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ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 41/ मन्त्र 2
प्रा॒त॒र्युजं॑ नास॒त्याधि॑ तिष्ठथः प्रात॒र्यावा॑णं मधु॒वाह॑नं॒ रथ॑म् । विशो॒ येन॒ गच्छ॑थो॒ यज्व॑रीर्नरा की॒रेश्चि॑द्य॒ज्ञं होतृ॑मन्तमश्विना ॥
स्वर सहित पद पाठप्रा॒तः॒ऽयुज॑म् । ना॒स॒त्या॒ । अधि॑ । ति॒ष्ठ॒थः॒ । प्रा॒तः॒ऽयावा॑नम् । म॒धु॒ऽवाह॑नम् । रथ॑म् । विशः॑ । येन॑ । गच्छ॑तः । यज्व॑रीः । न॒रा॒ । की॒रेः । चि॒त् । य॒ज्ञम् । होतृ॑ऽमन्तम् । अ॒श्वि॒ना॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रातर्युजं नासत्याधि तिष्ठथः प्रातर्यावाणं मधुवाहनं रथम् । विशो येन गच्छथो यज्वरीर्नरा कीरेश्चिद्यज्ञं होतृमन्तमश्विना ॥
स्वर रहित पद पाठप्रातःऽयुजम् । नासत्या । अधि । तिष्ठथः । प्रातःऽयावानम् । मधुऽवाहनम् । रथम् । विशः । येन । गच्छतः । यज्वरीः । नरा । कीरेः । चित् । यज्ञम् । होतृऽमन्तम् । अश्विना ॥ १०.४१.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 41; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 21; मन्त्र » 2
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अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 21; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(नासत्या) हे नासिका में होनेवाले (नरा) शरीर के नेता (अश्विना) शीघ्रगामी प्राण-अपानो ! (प्रातर्यावाणम्) प्रातःकाल के समान शुभगतिवाले (मधुवाहनम्) माधुर्य प्राप्त करानेवाले (रथम्) रमणीय मोक्ष को (अधितिष्ठथः) स्वानुकूल कराते हो (येन यज्वरीः-विशः-गच्छथः) जिस को लक्ष्य करके अध्यात्मयाजी मनुष्यप्रजाओं को तुम प्राप्त होते हो (कीरेः-होतृमन्तं यज्ञं चित्) स्तुतिकर्त्ता आत्मावाले अध्यात्मयज्ञ को प्राप्त होते हो ॥२॥
भावार्थ
नासिका के प्राण और अपान-श्वास और प्रश्वास, प्राणायाम के ढंग से प्रातः चलाने से मधुरता प्राप्त करानेवाले मोक्ष की ओर ले जाते हैं। अध्यात्मयज्ञ करनेवाली प्रजाओं को यथार्थरूप से प्राप्त होते हैं-कार्य करते हैं। स्तुतिकर्त्ता आत्मा के अध्यात्मयज्ञ को भली-भाँति चलाते हैं ॥२॥
विषय
'प्रातर्युज् - प्रातर्यावन्- मधुवाहन' रथ
पदार्थ
[१] हे (नासत्या) - नासा में निवास करनेवाले अथवा सब असत्यों से दूर रहनेवाले (अश्विना) = प्राणापानो! आप उस (रथम्) = रथ पर (अधितिष्ठथः) = आरूढ़ होते हो, जो [क] (प्रातर्युजम्) = प्रातः- प्रातः ही उस प्रभु से मेल करनेवाला है, योग का अभ्यास करनेवाला है। हमें चाहिये यही कि प्रातः प्रबुद्ध होकर योगाभ्यास अवश्य करें। [ख] (प्रातर्यावाणम्) = हमारा यह रथ प्रातः से ही गतिशील हो, हम सारा दिन अपने कर्त्तव्य कर्मों में लगे रहें । [ग] यह रथ (मधुवाहनम्) = मधु का वाहन बने । शरीर में उत्पन्न होनेवाली सोम शक्ति ही मधु है । यह शरीर रूप रथ उस सोम का वाहन बने। उत्पन्न हुआ हुआ सोम इस शरीर में ही व्याप्त हो । [२] यह रथ वह है (येन) = जिस से (यज्वरी: विश:) = यज्ञशील प्रजाओं को (गच्छथः) = आप प्राप्त होते हो। यह उत्तम रथ यज्ञशील प्रजाओं को प्राप्त होता है, यज्ञिय वृत्तिवाले लोग इस प्रकार के उत्तम शरीर को प्राप्त करते हैं । हें (नरा) = हमें आगे ले चलनेवाले प्राणापानो! इस रथ से आप (कीरेः चित्) = स्तोता के भी (होतृमन्तम्) = होतावाले, दानपूर्वक अदन की वृत्तिवाले, (यज्ञम्) = यज्ञ को जाते हो। अर्थात् यह उत्तम शरीर रूप रथ स्तवन करनेवाले, यज्ञिय वृत्तिवाले पुरुष को प्राप्त होता है। शरीर को उत्तम बनाने के लिये आवश्यक है कि हम यज्ञशील व स्तोता बनें ।
