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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 23 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 23/ मन्त्र 2
    ऋषिः - विमद ऐन्द्रः प्राजापत्यो वा वसुकृद्वा वासुक्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिगार्चीजगती स्वरः - निषादः

    हरी॒ न्व॑स्य॒ या वने॑ वि॒दे वस्विन्द्रो॑ म॒घैर्म॒घवा॑ वृत्र॒हा भु॑वत् । ऋ॒भुर्वाज॑ ऋभु॒क्षाः प॑त्यते॒ शवोऽव॑ क्ष्णौमि॒ दास॑स्य॒ नाम॑ चित् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हरी॒ इति॑ । नु । अ॒स्य॒ । या । वने॑ । वि॒दे । वसु॑ । इन्द्रः॑ । म॒घैः । म॒घऽवा॑ । वृ॒त्र॒ऽहा । भु॒व॒त् । ऋ॒भुः । वाजः॑ । ऋ॒भु॒क्षाः । प॒त्य॒ते॒ । शवः॑ । अव॑ । क्ष्णौ॒मि॒ । दास॑स्य । नाम॑ । चि॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हरी न्वस्य या वने विदे वस्विन्द्रो मघैर्मघवा वृत्रहा भुवत् । ऋभुर्वाज ऋभुक्षाः पत्यते शवोऽव क्ष्णौमि दासस्य नाम चित् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    हरी इति । नु । अस्य । या । वने । विदे । वसु । इन्द्रः । मघैः । मघऽवा । वृत्रऽहा । भुवत् । ऋभुः । वाजः । ऋभुक्षाः । पत्यते । शवः । अव । क्ष्णौमि । दासस्य । नाम । चित् ॥ १०.२३.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 23; मन्त्र » 2
    अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 9; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अस्य या हरी नु वसु विदे) इस राजा के जो दुःखहर्ता और सुख-आहर्ता सभा-विभाग और सेना-विभाग धन को प्राप्त कराते हैं, (मघैः-मघवा-इन्द्रः) धनों के द्वारा धनवान् होता है, वह राजा है। (वृत्रहा भुवत्) शत्रुहन्ता होता है। (ऋभुः-वाजः-ऋभुक्षाः) मेधावी बलवान् तथा महान् होता हुआ (पत्यते) स्वामित्व करता है-शासन करता है। (दासस्य शवः-नामचित्-अवक्ष्णौमि) जो हमें क्षीण करता है, उसके बल और नाम को भी तेजोहीन कर देता-नष्ट कर देता है ॥२॥

    भावार्थ

    राजा के सभाविभाग और सेनाविभाग दुःखनाशक और सुखप्रापक होते हुए प्रजा के लिए धन प्राप्त करानेवाले होने चाहिए। ऐसा राजा शत्रुनाशक, मेधावी, महान् बलवान् होकर शासन करता है। प्रजा को दुःख देनेवाले शत्रु के बल और नाम तक को मिटा देता है ॥२॥

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    विषय

    वासना का समूल विनाश

    पदार्थ

    [१] (ये) = मेरे (हरी) = इन्द्रियाश्व, (या) = जिनको कि मैं (वने) = [win] विजय करता हूँ, (नु) = अब (अस्य) = इस प्रभु के हैं, अर्थात् अब ये इन्द्रियाँ विषयाभिमुख न होकर प्रभु-प्रवण हो गयी हैं । वस्तुतः ऐसा होने पर ही मैं (वसु विदे) = वास्तविक धन को प्राप्त करता हूँ । [२] वह (इन्द्रः) = सब शत्रुओं का विद्रावण करनेवाला प्रभु जो कि (मघैः मघवा) = सब ऐश्वर्यों से ऐश्वर्य सम्पन्न है, (वृत्रहा भुवत्) = वासना का नष्ट करनेवाला होता है। प्रभु प्रवणता से ही वासनाओं का विनाश होता है। [३] ये प्रभु (ऋभुः) = ऋत से देदीप्यमान हैं, प्रभु का ऋत सृष्टि में सर्वत्र कार्य कर रहा है। (वाजः) = वे प्रभु शक्ति के पुञ्ज हैं। वस्तुतः ऋत में ही शक्ति है। जब प्रभु ऋत से चमकते हैं तो उन्हें शक्ति का पुञ्ज होना ही चाहिए। (ऋभुक्षाः) = वे प्रभु महान् हैं। अथवा ऋत से चमकने वालों में ही निवास करनेवाले हैं [ऋभु + क्षि] । जब हम अपने जीवन को नियमित बनाते हैं तो हम अपने को प्रभु का अधिष्ठान बनाते हैं । वे प्रभु (शवः पत्यते) = सब बलों के स्वामी हैं । सो जब भी हम अपने हृदयों में प्रभु को प्रतिष्ठित करेंगे तो हमारे में भी उस बल का संचार होगा। [४] इस प्रभु के बल से बल सम्पन्न होकर मैं दासस्य इस विनाशक 'काम' नामक आसुरवृत्ति के (नाम चित्) = [नम्यते ऽनेन] (शिरः सा) = सिर को ही (अव क्ष्णौमि) = सुदूर हिंसित करता हूँ अथवा इस वृत्त के नाम को भी नष्ट कर डालता हूँ। इसको नामावशेष भी नहीं रहने देता।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम इन्द्रियों को जीतकर प्रभु-प्रवण बनायें। यही जीवन को उत्तम बनाने का मार्ग है। इससे हम प्रभु शक्ति सम्पन्न होकर वासना को समूल नष्ट कर देंगे।

