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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 29 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 29/ मन्त्र 6
    ऋषिः - वसुक्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    मात्रे॒ नु ते॒ सुमि॑ते इन्द्र पू॒र्वी द्यौर्म॒ज्मना॑ पृथि॒वी काव्ये॑न । वरा॑य ते घृ॒तव॑न्तः सु॒तास॒: स्वाद्म॑न्भवन्तु पी॒तये॒ मधू॑नि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मात्रे॒ इति॑ । नु । ते॒ । सुमि॑ते॒ इति॒ सुऽमि॑ते । इ॒न्द्र॒ । पू॒र्वी इति॑ । द्यौः । म॒ज्मना॑ । पृ॒थि॒वी । काव्ये॑न । वरा॑य । ते॒ । घृ॒तऽव॑न्तः । सु॒तासः॑ । स्वाद्म॑न् । भ॒व॒न्तु॒ । पी॒तये॑ । मधू॑नि ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मात्रे नु ते सुमिते इन्द्र पूर्वी द्यौर्मज्मना पृथिवी काव्येन । वराय ते घृतवन्तः सुतास: स्वाद्मन्भवन्तु पीतये मधूनि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मात्रे इति । नु । ते । सुमिते इति सुऽमिते । इन्द्र । पूर्वी इति । द्यौः । मज्मना । पृथिवी । काव्येन । वराय । ते । घृतऽवन्तः । सुतासः । स्वाद्मन् । भवन्तु । पीतये । मधूनि ॥ १०.२९.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 29; मन्त्र » 6
    अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन् ! (ते) तेरे (मज्मना काव्येन) बलिष्ठ कला प्रकार से रचे हुए (पूर्वी) पूर्ण करनेवाली या श्रेष्ठ (द्यौः पृथिवी) द्युलोक और पृथ्वी-लोक (मात्रे न सुमिते) माता के समान उत्तम माप से युक्त (ते) उन दोनों के मध्य में (घृतवन्तः सुतासः) रसवाली सोमादि वनस्पतियाँ (वराय) श्रेष्ठजन-उपासक के लिये (स्वाद्मन् पीतये) सुस्वादु भोजन के निमित्त तथा कुछ पीने के लिए (मधूनि) मीठे दोनों प्रकार के खाने-पीने के निमित्त फल (भवन्तु) होवें ॥६॥

    भावार्थ

    परमात्मा ने अपने महान् बल ओर रचनाकौशल से द्युलोक और पृथ्वीलोक को रचा तथा रसीले अन्नों फलों से पूर्ण वनस्पतियों को भी उत्पन्न किया है। उपासक जन उसका संयम से मधुर स्वाद लेते हैं। वह स्तुति करने योग्य है ॥६॥

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    विषय

    'पूर्ण मदः पूर्णमिदम्'

    पदार्थ

    [१] प्रभु जीव से कहते हैं - हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! मात्रे ते = अपने जीवन का निर्माण करनेवाले तेरे लिये, (मज्मना) = [मज शुद्धौ] शोधक काव्येन ज्ञान से, (द्यौः पृथिवी) = द्युलोक तथा पृथिवीलोक (नु) = निश्चय से (सुमिते) = बड़ी उत्तमता से बनाये गये हैं और (पूर्वी) = ये तेरा पूरण करनेवाले हैं । द्युलोक से लेकर पृथ्वीलोक तक सारा ब्रह्माण्ड प्रभु की देदीप्यमान ज्योति से पूर्णता को लिये हुए बनाया गया है। यहाँ किसी भी प्रकार की कमी नहीं है 'पूर्णमदः पूर्णमिदं' । कमी उन्हीं को लगती है जो जीवन के निर्माण की रुचिवाले न होकर भोगमार्ग में बह जाते हैं । भोगवृत्तिवाले के लिये संसार में कमी ही कमी है, पर निर्माणरूपि व्रती पुरुष को संसार में कमी नहीं दिखती। [२] हे (स्वाद्मन्) = [सु आ अद्मन्] सदा उत्तम भोजन खानेवाले जीव ! (वराय) = [वृणोति इति] ठीक चुनाव करनेवाले तेरे लिये भोग की उपेक्षा जीवन के निर्माण को पसन्द करनेवाले तेरे लिये, (सुतासः) = भोजन से उत्पन्न सोमकण (घृतवन्तः) = मलों के क्षरणवाले तथा ज्ञान की दीप्ति को बढ़ानेवाले (भवन्तु) = हों। सात्त्विक भोजन से उत्पन्न शीतवीर्य के कण शरीर में ही सुरक्षित रहकर शरीर को रोगक्रान्त नहीं होने देते और साथ ही मस्तिष्क की ज्ञानाग्नि का ईंधन बनकर ये ज्ञानाग्नि को दीप्त करते हैं। [३] ये सोमकण (पीतये) = रक्षण के लिये हों । इनकी रक्षा से हम शरीर व मन के रोगों से ऊपर उठें। (मधूनि) = भवन्तु ये अत्यन्त मधुर हों। ये हमारे स्वभाव व जीवन में माधुर्य को लाने का कारण बनें। सोम रक्षा के अभाव में ही स्वभाव में चिड़चिड़ापन आता है और हम द्वेष, ईर्ष्या व क्रोध के वश हो जाते हैं। सोम के सुरक्षित होने पर द्वेष का स्थान प्रेम ले-लेगा, ईर्ष्या के स्थान को मुदिता ले लेगी और क्रोध करुणा से आक्रान्त होकर नष्ट हो जाएगा ।

