ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 154/ मन्त्र 2
तप॑सा॒ ये अ॑नाधृ॒ष्यास्तप॑सा॒ ये स्व॑र्य॒युः । तपो॒ ये च॑क्रि॒रे मह॒स्ताँश्चि॑दे॒वापि॑ गच्छतात् ॥
स्वर सहित पद पाठतप॑सा । ये । अ॒ना॒धृ॒ष्याः । तप॑सा । ये । स्वः॑ । य॒युः । तपः॑ । ये । च॒क्रि॒रे । महः॑ । तान् । चि॒त् । ए॒व । अपि॑ । ग॒च्छ॒ता॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
तपसा ये अनाधृष्यास्तपसा ये स्वर्ययुः । तपो ये चक्रिरे महस्ताँश्चिदेवापि गच्छतात् ॥
स्वर रहित पद पाठतपसा । ये । अनाधृष्याः । तपसा । ये । स्वः । ययुः । तपः । ये । चक्रिरे । महः । तान् । चित् । एव । अपि । गच्छतात् ॥ १०.१५४.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 154; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
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अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(ये तपसा) जो महानुभाव ब्रह्मचर्यरूप तप से-तपोबल से (अनाधृष्याः) कामवासना से विचलित न होने योग्य (ये तपसा) जो ब्रह्मचर्यरूप बल से (स्वः-ययुः) सुखविशेष को प्राप्त होते हैं (ये महः-तपः) जो महान् तप को-त्याग को (चक्रिरे) करते हैं (तान्-चित्) उन्हें भी (एव-अपि गच्छतात्) उनको भी तू प्राप्त हो उनसे ब्रह्मचर्यतप धारण करने के लिए ॥२॥
भावार्थ
ब्रह्मचर्यसेवन से कामवासना सता नहीं सकती, ब्रह्मचर्य से गृहस्थसुख विशेषरूप से भोग जा सकता है, ब्रह्मचर्य से वानप्रस्थ का पालन हो सकता है ॥२॥
विषय
तपस्वी
पदार्थ
[१] (ये) = जो (तपसा) = तप के द्वारा (अनाधृष्याः) = न धर्षण के योग्य बनते हैं, तपस्या के कारण जो वासनाओं से आक्रान्त नहीं होते हैं। (ये) = जो (तपसा) = तप के द्वारा (स्वः ययुः) = प्रकाशमय व सुखमय लोक को प्राप्त करते हैं, जिन्हें तप सुखी व ज्ञानदीप्त बनाता है । (ये) = जो (महः तपः) = महान् तप को (चक्रिरे) = करते हैं । [२] यह हमारे समीप आया हुआ बालक (चित्) = निश्चय से (तान् एव) = उन लोगों के ही (अपि गच्छतात्) = समीप प्राप्त होनेवाला हो । अर्थात् ये भी तप के द्वारा वासनाओं को कुचलनेवाला बने । तप के कारण प्रकाशमय लोक को प्राप्त करे, दीप्त बुद्धिवाला हो । खूब ही तपस्वी हो ।
भावार्थ
भावार्थ- हम अपने सन्तानों को तपस्वी बनायें। जिससे वे वासनामय जीवन से हुए प्रकाशमय जीवनवाले बनें । दूर रहते
विषय
मोक्षगामी तपस्वियों की ओर जाने का आदेश।
भावार्थ
(ये तपसः अनाधृष्याः) जो तप से परास्त नहीं होते, और (ये तपसा स्वः ययुः) जो तप से समस्त सुख वा मोक्षमय आनन्द को प्राप्त होते हैं (ये महः तपः चक्रिरे) जो बहुत बड़े २ भारी तप को करते हैं। (तान् चित् एव अपि गच्छतात्) हे जिज्ञासो ! वा जीवन मार्ग के यात्रिन् ! तू उनको भी प्राप्त हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिर्यमी॥ देवता—भाववृत्तम् ॥ छन्दः–१, ३, ४ अनुष्टुप्। २, ५ निचृदनुष्टुप् ॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(ये तपसा-अनाधृष्याः) ये महानुभावास्तपोबलेन महता ब्रह्मचर्येण “ब्रह्मचर्येण तपसा” कामवासनया-अधृष्या न चालयितुं शक्याः (ये तपसा स्वः-ययुः) ये महानुभावास्तेनैव तपसा सुखविशेषं यान्ति (ये महः-तपः-चक्रिरे) ये महत्तपः-कुर्वन्ति (तान्-चित्-एव-अपि गच्छतात्) तान् चिदेवापि गच्छ तेभ्यो ब्रह्मचर्यं तपोधारणाय ॥२॥
इंग्लिश (1)
Meaning
There are those who by tapas rise undaunted, those who by tapas rise to the heaven of bliss, and those who perform tapas of high order. The spirit of life flows for all of them, universally.
मराठी (1)
भावार्थ
ब्रह्मचर्य स्वीकारल्यानंतर कामवासना त्रस्त करत नाही. ब्रह्मचर्याने गृहस्थसुख विशेषरूपाने भोगता येते. ब्रह्मचर्याने वानप्रस्थाचे पालन होऊ शकते. ॥२॥
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