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    विषय

    राष्ट्रपति के कर्त्तव्य, उसकी प्रजा के नर-नारियों के आधार पर समृद्धि।

    भावार्थ

    (या हरी) जो स्त्री पुरुष वर्ग (अस्य वने) इसके ऐश्वर्यमय तेजोयुक्त भोग्य राष्ट्र में (वसुविदे) धन प्राप्त करते हैं (इन्द्रः) शत्रुहन्ता राजा (मधैः मघवा) उन्हों से स्वयं भी उत्तम धनों का स्वामी होकर (वृत्रहा भुवत्) बढ़ते शत्रु का नाश करने में समर्थ होता है। वह (ऋभुः) सत्य न्याय, तेज से चमकने वाला और (वाजः) बलशाली ,(ऋभु-क्षाः) विद्वान् तेजस्वी और सत्य-न्यायशील पुरुषों का आश्रय, महान् होकर (शवः पत्यते) बल और धन का पालक राष्ट्रपति और अर्थपति हो जाता है। तब मैं प्रजा वर्ग भी (दासस्य) अपने नाशकारी दुष्ट जन के (शवः) बल और (नाम चित्) नाम तक को भी (अव क्ष्णौमि) नाश करने में समर्थ होता हूं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विमद ऐन्द्रः प्राजापत्यो वा वसुकृद्वा वासुक्रः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः–१ विराट् त्रिष्टुप्। २, ४ आर्ची भुरिग् जगती। ६ आर्ची स्वराड् जगती। ३ निचृज्जगती। ५, ७ निचृत् त्रिटुष्प् ॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अस्य या हरी नु वसु विदे) अस्य राज्ञो यौ दुःखापहर्त्ता सुखाहर्त्ता च सभाविभागः सेनाविभागश्च धनं वेदयेते (मघैः-मघवा-इन्द्रः) धनैर्धनवान् भवति स राजा (वृत्रहा भुवत्) शत्रुहन्ता भवति (ऋभुः-वाजः-ऋभुक्षाः) मेधावी “ऋभुर्मेधावी” [निघ० ३।१५] बलवान् तथा महान् “ऋभुक्षाः-महन्नाम” [निघं० ३।३] (पत्यते) स्वामित्वं करोति “पत्यते ऐश्वर्यकर्मा” [निघं० २।२१] (दासस्य शवः-नाम चित्-अवक्ष्णौमि) योऽस्मान् दासयति क्षिणोति तस्य बलं नामापि नाशयति “पुरुषव्यत्ययश्छान्दसः ॥२॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The wealth of energy which the currents bring into the solar rays are universal whereby Indra becomes powerful with natural forces to break the dark clouds of rain. Master of spiritual and physical strength, Indra rules and protects the wealth, power and honour of the world, under that protection I too wish to eliminate even the last trace of negativity and force of destruction.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राजाचे सभाविभाग व सेनाविभाग दु:खनाशक आणि सुखप्रापक असून, प्रजेसाठी धन प्राप्त करविणारे असावेत. असा राजा शत्रूनाशक, मेधावी, महान बलवान बनून शासन करतो. प्रजेला दु:ख देणाऱ्या शत्रूचे बल व नावही मिटवितो. ॥२॥

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