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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 178 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 178/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अरिष्टनेमिस्तार्क्ष्यः देवता - तार्क्ष्यः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स॒द्यश्चि॒द्यः शव॑सा॒ पञ्च॑ कृ॒ष्टीः सूर्य॑ इव॒ ज्योति॑षा॒पस्त॒तान॑ । स॒ह॒स्र॒साः श॑त॒सा अ॑स्य॒ रंहि॒र्न स्मा॑ वरन्ते युव॒तिं न शर्या॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒द्यः । चि॒त् । यः । शव॑सा । पञ्च॑ । कृ॒ष्टीः । सूर्यः॑ऽइव । ज्योति॑षा । अ॒पः । त॒तान॑ । स॒ह॒स्र॒ऽसाः । श॒त॒ऽसाः । अ॒स्य॒ । रंहिः॑ । न । स्म॒ । व॒र॒न्ते॒ । यु॒व॒तिम् । न । शर्या॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सद्यश्चिद्यः शवसा पञ्च कृष्टीः सूर्य इव ज्योतिषापस्ततान । सहस्रसाः शतसा अस्य रंहिर्न स्मा वरन्ते युवतिं न शर्याम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सद्यः । चित् । यः । शवसा । पञ्च । कृष्टीः । सूर्यःऽइव । ज्योतिषा । अपः । ततान । सहस्रऽसाः । शतऽसाः । अस्य । रंहिः । न । स्म । वरन्ते । युवतिम् । न । शर्याम् ॥ १०.१७८.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 178; मन्त्र » 3
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 36; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (यः) जो विद्युन्मय वायु (सद्यः-चित्) शीघ्र ही यथावसर तत्काल ही (शवसा) वेग से (अपः-ततान) जलों को तानता है, (सूर्यः-इव) सूर्य जैसे (ज्योतिषा) निज ज्योति के द्वारा पृथिवीस्थ जलाशयों से जल खींच कर अन्तरिक्ष में तानता है, ऐसे ही विद्युन्मय वायु तानता है (पञ्चकृष्टीः) अन्तरिक्ष से पाँचों मनुष्यों-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और वनवासी के प्रति वृष्टिजलों को पृथिवी पर फैलाता है (अस्य रंहिः) इस विद्युन्मय वायु की गति (शतसाः सहस्रसाः) शत-सौ स्थानों को सहस्र स्थानों को प्राप्त होनेवाली या शत घोड़ों तथा सहस्र घोड़ों की शक्ति जैसी है (न वरन्ते स्म) इसे कोई रोक नहीं सकते (युवतिं शर्यां न) जैसे धनुष में नियुक्त बलवाली शरयुक्ता बाण को कोई रोक नहीं सकता, जब तक वह लक्ष्य को नहीं बींध लेती ॥३॥

    भावार्थ

    विद्युद्युक्त वायु मेघों को पृथिवी पर बिखेर देता है, जो सभी मनुष्यों के लिए हितकर है, उसकी गतिशक्ति सभी स्थानों पर काम करती है या सैकड़ों सहस्रों घोड़ों जितनी बलवाली है, वह होम से पुष्ट होकर अच्छी हितकारी वर्षा करता है ॥३॥

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    विषय

    ज्ञान व कर्म की प्रेरणा

    पदार्थ

    [१] (यः) = जो (सद्य चित्) = शीघ्र ही शवसा शक्ति के द्वारा (पञ्च कृष्टी:) = [पचि विस्तारे] अपनी शक्तियों का विस्तार करनेवाले मनुष्यों के प्रति (सूर्य इव) = सूर्य की तरह (ज्योतिषा) = ज्योति के साथ (अपः) = कर्मों को (ततान) = विस्तृत करता है । प्रभु श्रमशील मनुष्य को ज्ञान व कर्म की प्रेरणा प्राप्त कराते हैं। जैसे सूर्य प्रकाश को फैलाता है और अपने उदाहरण से निरन्तर गति की प्रेरणा देता है, इसी प्रकार प्रभु इन कृष्टियों को ज्ञान व कर्म की प्रेरणा देते हैं । [२] वे प्रभु (सहस्रसा:) = हजारों ही दान देनेवाले हैं, (शतसा:) = सैंकड़ों उस प्रभु के दान हैं। प्रभु के इन दानों को (न वरन्ते स्म) = कोई भी रोक नहीं सकते। उसी प्रकार नहीं रोक सकते (न) = जैसे कि (युवतिम्) = लक्ष्य के साथ अपना मिश्रण करनेवाले (शर्याम्) = बाण को । धनुष से लक्ष्य की ओर चल पड़े हुए बाण को कोई भी रोक नहीं सकता। वह तो अब लक्ष्य की ओर जायेगा ही। इसी प्रकार प्रभु से दिये जानेवाले दानों को कोई रोक नहीं सकता ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु से हमें ज्ञान व कर्म की प्रेरणा प्राप्त होती है। प्रभु से दिये जानेवाले दानों को कोई रोक नहीं सकता । सूक्त का भाव यही है कि प्रभु से प्रेरणा को प्राप्त करनेवाला व्यक्ति 'अरिष्टनेमि तार्क्ष्य' बनता है। यह अपने जीवन को निम्न प्रकार से बिताता है-

