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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 31/ मन्त्र 8
    ऋषिः - कवष ऐलूषः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    नैताव॑दे॒ना प॒रो अ॒न्यद॑स्त्यु॒क्षा स द्यावा॑पृथि॒वी बि॑भर्ति । त्वचं॑ प॒वित्रं॑ कृणुत स्व॒धावा॒न्यदीं॒ सूर्यं॒ न ह॒रितो॒ वह॑न्ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । ए॒ताव॑त् । ए॒ना । प॒रः । अ॒न्यत् । अ॒स्ति॒ । उ॒क्षा । सः । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । बि॒भ॒र्ति॒ । त्वच॑म् । प॒वित्र॑म् । कृ॒णु॒त॒ । स्व॒धाऽवा॑न् । यत् । ई॒म् । सूर्य॑म् । न । ह॒रितः॑ । वह॑न्ति ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नैतावदेना परो अन्यदस्त्युक्षा स द्यावापृथिवी बिभर्ति । त्वचं पवित्रं कृणुत स्वधावान्यदीं सूर्यं न हरितो वहन्ति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न । एतावत् । एना । परः । अन्यत् । अस्ति । उक्षा । सः । द्यावापृथिवी इति । बिभर्ति । त्वचम् । पवित्रम् । कृणुत । स्वधाऽवान् । यत् । ईम् । सूर्यम् । न । हरितः । वहन्ति ॥ १०.३१.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 31; मन्त्र » 8
    अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 28; मन्त्र » 3
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (सः-उक्षा द्यावापृथिवी बिभर्ति) वह शक्ति का सींचनेवाला-भरनेवाला परमात्मा द्युलोक और पृथ्वीलोक को अर्थात् यह द्यावापृथ्वीमय जगत् को धारण करता है-पालता है (एना-एतावत् परः-अन्यत्-न-अस्ति) इस इतने सत्ताधारी से भिन्न अन्य सामर्थ्यवान् नहीं है (त्वचं पवित्रं कृणुते) जो जगत् के आवरण को ज्योतिष्मान् करता है (स्वधावान्-यत्-ईम्) स्वधारणशक्तिवाला जिससे है (हरितः-न सूर्यं वहन्ति) जैसे हरणशील-रसों को हरण करनेवाली किरणें सूर्य को वहन करती हैं-द्योतित करती हैं, उसी भाँति जगत्-पदार्थ परमात्मा को द्योतित करते हैं ॥८॥

    भावार्थ

    परमात्मा द्यावापृथिवीमय जगत् को शक्ति देता है। उससे कोई बड़ा शक्तिमान् नहीं है। जैसे सूर्यकिरणें सूर्य के आश्रित हो सूर्य को दर्शाती हैं, ऐसे ही जगत्पदार्थ परमात्मा के आश्रित हो उसे दर्शाते हैं ॥८॥

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    विषय

    इन्द्रियों की पवित्रता व पवित्र जीवन

    पदार्थ

    [१] मनुष्य अपनी अल्पज्ञता से कई बार इस संसार में ऐसा उलझ जाता है कि उसे परलोक का ध्यान ही नहीं रहता। उपनिषद् में इन्हीं के लिये कहा गया है कि 'अयं लोकोनास्ति पर इति मानी, पुनः पुनर्वशमापद्यते मे', 'यही लोक है, परलोक नहीं है' ऐसा माननेवाला फिर-फिर मृत्युचक्र में पड़ता है। वेद कहता है कि यह उनकी धारणा गलत है (न एतावत्) = केवल यही लोक नहीं है । (एना) = [एनेभ्यः] इन दृश्यमान लोक-लोकान्तरों से (परः) = उत्कृष्ट (अन्यत्) = दूसरा आत्मतत्त्व (अस्ति) = है । (उक्षा) = वस्तुतः वह आत्मतत्त्व ही इस संसार - शकट का वहन करनेवाला है, सब पर सुखों का सेचन करनेवाला है और (सः) = वह ही (द्यावापृथिवी) = द्युलोक व पृथ्वीलोक को, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को (बिभर्ति) = धारण करता है । [२] आत्मतत्त्व को 'स्व' कहते हैं, इस आत्मतत्त्व का धारण 'स्वधा' है । (स्वधावान्) = इस आत्मतत्त्व के धारणवाला व्यक्ति (त्वचम्) = [Touch] इन्द्रियों के विषयों के साथ सम्पर्क को मात्रा स्पर्शों को (पवित्रं कृणुत) = पवित्र कर लेता है, अर्थात् यह इन्द्रियों से विषयों का ग्रहण जीवन की उन्नति के लिये ही करता है। यह उन सम्पर्कों में आसक्त नहीं हो जाता । [३] यह वह समय होता है (यद्) = जब कि (ईम्) = निश्चय से (हरितः) = ये इन्द्रियरूप (अश्व) = इसके लिये (सूर्यम्) = ज्ञान के सूर्य को उसी प्रकार (वहन्ति) = प्राप्त कराते हैं (न) = जैसे कि (हरितः) = सूर्य-किरण रूप अश्व (सूर्यम्) = सूर्य को (वहन्ति) = इस पृथ्वी पर प्राप्त कराते हैं, अर्थात् विषयों में अनासक्त इन्द्रियाँ ज्ञानवृद्धि का कारण बनती हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ - इस भौतिक संसार से परे इसका संचालक आत्मतत्त्व भी है। इस आत्मतत्त्व का ज्ञान हमारे जीवनों को पवित्र करता है। इस जीवन में इन्द्रियाँ हमें ज्ञान के सूर्य को प्राप्त करानेवाली होती हैं ।

