Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 28 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 28/ मन्त्र 4
    ऋषिः - इन्द्रवसुक्रयोः संवाद ऐन्द्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    इ॒दं सु मे॑ जरित॒रा चि॑किद्धि प्रती॒पं शापं॑ न॒द्यो॑ वहन्ति । लो॒पा॒शः सिं॒हं प्र॒त्यञ्च॑मत्साः क्रो॒ष्टा व॑रा॒हं निर॑तक्त॒ कक्षा॑त् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒दम् । सु । मे॒ । ज॒रि॒तः॒ । आ । चि॒कि॒द्धि॒ । प्र॒ति॒ऽई॒पम् । शाप॑म् । न॒द्यः॑ । व॒ह॒न्ति॒ । लो॒पा॒शः । सिं॒हम् । प्र॒त्यञ्च॑म् । अ॒त्सा॒रिति॑ । क्रो॒ष्टा । व॒रा॒हम् । निः । अ॒त॒क्त॒ । कक्षा॑त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इदं सु मे जरितरा चिकिद्धि प्रतीपं शापं नद्यो वहन्ति । लोपाशः सिंहं प्रत्यञ्चमत्साः क्रोष्टा वराहं निरतक्त कक्षात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इदम् । सु । मे । जरितः । आ । चिकिद्धि । प्रतिऽईपम् । शापम् । नद्यः । वहन्ति । लोपाशः । सिंहम् । प्रत्यञ्चम् । अत्सारिति । क्रोष्टा । वराहम् । निः । अतक्त । कक्षात् ॥ १०.२८.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 28; मन्त्र » 4
    अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 20; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (जरितः) हे पापों के क्षीण करनेवाले आत्मन् ! या शत्रुओं के क्षीण करनेवाले राजन् ! (मे-इदं सु-आ चिकिद्धि) मेरे इस वचन को तू भली-भाँति जान (नद्यः-शापं प्रतीपं वहन्ति) मेरे प्रभाव से नाड़ियाँ मलिन भाग को और नदियाँ दूषित पदार्थ को विपरीत नीचे बहाती हैं या फेंकती हैं, किन्तु शरीर को या राष्ट्र को दूषित नहीं करतीं, ऐसा कथन प्राण या राज्यमन्त्री का है। (लोपाशः सिंहं प्रत्यञ्चम्-अत्साः) घास खानेवाला पशु मुझ राजमन्त्री की प्रेरणा से सिंह-सदृश बलवान् जन को पीछे धकेल देता है (क्रोष्टा वराहं कक्षात्-निरतक्त) केवल बोलनेवाला गीदड़ भी बलवान् बन शूकर को या गीदड़समान पुरुष भी शूकरसमान बलवान् पुरुष को स्थान से बाहर निकाल दे ॥४॥

    भावार्थ

    प्राण की शक्ति से शरीर की नाड़ियाँ दूषित रस को नीचे बहा देती हैं और प्राण की शक्ति से घास खानेवाला लघु पशु भी सिंह आदि जैसे पशु को पछाड़ देता है तथा राष्ट्रमन्त्री ऐसी व्यवस्था करे कि नदियाँ दूषित पदार्थों को नीचे बहा ले जावें और राष्ट्रमन्त्री शाक अन्न आदि से पुष्ट होने की ऐसी व्यवस्था करे कि उनके खानेवाला सिंह आदि जैसे बलवान् विरोधी जन को पछाड़ दे ॥४॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    वीर पुरुष

    शब्दार्थ

    (जरितः) हे शत्रुओं का नाश करनेवाले ! आप (इदं) यह (मे) मुझ वीर का (हि) ही (सुचिकित्) सामर्थ्य जानो कि (नद्यः) नदियाँ (प्रतीपम् शापं आ वहन्ति) विपरीत दिशा को जल बहाने लगती हैं (लोपाश:) तृणचारी पशु भी (प्रत्यञ्चम् सिंहम्) सम्मुख आते हुए सिंह को (अत्सा:) नष्ट कर देता है। और (कोष्टा:) शृगालवत् रोनेवाला निर्बल भी (वराहम्) शूकर के समान बलवान् को (कक्षात निर् अतक्त) मैदान से बाहर निकाल भगाता है ।

    भावार्थ

    मन्त्र में वीर पुरुष की महिमा का गुणगान है । संसार में ऐसा कौन-सा कार्य है जिसे वीर पुरुष नही कर सकता ? वीर पुरुष नदियों पर इस प्रकार के बन्ध बाँध देते हैं कि नदियाँ विपरीत दशा में बहने लग जाती हैं। अथवा वीर पुरुष संसाररूपी नदी के प्रवाह को मोड़कर उलटा बहा देते हैं । वीर पुरुष तृण भक्षण करनेवाले पशुओं को ऐसा प्रशिक्षण देते हैं कि वे सम्मुख आते हुए सिंह को मार भगाते हैं । भाव यह है कि वीर पुरुष तुच्छ साधनों से महान् कार्यों को सम्पन्न कर लेते हैं। गुरु गोविन्दसिंह जी ने ठीक ही तो कहा था – चिड़ियों से मैं बाज लड़ाऊँ, तो गोविन्दसिंह नाम धराऊँ । कर्मवीर निर्बल मनुष्य में भी ऐसा पराक्रम फूंक देते हैं कि वे बलवान् शत्रु को भी मार भगाते हैं ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    मूकं करोति वाचालम्

