ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 19/ मन्त्र 8
ऋषिः - मथितो यामायनो भृगुर्वा वारुणिश्च्यवनों वा भार्गवः
देवता - आपो गावो वा
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
आ नि॑वर्तन वर्तय॒ नि नि॑वर्तन वर्तय । भूम्या॒श्चत॑स्रः प्र॒दिश॒स्ताभ्य॑ एना॒ नि व॑र्तय ॥
स्वर सहित पद पाठआ । नि॒ऽव॒र्त॒न॒ । व॒र्त॒य॒ । नि । नि॒ऽव॒र्त॒न॒ । व॒र्त॒य॒ । भूम्याः॑ । चत॑स्रः । प्र॒ऽदिशः॑ । ताभ्यः॑ । ए॒नाः॒ । नि । व॒र्त॒य॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ निवर्तन वर्तय नि निवर्तन वर्तय । भूम्याश्चतस्रः प्रदिशस्ताभ्य एना नि वर्तय ॥
स्वर रहित पद पाठआ । निऽवर्तन । वर्तय । नि । निऽवर्तन । वर्तय । भूम्याः । चतस्रः । प्रऽदिशः । ताभ्यः । एनाः । नि । वर्तय ॥ १०.१९.८
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 19; मन्त्र » 8
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 1; मन्त्र » 8
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अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 1; मन्त्र » 8
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(निवर्तन) हे अन्यत्र से हमारी ओर आगमनशील परमात्मा ! (आवर्तय) हमारी ओर प्रवृत्त हो (निवर्तन) हे कदाचित् निवर्तनवाले ! (वर्तय) तू हमें अपनी ओर प्रवृत्त कर (भूम्याः-चतस्रः प्रदिशः) भूमि की जो चारों प्रदिशाएँ हैं, (ताभ्यः एनाः-निवर्तय) उन दिशाओं से इन गौ आदि को यहाँ प्राप्त करा ॥८॥
भावार्थ
हे अन्यत्र से हमारी ओर प्राप्त होनेवाले परमात्मन् ! तू हमारे अभिमुख हो, हमें अपनी ओर ले तथा भूमि की चारों दिशाओं से गौ आदियों को हमें प्राप्त करा ॥८॥
विषय
इन्द्रियों का निवर्तन
पदार्थ
[१] प्रभु जीव को प्रेरणा देते हुए कहते हैं कि हे (निवर्तन) = जीवनयात्रा को उत्तमता से करनेवाले जीव ! (आवर्तय) = तू अपनी इन इन्द्रियों को इन भूतों व लोकों और दिशा प्रदिशाओं में प्रवृत्त करनेवाला हो 'परीत्य भूतानि, परीत्य लोकान् परीत्य सर्वाः प्रदिशो दिशश्च' । ये इन्द्रियाँ इनके प्रति जाकर इनको बारीकी से देखें और इनके ज्ञान को प्राप्त करनेवाली हों । [२] हे (निवर्तन) = इस संसार में न उलझनेवाले जीव ! तू (निवर्तय) = इन इन्द्रियों को संसार के इन विविध विषयों से तू निवृत्त करनेवाला हो। ये इन्द्रियाँ उन विषयों के अन्दर उलझ न जायें। [३] (भूम्या:) = इस भूमि को (चतस्रः प्रदिशः) = ये चार विस्तृत दिशायें हैं। (ताभ्यः) = उनसे (एना) = इनको (निवर्तय) = तू निवृत्त करनेवाला हो । विषयों से ये इन्द्रियाँ बद्ध न हो जाएँ, तभी हम जीवन यात्रा को पूर्ण करके अपने ब्रह्मलोकरूप घर में वापिस आ सकेंगे।
भावार्थ
