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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 163 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 163/ मन्त्र 6
    ऋषिः - विवृहा काश्यपः देवता - यक्ष्मघ्नम् छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    अङ्गा॑दङ्गा॒ल्लोम्नो॑लोम्नो जा॒तं पर्व॑णिपर्वणि । यक्ष्मं॒ सर्व॑स्मादा॒त्मन॒स्तमि॒दं वि वृ॑हामि ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अङ्गा॑त्ऽअङ्गात् । लोम्नः॑ऽलोम्नः । जा॒तम् । पर्व॑णिऽपर्वणि । यक्ष्म॑म् । सर्व॑स्मात् । आ॒त्मनः॑ । तम् । इ॒दम् । वि । वृ॒हा॒मि॒ । ते॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अङ्गादङ्गाल्लोम्नोलोम्नो जातं पर्वणिपर्वणि । यक्ष्मं सर्वस्मादात्मनस्तमिदं वि वृहामि ते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अङ्गात्ऽअङ्गात् । लोम्नःऽलोम्नः । जातम् । पर्वणिऽपर्वणि । यक्ष्मम् । सर्वस्मात् । आत्मनः । तम् । इदम् । वि । वृहामि । ते ॥ १०.१६३.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 163; मन्त्र » 6
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 21; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अङ्गात्-अङ्गात्) अङ्गमात्र से (लोम्नः लोम्नः) प्रत्येक लोमयुक्त स्थान से (पर्वणिपर्वणि-जातम्) प्रतिपर्व-जोड़ में उत्पन्न (यक्ष्मम्) रोग को (सर्वस्मात्-आत्मनः) सारे शरीर से (ते) तेरे (तम्-इदम्) इस रोग को (वि वृहामि) दूर करता हूँ ॥६॥

    भावार्थ

    कुशल वैद्य को प्रत्येक अङ्ग, प्रत्येक जोड़, प्रत्येक लोमस्थान तथा सारे शरीर से रोग को बाहर निकाल देना चाहिये ॥६॥

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    विषय

    सर्वांग दोष निरास

    पदार्थ

    [१] (अंगात् अंगात्) = मैं तेरे प्रत्येक अंग से (यक्ष्मं विवृहामि) = रोग को दूर करता हूँ । (लोम्नः लोम्नः) = लोम लोम से (जातम्) = उत्पन्न हुए हुए इस रोग को हटाता हूँ। [२] (पर्वणि पर्वणि) = एक-एक पर्व में, जोड़ में हो गये इस रोग को दूर करता हूँ। [३] मैं (ते) = तेरे (तं इदम्) = उस इस रोग को (सर्वस्मात् आत्मनः) = सारे देह से दूर करता हूँ ।

    भावार्थ

    भावार्थ- मैं तेरे सारे अंगों को नीरोग करता हूँ । अगं -प्रत्यंग को नीरोग बनाने की भावना से सारा सूक्त भरा है। अगले सूक्त में मन को निर्मल बनाने का प्रयत्न करते हैं। मन की निर्मलता से कभी दुःस्वप्न नहीं आते। सो यह 'दुःस्वप्नघ्न' सूक्त कहलाता है। इसका ऋषि 'प्रचेताः 'प्रकृष्ट ज्ञानवाला है । यह पाप संकल्प को सम्बोधन करता हुआ कहता है-

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    विषय

    रोगी के आंख, नाक, कान, ठुड्डी, मस्तिष्क, बाहु, धमनियों, और अस्थियों गुदा, आंतों, आदि पेट के भीतरी अंगों से और जांघों, पैरों, टांगों, एड़ियों, पंजों, नितम्बों से, मूत्र, मलादि द्वारों और अन्य अनेक जोड़ों से राजयक्ष्मादि नाश करने का उपदेश।

    भावार्थ

    (अंगात् अंगात्) अंग अंग से, (लोम्नः लोम्नः) लोम लोम से, और (पर्वणि पर्वणि जातं) पोरू २ में पैदा हुए (तम् इदम्) उस इस (यक्ष्मं) रोगकारी कारण को (सर्वस्मात् आत्मनः) समस्त देह से (वि वृहामि) दूर करूं। इत्येकविंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिविंवृहा काश्यपः॥ देवता यक्ष्मध्नम्॥ छन्द:- १, ६ अनुष्टुप्। २-५ निचृदनुष्टुप्॥ षडृचं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अङ्गात्-अङ्गात्) अङ्गमात्रात् (लोम्नः-लोम्नः) लोमयुक्तस्थानमात्रात् (पर्वणिपर्वणि-जातम्) प्रतिपर्वजातम् (यक्ष्मम्) रोगम् (सर्वस्मात्-आत्मनः) सर्वस्माच्छरीरात् (ते तम्-इदं वि वृहामि) तमिदं रोगं दूरीकरोमि ॥६॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    I eliminate the cancer, consumption and canker from every limb, every hair, every joint, wherever this wasting negativity takes root, from your entire living system, I throw it out for your life.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    कुशल वैद्याने प्रत्येक अङ्ग, प्रत्येक जोड, प्रत्येक लोम स्थान व संपूर्ण शरीरातून रोगाला बाहेर काढून टाकले पाहिजे. ॥६॥

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