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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 21 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 21/ मन्त्र 5
    ऋषिः - विमद ऐन्द्रः प्राजापत्यो वा वसुकृद्वा वासुक्रः देवता - अग्निः छन्दः - विराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    अ॒ग्निर्जा॒तो अथ॑र्वणा वि॒दद्विश्वा॑नि॒ काव्या॑ । भुव॑द्दू॒तो वि॒वस्व॑तो॒ वि वो॒ मदे॑ प्रि॒यो य॒मस्य॒ काम्यो॒ विव॑क्षसे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निः । जा॒तः । अथ॑र्वणा । वि॒दत् । विश्वा॑नि । काव्या॑ । भुव॑त् । दू॒तः । वि॒वस्व॑तः । वि । वः॒ । मदे॑ । प्रि॒यः । य॒मस्य॑ । काम्यः॑ । विव॑क्षसे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निर्जातो अथर्वणा विदद्विश्वानि काव्या । भुवद्दूतो विवस्वतो वि वो मदे प्रियो यमस्य काम्यो विवक्षसे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निः । जातः । अथर्वणा । विदत् । विश्वानि । काव्या । भुवत् । दूतः । विवस्वतः । वि । वः । मदे । प्रियः । यमस्य । काम्यः । विवक्षसे ॥ १०.२१.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 21; मन्त्र » 5
    अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 4; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अथर्वणा) स्थिर चित्तवाले योगी के द्वारा (अग्निः-जातः) अग्रणायक परमात्मा अपने आत्मा में साक्षात् किया हुआ (विश्वानि काव्या विदत्) समस्त वेदज्ञानों को जनाता है (विवस्वतः-दूतः-अभवत्) अपने अन्दर विशिष्टरूप से बसानेवाले उपासक का प्रेरक होता है (यमस्य प्रियः काम्यः) संयमी जन का प्रियकारी कमनीय होता है (वः-मदे वि) तुझे हर्ष के निमित्त हम वरते हैं (विवक्षसे) तू विशिष्ट महत्त्ववान् है ॥५॥

    भावार्थ

    स्थिरचित्तवाला योगी परमात्मा को अपने आत्मा में साक्षात् करता है। साक्षात् हुआ परमात्मा उपासक के अन्दर वेदज्ञान को समझने की योग्यता प्रदान करता है। उस संयमी उपासक का परमात्मा प्यारा बनता है। उसे अपने हर्ष, आनन्द के लिए अपनाना चाहिए ॥५॥

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    विषय

    विवस्वान् का दूत

    पदार्थ

    [१] गत मन्त्र में प्रार्थना की गई थी कि हम अग्नि बन सकें। उसीका उपाय बतलाते हुए कहते हैं कि (अथर्वणा) = [न थर्वति] डाँवाडोल न होने से तथा [अथ अर्वाङ्] सदा अपने अन्दर आत्मनिरीक्षण करने से (अग्निः) = अग्नि (जात:) = हो जाता है। अग्नि व अग्रेणी बनने के लिये आवश्यक है कि मनुष्य अभ्यास व वैराग्य के द्वारा मन को स्थिर करे । चित्तवृत्तिनिरोध के बिना 'अग्नि' बनने का प्रश्न ही नहीं पैदा होता। इस अग्नि बनने के लिये प्रतिदिन आत्मनिरीक्षण भी नितान्त आवश्यक है । आत्मनिरीक्षण का अभ्यासी पुरुष ही कमियों को दूर करता हुआ आगे बढ़ पाता है। [२] यह अग्नि बननेवाला व्यक्ति (विश्वानि काव्या) = सम्पूर्ण ज्ञानों को (विदद्) = जाननेवाला होता है । वस्तुतः अन्तःस्थित उस महान् अग्नि [प्रभु] के प्रकाश को देखने से यह सम्पूर्ण तत्त्वों के रहस्य को जानने में समर्थ होता है। इसे उस कवि के काव्य प्राप्त होते ही हैं। [३] इन काव्यों को प्राप्त करके यह (विवस्वतः) = ज्ञान की किरणों वाले उस प्रभु का (दूतः भुवत्) = दूत होता है। उसके सन्देश को सर्वत्र फैलानेवाला बनता है। यही जीवन की अन्तिम मंजिल में 'प्राजापत्य यज्ञ में आहुति देना है । [४] इस ज्ञान - सन्देश को फैलाने के कार्य में लगा हुआ यह व्यक्ति (यमस्य) = उस सर्वनियन्ता प्रभु का (प्रियः) = प्यारा होता है। यह सारी प्रजा का भी (काम्यः) = चाहने योग्य होता है। [५] इस की कामना यही होती है कि हे प्रभो ! (वः) = आपकी प्राप्ति के (विमदे) = उत्कृष्ट आनन्द में (विवक्षसे) = सब प्रजायें विशिष्ट उन्नति के लिये हों । सारी प्रजाओं का झुकाव आपकी ओर हो और वे उन्नतिपथ पर आगे बढ़नेवाली हों ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम स्थिरचित्तता व आत्मनिरीक्षण के द्वारा अग्नि बनें। प्रभु के सन्देशवाहक बनकर प्रभु के प्रिय हों। हमारी कामना यही हो कि सब प्रभु प्रवण होकर उन्नतिपथ पर आगे बढ़ें।