भावार्थ - इन्द्रियाँ विषयों के ज्ञान के लिये हैं, उनमें फँस जाने के लिये नहीं। इनको विषय व्यावृत्त सूक्त का प्रारम्भ इस प्रकार हुआ है कि हम इन्द्रियों को विषयासक्त न होने देकर 'शक्ति व शान्ति' के तत्त्वों का धारण करते हुए ज्ञानधन को धारण करें। [१] इन्द्रियों को आत्मवश्य करने का प्रयत्न करें, [२] इन्द्रियों को वश में करके हम गोपति बनें, [३] गोपा यही चाहता है कि इन्द्रियाँ विषयों में जायें परन्तु उनमें फँसे नहीं, [१] यह गोपा ही ब्रह्मलोक में लौटता है, [५] हमारी ये इन्द्रियाँ भोगासक्त होकर मृत न हो जाएँ, [६] अन्न, घृत व दुग्ध के सेवन से ये पुष्ट हों, [७] इनको हम भूमि की सब दिशाओं से लौटायें, [८] ऐसा करने पर ही हमारा मन भद्र की ओर प्रेरित होगा । करना हमारा मौलिक कर्तव्य है ।
विषय
प्रभु का उत्तम शासन। अध्यात्म में—इन्द्रिय-दमन का उपदेश।
भावार्थ
हे (निवर्तन) जगत् को नियम में चलाने हारे (आवर्तय) तू हमें सन्मार्ग में चला। हे (निवर्त्तन) हमें दुःखों और पापों से हटाने हारे ! तू (निवर्त्तय) हमें दुःखों और दुःखदायी मार्गों से सदा हटा लिया कर। (भूम्याः चतस्रः प्रदिशः) जीवों के उत्पन्न होने के लिये भूमि की चार मुख्य दिशाएं हैं (ताभ्यः एनाः निवर्त्तय) उन सब से उनको रोक, उन सब में जाने के लिये नियम- पूर्वक उन पर शासन कर। अथवा हे—इन्द्रियगण हे प्रजाओ ! तुम (नि-वर्तन नि-वर्तन) बुरे २ मार्ग से सदा निवृत्त रहो, सदा निवृत्त रहो। हे स्वामिन्! तू (आवर्तय निवर्तय) उनको सन्मार्ग में चला, बुरे मार्ग से रोक। चारों दिशाओं से उनका निग्रह कर।
टिप्पणी
‘आ निवर्त्त निवर्त्तय नि निवर्त्त निवर्त्तय।’ इति च पाठः। इति प्रथमो वर्गः॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मथितो यामायनो भृगुर्वा वारुणिश्च्यवनो वा भार्गवः। देवताः ११, २—८ आपो गावो वा। १२ अग्नीषोमौ॥ छन्दः-१, ३-५ निचृदनुष्टुप्। २ विराडनुष्टुप् ७, ८ अनुष्टुप्। ६ गायत्री। अष्टर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(निवर्तन) निवर्तनशील अस्मत्प्रत्यागमनशील परमात्मन् ! (आवर्तय) अस्मदभिमुखागमने खल्वावृत्तिं कुरु (निवर्तन) हे कदाचिन्निवर्तनस्वभाव ! (वर्तय) त्वं कदाचित् प्रवृत्तो भव (भूम्याः-चतस्रः प्रदिशः) भूम्याश्चतस्रः प्रदिशो याः सन्ति (ताभ्यः-एनाः-निवर्तय) ताभ्यो दिग्भ्य एता गाः प्रजा इन्द्रियाणि वा-अत्र प्रत्यागमय ॥८॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O constant, vibrant, ever present lord, turn to us. O lord ever vigilant, inspire us to turn to you. Four are the directions of the earth. From all these, let the wealth of the world, the energies of nature, the fluctuations of our mind and senses turn to us, revolve, concentrate and vibrate there and here.
मराठी (1)
भावार्थ
हे सर्वव्यापक परमेश्वरा ! तू आमच्या अभिमुख हो. आम्हाला तुझ्याजवळ घे व भूमीच्या चारही दिशांद्वारे गायी इत्यादी आम्हाला प्राप्त करून दे. ॥८॥
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