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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 27 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 27/ मन्त्र 3
    ऋषिः - वसुक्र ऐन्द्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    नाहं तं वे॑द॒ य इति॒ ब्रवी॒त्यदे॑वयून्त्स॒मर॑णे जघ॒न्वान् । य॒दावाख्य॑त्स॒मर॑ण॒मृघा॑व॒दादिद्ध॑ मे वृष॒भा प्र ब्रु॑वन्ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । अ॒हम् । तम् । वे॒द॒ । यः । इति॑ । ब्रवी॑ति । अदे॑वऽयून् । स॒म्ऽअर॑णे । ज॒घ॒न्वान् । य॒दा । अ॒व॒ऽअख्य॑त् । स॒म्ऽअर॑णम् । ऋघा॑वत् । आत् । इत् । ह॒ । मे॒ । वृ॒ष॒भा । प्र । ब्रु॒व॒न्ति॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नाहं तं वेद य इति ब्रवीत्यदेवयून्त्समरणे जघन्वान् । यदावाख्यत्समरणमृघावदादिद्ध मे वृषभा प्र ब्रुवन्ति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न । अहम् । तम् । वेद । यः । इति । ब्रवीति । अदेवऽयून् । सम्ऽअरणे । जघन्वान् । यदा । अवऽअख्यत् । सम्ऽअरणम् । ऋघावत् । आत् । इत् । ह । मे । वृषभा । प्र । ब्रुवन्ति ॥ १०.२७.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 27; मन्त्र » 3
    अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 15; मन्त्र » 3
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अदेवयून् समरणे जघन्वान्) मुझे अपना इष्टदेव न माननेवालों को संग्राम में मारता हूँ (इति यः-ब्रवीति) ऐसी जो घोषणा करता है, (तम्-न-अहं वेद) मैं उसे नहीं जानता, क्योंकि मेरे बिना कोई ऐसा नहीं कह सकता है, मेरी सहायता से ही मार सकता है (यदा समरणे-अवाख्यत्) जब संग्राम को, अपने अन्दर साक्षात् देखता है (ऋघावत्-आत्-इत्-ह) परस्पर देवासुरवृत्तियाँ सत्य-असत्य-विवेचक जिसमें मतियाँ होती हैं, वह ऋघावान् उसकी भाँति तुरन्त ही (मे वृषभा प्र ब्रुवन्ति) मेरे बलवान् कर्मों को प्रशंसित करते हैं ॥३॥

    भावार्थ

    मनुष्य किसी भी संग्राम-प्रसङ्ग में अपने विरोधी को बिना परमात्मा की सहायता पाये परास्त नहीं कर सकता। देवासुरवृत्तियों के आन्तरिक संग्राम में परमात्मा की सहायता की आवश्यकता है, अतः उस परमात्मा के गुण, कर्म, पौरुष की स्तुति करनी चाहिये ॥३॥

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    विषय

    भौतिकता व युद्ध

    पदार्थ

    [१] प्रभु कहते हैं कि (अहम्) = मैं (तम्) = उस पुरुष को (न वेद) = नहीं जानता हूँ (यः) = जो (इति ब्रवीति) = यह कहता है कि वह प्रभु (अदेवयून्) = अदेव वृत्तिवाले, न देनेवाले, सारा स्वयं ही खा जानेवाले असुर पुरुषों को (समरणे) = संग्राम में (जघन्वान्) = मारते हैं । अर्थात् लोग समान्यतः इस बात को भूले रहते हैं और उन्मत्त-सी जीवन की अवस्था में खा-पीकर शरीरों को खूब ही पुष्ट करते हैं । [२] परन्तु (यदा) = जब कभी यह व्यक्ति (ऋघावत्) = हिंसावाले, भयङ्कर हिंसा के दृश्यों से युक्त (समरणम्) = युद्ध को (अवाख्यत्) = देखता है, तो भयभीत होकर घबरा उठता है और (आत् इत्) = इसके एकदम बाद (ह) = निश्चय से (मे) = मेरे (वृषभा) = शक्तिशाली कर्मों का (ब्रुवन्ति) = प्रवचन करते हैं, अर्थात् युद्ध के आ जाने पर इन्हें मेरा स्मरण होता है और उस समय ये मेरी स्तुति करते हैं, अपने रक्षण के लिये प्रार्थना करते हैं। यदि इन युद्धों के आ जाने से पहले ही वे मेरा स्मरण करें और अदेवयु पुरुषों की गति का ध्यान करें तो वे अपनी अदेवयु बनने की वृत्ति को दूर करके इन युद्धों से बचे ही रहें ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमें इस बात को भूलना न चाहिए कि अदेवयु पुरुषों का अन्त भयङ्कर हिंसा असुर युद्धों में हो जाया करता है ।