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    विषय

    विद्वान् के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (अथर्वणा) अहिंसक, प्रजापालक राजा या गुरु द्वारा (जातः) उत्पन्न (अग्निः) ज्ञानी, तेजस्वी पुरुष (विश्वानि काव्या विदद्) समस्त विद्वानों के ज्ञानों को जाने। वह (काम्यः) सब के कामना योग्य, होकर (विवस्वतः यमस्य) विविध राजाओं वा प्रजाओं के स्वामी, प्रजा वा राष्ट्र के नियन्ता राजा का (दूतः) दूत भी (भुवत्) हो। हे प्रजाजनो ! वह (वः वि मदे) आप लोगों के नाना हर्ष, सुखों के लिये हो। वह (विवक्षसे) गुणों में महान् और कार्य भार उठाने में समर्थ है। इति चतुर्थो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विमद ऐन्द्रः प्राजापत्यो वा वसुकृद्वा वासुक्रः। अग्निर्देवता॥ छन्दः- १, ४, ८ निचृत् पंक्तिः। २ पादनिचृत् पंक्तिः। ३, ५, ७ विराट् पंक्तिः। ६ आर्ची पंक्तिः॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अथर्वणा) स्थिरचित्तवता योगिना (अग्निः-जातः) अग्रणायकः परमात्मा सम्पादितः स्वात्मनि साक्षात्कृतः (विश्वानि काव्या विदत्) समस्तानि वेदज्ञानानि “त्रयी वै विद्या काव्यं छन्दः” [श०८।५।२।४] वेदयत्-अवेदयत्-अज्ञापयत्‘अडभावश्छान्दसः’ अन्तर्गतो णिजर्थश्च। (विवस्वतः-दूतः-अभवत्) स्वस्मिन् विशिष्टतया वासं कुर्वतः-उपासकस्य प्रेरको भवति (यमस्य प्रियः काम्यः) संयमिनो जनस्य प्रियकारी कमनीयो भवतीति शेषः (वः-मदे वि) त्वां हर्षनिमित्ताय वृणुयाम (विवक्षसे) विशिष्टमहत्त्ववान् त्वमसि ॥५॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, light of divinity, realised by the man of constant mind, would enable him to know all knowledge of the world, being the messenger of the spirit of omniscience and love of the man of divine discipline. Agni you are great in your own light and joy for your devotees.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    स्थिर चित्त असणारा योगी परमात्म्याला आपल्या आत्म्यात साक्षात करतो. साक्षात झालेला परमात्मा उपासकामध्ये वेदज्ञानाला समजण्याची योग्यता प्रदान करतो. परमात्मा त्या संयमी उपासकाचा प्रिय बनतो. त्याने आपल्या हर्ष, आनंदासाठी परमात्म्याला आपलेसे करावे. ॥५॥

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