    पदार्थ

    [१] हे (जरितः) = स्तोता ! तू (मे) = मेरे विषय में (इदम्) = इस बात को (सु आचिकिद्धि) = अच्छी प्रकार पूरी तरह से समझ ले कि मेरी कृपा के होने पर अथवा एक व्यक्ति के जीवन में मेरा सम्पर्क होने पर (नद्यः) = नदियाँ (शापम्) = जल को (प्रतीपम्) = उलटा-स्रोत की ओर (वहन्ति) = ले जानेवाली होती हैं। [२] (लोपाशः) = लुप्यमान [लुप् छेदने] तृणों को खानेवाला मृग (प्रत्यञ्चं सिंहम्) = अपनी ओर आते हुए शेर पर भी (अत्सा:) = आक्रमण करता है वही बात प्रभु-भक्त के जीवन में होती है कि वह हरिण से शेर बन जाता है। निर्बल 'शक्ति का पुञ्ज' बन जाता है। निर्बलता का स्थान शक्ति ले लेती है । [३] (क्रोष्टा) = गीदड़ (वराहम्) = सूकर को कक्षात् उसके छिपने के स्थान से निरन्तर बाहर निकालता है। 'गीदड़' कायरता का प्रतीक है। यह अब कायर न रहकर वीर बनता है और इतना वीर कि सूकर को भी उसके गुफा में से निकाल लाता है। इस प्रकार प्रभु सम्पर्क हमारी भीरुता को दूर करके हमें वीर बनाता है। [४] संक्षेप में, प्रभु भक्ति मनुष्य को - [क] असम्भव से असम्भव कार्यों को भी सम्भव कर देने के क्षम बनाती है। [ख] उसकी निर्बलता को नष्ट कर उसे शक्ति का पुञ्ज बनाती है। [ग] उसकी कायरता को दूर करके उसे वीर बना देती है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु-भक्त के लिये कुछ असम्भव नहीं रहता, वह शक्ति का पुञ्ज व वीर बनता है।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    प्रभु और राजा का महान् सामर्थ्य।

    भावार्थ

    हे (जरितः) शत्रुओं को नाश करने वाले ! वा हे स्तुतिशील विद्वन् ! तू (इदं) यह सत्य सामर्थ्य (मे) मेरा ही जान (हि) कि (नद्यः) नदियां भी (प्रतीपं शापं वहन्ति) विपरीत दिशा को जल बहाने लगती हैं। उसी प्रकार यह राजा ही का सामर्थ्य है कि (नद्यः) स्तुतियुक्त, वा समृद्ध, वा गर्जती सेनाएं वा प्रजाएं भी (शापं प्रतीपं वहन्ति) ललकारते हुए शत्रु को भी उलटा भगा देती हैं। (लोपाशः = रोपाशः) तृणचारी पशु भी (प्रत्यञ्चम् सिंहं) आगे आते सिंह के समान पराक्रमी हिंसक की भी (अत्सात्) नष्ट करता है, और (क्रोष्टा) शृगालवत् रोने वाला निर्बल भी (वराहं) शूकर के समान बलवान् को (कक्षात् निर्-अतक्त) मैदान से निकाल देता है। आत्मा, वा नायक में बड़ा भारी बल होता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    इन्द्रवसुक्रयोः संवादः। ऐन्द्र ऋषिः। इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १,२,७,८,१२ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ६ त्रिष्टुप्। ४, ५, १० विराट् त्रिष्टुप् । ९, ११ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (जरितः) हे पापानां शत्रूणां वा जरयितः ! नाशयितः ! (मे इदं सु-आचिकिद्धि) मम इदं वचनं सम्यक् त्वं जानीहि (नद्यः शापं प्रतीपं वहन्ति) नाड्यो नद्यो वा स्वकीयं मलिनं रसं वा विपरीतं वहन्ति नीचैर्नयन्ति न शरीरं राष्ट्रं वा दूषयन्ति, इति वसुक्रस्य प्राणस्य राजमन्त्रिणो वा वचनम् (लोपाशः सिंहं प्रत्यञ्चम्-अत्साः) लोपं छेदनीयं कर्त्तनीयं तृणमश्नातीति लोपाशो घासाहारी “लुप्लृ छेदने” [तुदादि] लघुपशुर्मत्प्रेरणया प्राणशक्तिसम्पन्नो यद्वा मया राजमन्त्रिणा प्रेरितोऽन्नाहारी जनः सिंहं मांसभक्षकं यद्वा सिंहसदृशं भयङ्करं पुरुषमपि पश्चात् प्रक्षिपेत् (क्रोष्टा वराहं कक्षात् निरतक्त) केवलं बहुवक्ता शृगालोऽपि यद्वा शृगालसदृशो जनोऽपि शूकरं शूकरसमानं बलवन्तं पुरुषमपि स्थानाद् बहिर्निस्सारयेत् ॥४॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O celebrant, know this force of my power: By the dynamic force of my system and order, the stream of ordered life can carry off criticism, opposition and contradictions and throw out all poisonous elements, the ordinary vegetarian citizen faces and drives off the violent carnivorous enemy, and a single clarion call would dig out and throw out the most destructive terrorist forces from the darkest den.

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    प्राणशक्तीने शरीराच्या नाड्या दूषित रस खाली प्रवाहित करतात व प्राणशक्तीनेच तृण खाणारा लहानसा पशूही सिंहासारख्या पशूंवर मात करतो. राष्ट्रमंत्र्याने अशी व्यवस्था करावी, की नद्यांनी दूषित पदार्थांना खाली वाहत न्यावे व राष्ट्रमंत्र्याने भाजीपाला, अन्न इत्यादींनी पुष्ट होण्याची अशी व्यवस्था करावी की त्यांना खाणाऱ्या सिंह इत्यादीसारख्या बलवान विरोधी लोकांनाही पराजित करावे. ॥४॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top