ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 26/ मन्त्र 2
ऋषिः - विमद ऐन्द्रः प्राजापत्यो वा वसुकृद्वा वासुक्रः
देवता - पूषा
छन्दः - स्वराडार्च्यनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
यस्य॒ त्यन्म॑हि॒त्वं वा॒ताप्य॑म॒यं जन॑: । विप्र॒ आ वं॑सद्धी॒तिभि॒श्चिके॑त सुष्टुती॒नाम् ॥
स्वर सहित पद पाठयस्य॑ । त्यत् । म॒हि॒ऽत्वम् । वा॒ताप्य॑म् । अ॒यम् । जनः॑ । विप्रः॑ । आ । वं॒स॒त् । धी॒तिऽभिः॑ । चिके॑त । सु॒ऽस्तु॒ती॒नाम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्य त्यन्महित्वं वाताप्यमयं जन: । विप्र आ वंसद्धीतिभिश्चिकेत सुष्टुतीनाम् ॥
स्वर रहित पद पाठयस्य । त्यत् । महिऽत्वम् । वाताप्यम् । अयम् । जनः । विप्रः । आ । वंसत् । धीतिऽभिः । चिकेत । सुऽस्तुतीनाम् ॥ १०.२६.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 26; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
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अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अयं विप्रः-जनः) सब प्राणियों में मेधावी जन (यस्य) जिस पोषण करनेवाले परमात्मा की (महित्वम्) महती कृपा से (त्यत्-वाताप्यम्) उस जीवात्मा के अन्नादि भोग को (धीतिभिः) अपने कर्मों से अपने कर्मानुसार (आवंसत्) भलीभाँति भोगता है (सुष्टुतीनां चिकेत) उत्तम स्तुतियों द्वारा परमात्मा का स्मरण करे ॥२॥
भावार्थ
बुद्धिमान् मनुष्य को चाहिये कि जिस पोषण-कर्त्ता परमात्मा की कृपा से अन्नादि भोग को अपने कर्मानुसार प्राप्त करता है, सेवन करता है, उस परमात्मा को स्तुतियों द्वारा स्मरण करे ॥२॥
विषय
वायु व जल में प्रभु-दर्शन
पदार्थ
[१] गत मन्त्र के अनुसार वह पूषा हमें स्पृहणीय बुद्धि, उत्तम इन्द्रियाश्व व प्राणापान को प्राप्त कराये (यस्य) = जिस प्रभु के (त्यत्) = उस प्रसिद्ध (वाताप्यम्) = [वात + अप + य] वायु व जल में प्रकट होनेवाले (महित्वम्) = महत्त्व को (अयम्) = यह (विप्रः) = मेधावी (जनः) = मनुष्य (आवंसत्) = संभजते-सम्यक् सेवन करता है और (धीतिभिः) = ध्यान के द्वारा अथवा यज्ञादि उत्तम कर्मों के द्वारा (सुष्टुतीनाम्) = उस पूषा की उत्तम स्तुतियों को (चिकेत) = जानता है । [२] प्रभु की महिमा इस पाञ्चभौतिक संसार के प्रत्येक भूत में प्रकट हो रही है, परन्तु जीव विशेषकर उस महिमा को जल व वायु में देख पाता है । एक मिनिट के लिए भी वायु बन्द हुई तो दम घुटने लगता है, जल के बिना भी एक दिन का बिताना कठिन हो जाता है । सो बहती हुई वायु में तथा बहते हुए इन जलों में प्रभु की महिमा झट दिख पाती है। संस्कृत साहित्य में वायु तो 'प्राण' ही है, जल भी 'जीवन' है । ये प्राणि जीवन के दो मूल-स्तम्भ हैं । [३] वस्तुतः यह मेधावी मनुष्य जितना-जितना ध्यान करता है, प्रकृति के पदार्थों का चिन्तन करता है, उतना उतना ही उन पदार्थों में प्रभु की महिमा का दर्शन करता है । उसे हिमाच्छादित पर्वत, समुद्र व पृथ्वी सभी प्रभु की महिमा का प्रतिपादन करते प्रतीत होते हैं। आकाश को आच्छादित करनेवाले तारे प्रभु की स्तुति करते दिखते है।
भावार्थ
भावार्थ - उस पूषा की महिमा वायु व जल आदि सभी पदार्थों में सुव्यक्त है।
विषय
सर्वपोषक प्रभु।
भावार्थ
(अयं जनः) यह मनुष्य (यस्य) जिस सूर्यवत् तेजस्वी प्रभु के (वाताप्यं) प्रबल वायु वा प्राण द्वारा प्राप्त होने योग्य, मेघजल के तुल्य जीवनप्रद (त्यत् महित्वं) उस महान् सामर्थ्य को (धीतिभिः आ वंसत्) खान-पान क्रियाओं से भोजन जलादि के तुल्य ही स्तुतियों और ध्यान धारणाओं द्वारा प्राप्त करता है वह (विप्रः) परम मेधावी ही (सु-स्तुतीनां चिकेत) उत्तम स्तुतियों को भली प्रकार जानता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विमद ऐन्द्रः प्राजापत्यो वा वसुकृद्वा वासुक ऋषिः। पूषा देवता॥ छन्दः- १ उष्णिक् ४ आर्षी निचृदुष्णिक्। ३ ककुम्मत्यनुष्टुप्। ५-८ पादनिचदनुष्टुप्। ९ आर्षी विराडनुष्टुप्। २ आर्ची स्वराडनुष्टुप्॥ नवर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अयं विप्रः-जनः) सर्वप्राणिषु मेधावी जनः (यस्य) यस्य पूष्णः पोषयितुः परमात्मनः (महित्वम्) महित्वेन महत्या कृपया “व्यत्ययेन तृतीयास्थाने प्रथमा” (त्यत् वाताप्यम्) तत् वातापेः इन्द्रस्य जीवात्मनो भोज्यम्-अन्नम् “इन्द्र उ वातापिः स वातमाप्त्वा शरीराण्यर्हन् प्रतिप्रैति” [कौ० २०।४] (धीतिभिः) स्वकर्मभिः “धीतिभिः कर्मभिः” [निरु० ११।१६] (आवंसत्) समन्तात् सम्भजते संसेवते भुङ्क्ते सः (सुष्टुतीनां चिकेत) शोभनस्तुतिभिः “व्यत्ययेन तृतीयास्थाने षष्ठी” तं परमात्मानं स्मरेत्-स्मरति ॥२॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Pusha, whose grandeur of that order, that food for the soul, may this humanity, this vibrant sage, attain by noble thoughts and actions. The lord knows of our sincere prayers and adorations.
मराठी (1)
भावार्थ
बुद्धिमान मनुष्य ज्या पोषणकर्त्या परमेश्वराच्या कृपेने अन्न इत्यादी भोग आपल्या कर्मानुसार प्राप्त करतो, ग्रहण करतो. त्या परमेश्वराचे स्तुतीद्वारे स्मरण करावे. ॥२॥
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