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    विषय

    सर्वधारक प्रभु। वही आकाश और पृथ्वी का कर्त्ता है।

    भावार्थ

    (एना परः अन्यत् न अस्ति) इससे परे दूसरा कुछ पदार्थ नहीं है, (उक्षा सः) वह समस्त जगत् को धारण करने और प्रकृति तत्त्व में जगत्-मूलक बीज निषेक करने वाला परम पुरुष ही (द्यावा पृथिवी) इस सूर्य और पृथिवी, दोनों को (बिभर्त्ति) धारण करता, उनको पालता पोषता भी है। वही (स्वधावान्) स्वयं समस्त जगतों को धारण, पालन, और पोषणकारिणी शक्ति का स्वामी होकर (पवित्रं त्वचं) व्यापक, तेजोमय आकाश रूप आवरण को (कृणुते) बनाता है, (यद् हरितः सूर्यं न) दिशाएं जिस प्रकार अपने भीतर प्रकाशक सूर्य को धारण करती हैं उसी प्रकार (ईम् वहन्ति) जगत् के समस्त पदार्थ उसको अपने भीतर धारण करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कवष ऐलूष ऋषिः॥ विश्वे देवा देवताः॥ छन्द:-१, ८ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ४,५, ७, ११ त्रिष्टुप्। ३, १० विराट् त्रिष्टुप्। ६ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ६ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सः-उक्षा द्यावापृथिवी बिभर्त्ति) स शक्तिसेचकः परमात्मा द्युलोकं पृथिवीलोकं च द्यावापृथिवीमयं जगद् धारयति पालयति (एना-एतावत् परः-अन्यत् न अस्ति) अस्मात्-एतावतः सत्तावतो भिन्नो नान्योऽस्ति सामर्थ्यवानिति शेषः, (त्वचं पवित्रं-कृणुते) यः खलु जगतस्त्वचमावरणं ज्योतिष्मन्तं रक्षणाय करोति (स्वधावान्-यत्-ईम्) स्वधारणशक्तिमान् यतो हि (हरितः न सूर्यं वहन्ति) यथा हरणशीला रश्मयः हरितो हरणा “हरितः-हरणानादित्यरश्मीन्” [निरु०४।१३] सूर्यं वहन्ति प्रापयन्ति द्योतयन्ति तद्वत् परमात्मानं जगत्पदार्था द्योतयन्ति ॥८॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    There is no other universe like this nor beyond this, and yet there is one power not just exactly as this but beyond, and that is the mighty generous creator and generator who bears this heaven and earth. That is the master lord of Prakrti, his own Shakti, the mighty material cause of the universe, and he creates and structures the sacred form of it and bears it all as the cosmic energies and space directions bear the sun.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा द्यावापृथ्वीमय जगाला शक्ती देतो. त्याच्यापेक्षा मोठा शक्तिमान कोणीही नाही. जसे सूर्याच्या आश्रयामुळे सूर्यकिरणे त्याचे दर्शन घडवितात. तसे जगातील पदार्थ परमेश्वराचे आश्रित असून त्याचे दर्शन घडवितात. ॥८॥

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