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    विषय

    अतिशीघ्र अदम्य वेगवान् विद्युत् का वर्णन। पक्षान्तर में तार्क्ष्य आत्मा। पांच कृष्टि पांच इन्द्रियगण। शर्या युवति का रहस्य।

    भावार्थ

    जो (सद्यः चित्) शीघ्र ही, (शवसा) बल से (सूर्यः इव ज्योतिषा) तेज से सूर्य के तुल्य (पञ्च कृष्टीः) पांचों प्रकार के मनुष्यों को (अपः ततान) मेघवत् जल देता, नाना कर्म कराता है। वह (सहस्र-साः शत-साः) सैकड़ों, हज़ारों ऐश्वर्यों को देने वाला है। (शर्याम् युवतिं न) लक्ष्य का भेद करने वाली बाण की दण्डी, वा नालिका के तुल्य अथवा शत्रु की हिंसा करने वाली नाना रसादि मिश्रणों से बनी कृत्या के तुल्य (अस्य रंहिः) इसके वेग को कोई (न वरन्ते स्म) नहीं रोक सकते। यहां ‘युवति’ शब्द का अर्थ स्त्री नहीं। अध्यात्म में—तार्क्ष्य आत्मा है। पांच कृष्टि पांच इन्द्रियगण हैं, वे अश्व के तुल्य देह में आत्मा को विषयों की ओर खेचते हैं। इति षड्त्रिंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    ‘शर्या युवति’ नाम कृत्या का प्रकरण देखो (अथर्व का० १२।१॥)

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिररिष्टनेमिस्तार्क्ष्यः॥ देवता—तार्क्ष्यः॥ छन्द:- १ विराट् त्रिष्टुप्। २ निचृत् त्रिष्टुप्। ३ त्रिष्टुप्॥ तृचं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (यः) यस्तार्क्ष्यो विद्युन्मयो वायुविशेषः (सद्यः-चित्) शीघ्रमपि यथावसरं तत्कालमेव (शवसा) बलेन वेगेन “शवः बलनाम” [निघ० १।१२] (अपः-ततान) जलानि तनोति (सूर्यः-इव ज्योतिषा) यथा सूर्यो निजज्योतिषा पृथिवीस्थजलाशयेभ्यो जलान्याकृष्यान्तरिक्षे तनोति तथा स तार्क्ष्यो विद्युन्मयो वायुविशेषः (पञ्चकृष्टीः) अन्तरिक्षात् पञ्च मनुष्यजातानि प्रति “कृष्टयो मनुष्याः” [निघ० २।३] चत्वारो वर्णा निषादः पञ्चमः” [निरु० ३।८] वृष्टिजलानि पृथिव्यां प्रसारयति (अस्य रंहिः) अस्य वायोर्गतिः (शतसाः सहस्रसाः) शतसानिनी सहस्रसानिनी शतस्थानानि सहस्रस्थानानि सम्भजमाना यद्वा शताश्वैः-सम्भजनीया सहस्राश्वैः सम्भजनीया-असंख्याताश्वगतितुल्यास्ति ताम् (न वरन्ते स्म) न वारयन्ति नावरोद्धुं शक्नुवन्ति केचनापि (युवतिं शर्यां न ) धनुषि नियुक्तां बलवतीं शरमयीमिषुमिव यावल्लक्ष्यवेधनं न स्यात् ॥३॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Instantly does this wind-electric energy reach all five peoples of the earth with its force, power and speed like the sun which spreads its light and brings vapours and showers of rain over earth for humanity. Hundredfold and thousandfold is its power that travels, and just as none can stop the arrow fixed on the bow and shot, so no one can stop the flowing current of this energy once it is initiated for use.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    विद्युतयुक्त वायू मेघांना पृथ्वीवर इकडे-तिकडे पसरवितो. सर्व माणसांसाठी हितकर आहे. त्याची गतिशक्ती सर्व स्थानी काम करते किंवा शेकडो सहस्रो घोड्याइतकी बलवान आहे. तो होमाने पुष्ट होऊन चांगली हितकारक वृष्टी करतो. ॥३॥

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