाग्नि को सम्यक् ग्रहण की हुई किरणें इस मण्डल में समन्तरूप से फैलें एवं सुसंचरित होकर घर-घर या स्थान-स्थान में भली प्रकार प्राप्त हों (बहिर्षि प्रयतानि हवींषि-आत्त-अध रयिं सर्ववीरं दधातन) यज्ञ में दी गई हव्यवस्तुओं को प्राप्त हों, पुनः सर्वप्रकार के वीरगुणयुक्त बल को हम में धारण करावें ॥११॥

    भावार्थ

    सूर्य की रश्मियाँ यज्ञ के संपर्क से सुगन्धगुणयुक्त होकर यज्ञमण्डल के घर-घर में प्रवेश करती हैं और लाभप्रद होती हैं ॥११॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    अग्निष्वात्त पितर

    पदार्थ

    [१] (अग्निषु आत्ता:)=- अग्नियों के विषय में जिन्होंने खूब ज्ञान प्राप्त किया है, अग्नि आदि देवों का वैज्ञानिक अध्ययन किया है, ऐसे (पितरः) = पितरो ! (इह) = हमें इस जीवन में (आगच्छत) = प्राप्त होइये ! [२] (सदः सदः) = प्रत्येक सभा में (सदत) = आप आकर बैठिये । (सुप्रणीतयः) = उत्तम प्रकृष्ट मार्ग से आप हमें ले चलनेवाले हैं। आपके ही प्रणयन में हम मार्ग पर आगे बढ़ते हुए लक्ष्य- स्थान पर पहुँचनेवाले होंगे। [३] आप (बर्हिषि) = इन यज्ञों में (प्रयतानि) = पवित्र (हवींषि) = हवियों को (अत्त) = खानेवाले बनिये। आपका भोजन पवित्र हो और यज्ञशेष के रूप में हो । [४] (अथा) = और आप (रयिम्) = धनों को, जो कि धन (सर्ववीरम्) = सम्पूर्ण वीरता से युक्त है, दधातन-धारण करिये। धन के साथ सब अंगों का सबल होना भी आवश्यक है। पितर अपने सन्तानों को सत्परामर्श के द्वारा सब प्रकार के झगड़ों से बचाकर सशक्त व सधन बनाते हैं। इन पितरों के अभाव में पारस्परिक कलह से धन भी नष्ट होता है और शक्ति भी । सो पितरों का यह कर्तव्य होता है कि वे अपने सन्तानों को परस्पर मेल से चलने का पाठ पढ़ायें ।

    भावार्थ

    भावार्थ- अग्निष्वात्त पितरों से हमें अग्नि आदि देवों का ज्ञान प्राप्त हो । सभाओं में इनके सदुपदेशों से हमारा मार्ग सुन्दर हो । हम भी इनकी तरह यज्ञों में तत्पर होकर पवित्र हवियों का रक्षण करनेवाले बनें। धन के साथ शक्ति का धारण करनेवाले हों ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    अग्निष्वात्त पितरों के कर्तव्य।

    भावार्थ

    (अग्नि-सु-आत्ता) अंग में विनयशील शिष्यों, और अग्निवत् तेजस्वी पुरुषों द्वारा उत्तम रीति से आश्रित (पितरः) उनके पालक गुरुजनो ! हे (सुप्रणीतयः) शुभ, उत्कृष्टमार्ग में लेजाने वालो ! आप लोग (इह आगच्छत) यहां आइये। और (सदः सदः सदत) प्रत्येक सभा में और उत्तम २ आसन पर विराजिये। आप लोग (प्रयता हवींषि) नियत अन्न, भृति, वेतन आदि का (अत्त) उपभोग कीजिये। (अध) और (बर्हिषि) इस राष्ट्र यज्ञ में (सर्व-वीरं रयिं) समस्त वीर पुरुषों युक्त ऐश्वर्य को (दधातन) धारण करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शंखो यामायन ऋषिः। पितरो देवताः॥ छन्द:- १, २, ७, १२–१४ विराट् त्रिष्टुप्। ३,९,१० त्रिष्टुप्। ४, ८ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ६ निचृत् त्रिष्टुप्। ५ आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। ११ निचृज्जगती॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अग्निष्वात्ताः पितरः इह-आगच्छत सुप्रणीतयः सदःसदः सदत) अग्निर्यज्ञः स्वात्तः सम्यग् गृहीतो यैस्ते पितरः-सूर्यरश्मयः “अग्निष्वात्ता ऋतुभिः संविदानाः” [तै०२।६।१६।२] “आयातु मित्र ऋतुभिः कल्पमानः संवेशयन् पृथिवीमुस्रियाभिः” [अथर्व०३।८।१] इहास्मद् गृहे समन्तात्प्राप्ता भवन्तु, ‘पुरुषव्यत्ययः’ तथा सुप्रणीतयः सु सम्यक् प्रणीतिः प्रणयनं घृतादिसम्पर्कः सञ्चारो येषां ते सदःसदः प्रतिसदं-प्रतिगृहं सदत गच्छन्तु (बर्हिषि प्रयतानि हवींषि-आ+अत्त अध रयिं सर्ववीरं दधातन) यज्ञे प्रदत्तानि हव्यानि वस्तूनि गृह्णन्तु, अध-अनन्तरं सर्ववीरम्-सर्वे वीरा यस्मात्तत्सर्ववीरं वीर्यं बलमस्मासु धारयन्तु ॥११॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O senior sages and scientists of solar energy and yajnic production committed to policies of positive and creative technology, come here, take your positions assigned and reserved in the programme, accept the homage and yajnic materials offered and, by the conduct of yajna, bless us with wealth, power and honour worthy of brave humanity for generations.

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    सूर्याच्या रश्मी यज्ञाच्या संपर्काने सुगंध गुणयुक्त होऊन यज्ञ मंडलाच्या घराघरांत प्रवेश करतात व लाभप्रद ठरतात. ॥११॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top