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    विषय

    अप्रातम दुष्ट-नाशक प्रभु।

    भावार्थ

    (अदेवयून्) देव, विद्वानों, और सर्व-सुखप्रद प्रभु को न चाहने वाले शत्रुओं को (सम्-अरणे) संग्राम में (जघन्वान्) विनाश करता हूँ (यः इति ब्रवीति) जो ऐसा कहता है (तं) उसको (अहं न वेद) मैं नहीं जानता। (यद् ऋघावत्) जो हिंसादि से युक्त (सम्-अरणम्) संग्राम को (अव-अख्यत्) देखता हूं। (आत् इत्) तभी विद्वान् लोग (मे) मेरे (वृषभा) मेघ-वर्षणादि और अनेक बलयुक्त कर्मों का (प्र ब्रुवन्ति) वर्णन करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसुक्र ऐन्द्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १, ५, ८, १०, १४, २२ त्रिष्टुप्। २, ९, १६, १८ विराट् त्रिष्टुप्। ३, ४, ११, १२, १५, १९–२१, २३ निचृत् त्रिष्टुप्। ६, ७, १३, १७ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २४ भुरिक् त्रिष्टुप्। चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अदेवयून् समरणे जघन्वान्) मां देवं न मन्यमानान् संग्रामे हन्मि (इति यः-ब्रवीति) एवं यो ब्रवीति घोषयति (तम् न अहं वेद) न खलु-अहमित्थं वेद्मि जानामि-मन्ये, मया विना न कोपि इत्थं वक्तुमर्हति मम साहाय्येनैव हन्तुमर्हति (यदा समरणे-अवाख्यत्) यदा संग्रामे साक्षात् पश्यति स्वाभ्यन्तरे (ऋघावत्-आत्-इत्-ह) परस्परं देवासुरवृत्तयः सत्यासत्यविवेचिका मतयो विद्यन्ते यस्मिन् स ऋघावान्-तद्वत् “ऋघाः सत्यासत्यविवेचिका मतयो विद्यन्ते यस्मिन् सः ॠन् शत्रून् घ्नन्ति यस्मिन् हन् धातोर्वर्णव्यत्ययेन हस्य घ नलोपश्च” [ऋ० १।१५२।२।दयानन्दः] अनन्तरं हि (मे वृषभा प्र ब्रुवन्ति) तदा मम बलवन्ति कर्माणि स्वाभ्यन्तरे प्रशंसन्ति ॥३॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    I know not one who says: I have defeated and destroyed the evil and ungenerous in the battle between right and wrong by myself; instead, when the battle between good and evil is won, then the brave warriors declare that they attribute the victory only to me.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्म्याच्या साह्याशिवाय माणूस कोणत्याही युद्ध प्रसंगात आपल्या विरोधी असणाऱ्यांना पराभूत करू शकत नाही. देवासूर वृत्तीच्या आंतरिक संग्रामातही परमात्म्याच्या साह्याची आवश्यकता असते. त्यासाठी त्या परमात्म्याच्या गुण, कर्म व पौरुषाची स्तुती केली पाहिजे. ॥३॥

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