भावार्थ
भावार्थ- हमारा यह शरीर 'प्रातर्युज्, प्रातर्यावन् व मधुवाहन' हो। हम प्रातः योगाभ्यास करें। प्रातः से ही क्रियाशील जीवनवाले हों और सोम का धारण करें।
विषय
योगाभ्यास द्वारा प्रभु का ध्यान करें, और यज्ञ करें।
भावार्थ
हे (नासत्या) कभी असत्य मार्ग पर पैर न रखने वाले सत्याचरणशील स्त्री पुरुषो ! आप दोनों भी (प्रातः युजे) प्रातःकाल योगाभ्यास द्वारा समाहित चित्त से जानने योग्य, (प्रातर्यावाणं) प्रातः-काल, शुभ काल में जाने वा प्राप्त करने योग्य, (मधु-वाहनं) मधुर अन्न जलवत् सुख प्राप्त कराने वाले, (रथं) रथवत् सुखदायी, रमण करने योग्य प्रभु को (अधि तिष्ठथः) अपना आश्रय बनाओ। (येन) जिसके द्वारा (यज्वरीः) देव पूजा करने वाली, यज्ञशील प्रजाओं को (गच्छथः) प्राप्त होवो और हे (नरा) उत्तम स्त्री पुरुषो ! हे (अश्विना) विद्या आदि शुभ गुण युक्त जनो ! और (कीरेः चित्) उत्तम उपदेष्टा पुरुष के (होतृमन्तं यज्ञम्) उत्तम होता से युक्त यज्ञ को भी (गच्छथः) प्राप्त होवो। इसी प्रकार स्त्री पुरुष यज्ञशील जनों तक जाने के लिये उत्तम रथ पर चढ़ कर जावें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
३ सुहस्त्या धौषेयः ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः– १ पादनिचृज्जगती। २ निचृज्जगती। ३ विराड् जगती ॥ तृचं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(नासत्या) हे नासायां भवौ ! (नरा) शरीरस्य नेतारौ ! (अश्विना) आशुगन्तारौ प्राणापानौ ! “अश्विनौ द्व्यक्षरेण प्राणापानौ” [तै० १।११।१] “अश्विनौ प्राणापानौ” [यजु० २१।६० दयानन्दः] (प्रातर्यावाणम्) प्रातर्वच्छुभगतिमन्तम् (मधुवाहनम्) माधुर्यप्राप्तिकरम् (रथम्) रमणीयं मोक्षम् (अधितिष्ठथः) अधितिष्ठापयथः ‘अन्तर्गतो णिजर्थः’ (येन यज्वरीः-विशः-गच्छथः) यमनु-यं मोक्षमभिलक्ष्य युवामध्यात्मयाजिनीः प्रजाः-मनुष्यप्रजाः प्राप्नुथः (कीरेः-होतृमन्तं यज्ञं चित्) स्तोतुः “कीरिः स्तोतृनाम” [निघ० ३।१६] आत्मवन्तम् “आत्मा वै होता” [कौ० ४।६] अध्यात्मयज्ञं चित् प्राप्नुथः ॥२॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O Ashvins, harbingers of the light of knowledge and energy of life, leading lights of humanity dedicated to truth and never deviating from your path of rectitude, you ride and guide the chariot harnessed, started and moving in the morning, which bears and brings honey sweets of life and by which you reach the yajnic communities and bless the celebrant’s yajna joined by devotees in unison and cooperation.
मराठी (1)
भावार्थ
प्रात:काळी नाकाने प्राण व अपान - श्वास व प्रश्वास, प्राणायामाच्या रीतीने केल्यामुळे, मधुरता प्राप्त करविणाऱ्या मोक्षाकडे घेऊन जातात. ते अध्यात्मयज्ञ करणाऱ्या प्रजेला यथार्थ रूपाने प्राप्त होतात - कार्य करतात. प्रशंसक आत्म्याच्या अध्यात्म यज्ञाला चांगल्या प्रकारे चालवितात. ॥२॥
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