    भावार्थ

    भावार्थ - जीवन का निर्माण करनेवाले के लिये यह संसार पूर्ण है, भोगवादी इसमें अपूर्णता को देखता है। सुरक्षित सोम हमें क्षीणमल, दीप्तज्ञान व मधुर स्वभाव बनाता है ।

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    विषय

    प्रभु की बनाए आकाश और पृथिवी विश्व के माता पिता के तुल्य हैं।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! (द्यौः पृथिवी) आकाश वा सूर्य और भूमि दोनों (ते) तेरे (काव्येन मज्मना) क्रान्तदर्शी, विद्वानों द्वारा जानने योग्य बल से (सु-मिते) उत्तम रीति से बनी और (मात्रे नु) अन्य नाना लोकों और जीवों को माता के तुल्य बनाने वाली हैं। (ते) तेरे (सुतासः) बनाये हुए पदार्थ (घृत-वन्तः) घी से युक्त खाद्य पदार्थों के समान ही (घृत-वन्तः) जल और तेज से युक्त होकर (वराय स्वाद्मन् भवन्तु) श्रेष्ठ पुरुष के लिये सुख से भोग करने योग्य हों और (मधूनि) जल और मधुर अन्नादि पदार्थ (पीतये भवन्तु) पान करने के लिये हों।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसुक्र ऋषिः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १, ५, ७ विराट् त्रिष्टुप् । २, ४, ६ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ८ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (इन्द्र) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन् ! (ते) तव (मज्मना काव्येन) बलवता कलाप्रकारेण रचिते (पूर्वी) पूर्व्यौ पूरयित्र्यौ श्रेष्ठे वा (द्यौः पृथिवी) द्यौश्च पृथिवी च (मात्रे नु सुमिते) मातृसदृश्यौ सुमानयुक्ते (ते) तयोर्मध्ये (घृतवन्तः सुतासः) रसवन्तः सोमादयो वनस्पतयः (वराय) श्रेष्ठजनाय-उपासकाय (स्वाद्मन् पीतये) सुस्वादुभोजननिमित्तं तथा च पानाय (मधूनि) मधुराणि चोभयभोजनपाननिमित्तानि फलानि (भवन्तु) सन्तु ॥६॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Indra, lord omniscient and omnipotent, mother earth and the heaven of light, both ancient and eternal in the existential cycle, are created in excellent measure of form and function by your vision and power. May the delicious and refined honey drinks of soma and sumptuous foods gifted by sun and earth be exhilarating and delightful for noble humanity and for their yajnic homage to you.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वराने आपल्या महान बल व रचना कौशल्याने द्युलोक व पृथ्वीलोक निर्माण केले व रसदार अन्न व फळांनी पूर्ण वनस्पतींना निर्माण केलेले आहे. उपासक त्यांचा संयमाने मधुर स्वाद घेतात. तो स्तुती करण्यायोग्य आहे. ॥६॥

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